पश्चिम बंगाल में भाजपा का एक भी विधायक नहीं है, किंतु मुख्यमंत्री ममता बनर्जी उसकी आलोचना में इतनी मुखर हैं मानो वही मुख्य विपक्षी दल हो। 21 जुलाई, 2014 की कोलकाता रैली में ममता के निशाने पर सिर्फ और सिर्फ भाजपा थी। ममता ने इस रैली में कहा कि पिछली बार भाजपा के पास एक संसदीय सीट थी, इस बार दो हो गईं। पांच साल बाद उसकी सीटों की संख्या दो से तीन नहीं होगी, शून्य हो जाएगी। सवाल है कि वह पांच साल बाद की तो बात कर रही हैं, लेकिन अगले साल होने वाले कलकत्ता नगर निगम तथा दो साल बाद होने वाले विधानसभा चुनावों के बारे में क्यों चुप्पी ओढ़े हुए हैं? दरअसल, पश्चिम बंगाल में भाजपा के अभ्युदय से सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस इस कदर चिंतित हो उठी है कि उसे रोकने के लिए वह वाम दलों तक से परोक्ष समझौते की तरफ बढ़ रही है। ममता की समूची राजनीति 30 साल तक वाम विरोध खासकर माकपा विरोध के इर्द -गिर्द घूमती रही। यहां तक कि ममता की अगुवाई वाली तृणमूल कांग्रेस का जन्म भी माकपा के विरोध में ही हुआ, किंतु 21 जुलाई, 2014 की कोलकाता रैली में ममता ने माकपा के खिलाफ एक शब्द भी नहीं खर्च किया। उल्टे उन्होंने यहां तक आह्वान कर दिया कि जो वामपंथी थोड़े भी वाम आदशरें में विश्वास करते हैं, वे तृणमूल कांग्रेस में आ जाएं।

सत्ता में आने के तीन साल के भीतर ही ममता का यह राजनीतिक परिवर्तन चकित करने वाला है। आज ममता वामपंथियों की मदद लेने के लिए जिस भाजपा को सांप्रदायिक बता रही हैं, उसी के साथ उन्होंने बंगाल में 1998 के चुनाव में गठजोड़ किया था और तब भाजपा को दो संसदीय सीटें मिली थीं। बंगाल की अग्निकन्या को इसका जवाब देना चाहिए कि जब वह भाजपा के साथ थीं और उनकी पार्टी राजग का हिस्सा थी, तब क्या भाजपा सांप्रदायिक नहीं थी? पिछले दिनों वाम मोर्चा के अध्यक्ष विमान बोस ने राज्य सचिवालय जाकर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से भेंट की थी। विमान बोस वहां गए तो थे तृणमूल कांग्रेस कार्यकर्ताओं के हमले की शिकायत लेकर, पर लौटे माकपा को मजबूत बनाने का ममता का उपदेश सुनकर। विमान बोस और ममता की उक्त बैठक में तय हुआ कि वाममोर्चा तथा राज्य सरकार में समन्वय कायम किया जाए। समन्वय पर सहमति जता कर क्या दोनों दलों ने यह नहीं जता दिया कि बंगाल भाजपा को हराना उनके अकेले दम पर संभव नहीं? जो वाम दल ममता की आलोचना में क्या-क्या नहीं कहते थे, वे अब भाजपा के उभार को रोकने के लिए ममता के साथ जाने को भी तत्पर हैं। बाघ और बकरी का एक ही घाट पर पानी पीना क्या इसी को कहते हैं? ममता का रवैया नीतीश सरीखा है, जिन्होंने भाजपा से मुकाबला करने के लिए अपने कट्टर विरोधी लालू प्रसाद यादव से हाथ मिला लिया है।

ममता की मजबूरी यह है कि वह बंगाल के 27 प्रतिशत मुस्लिम वोटों की रक्षा के लिए एक तरफ भाजपा विरोध का एजेंडा अपनाए हुए हैं, तो दूसरी तरफ अल्पसंख्यकों के लिए कई कल्याणकारी योजनाएं उन्होंने शुरू की हैं और इन्हीं योजनाओं को बंगाल भाजपा ने ममता की तुष्टीकरण की नीति बताते हुए मुद्दा बना दिया है। अब बदले हालात में माकपा और तृणमूल कांग्रेस जैसी धुर विरोधी पार्टियां यदि समन्वय करती हैं तो समन्वय की नई राजनीतिक संस्कृति का वे ढिंढोरा तो पीट लेंगी, किंतु उससे दोनों दलों की विश्वसनीयता घटेगी। यदि दोनों दल समन्वय नहीं करते तो बंगाल भाजपा को लाभ होगा और वह प्रमुख विरोधी दल बनने की दिशा में आगे बढ़ सकती है। तो क्या यह मानना गलत होगा कि एक तरह से विमान-ममता बैठक अपने-अपने राजनीतिक भविष्य को बचाने का बहाना थी। यह मानने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि बंगाल भाजपा के उभार ने पहले कांग्रेस को अप्रासंगिक बनाया और अब वाम दल उसी राह पर हैं। ममता की चिंता इसलिए भी बढ़ी हुई है क्योंकि मोदी के आकर्षण में बंगाल में भाजपा की सदस्यता में इजाफा होने का जो सिलसिला शुरू हुआ था, वह बढ़ता जा रहा है। उधर, बंगाल में नई जमीन बनाने के लिए जो भी करणीय है, भाजपा उसे उत्साहपूर्वक कर रही है। लोकसभा चुनाव में 17 प्रतिशत वोट पाने के बाद उसके हौसले बुलंद हैं। संसदीय चुनाव के बाद की हिंसा और सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस तथा पुलिस की ज्यादती के खिलाफ भाजपा ने दो केंद्रीय दलों को बंगाल भेजकर स्पष्ट कर दिया कि वह मिशन बंगाल 2016 की तैयारी में अभी से जुट गई है। भाजपा के केंद्रीय दलों के दौरे से यही संदेश गया कि यही पार्टी तृणमूल कांग्रेस की ज्यादती से प्रभावित लोगों को बचा सकती है और संकट के समय पीड़ितों के साथ तनकर खड़ी रह सकती है, लेकिन इसका यह आशय नहीं कि बंगाल भाजपा के पक्ष में सिर्फ अनुकूलताएं ही हैं।

हमें इस तथ्य को स्वीकार करना चाहिए कि बंगाल में भाजपा विकल्प के बतौर धीरे-धीरे उभर तो रही है, किंतु उसके पास ऐसा नेतृत्व नहीं है जो स्वयं को ममता बनर्जी के समानांतर उनके विकल्प के बतौर खड़ा कर सके। उधर, ममता कोलकाता में तो भाजपा विरोधी राजनीतिक लाइन अख्तियार किए हुए हैं, किंतु दिल्ली में उनकी पार्टी की योजना केंद्र सरकार के साथ सहयोग कर चलने की है ताकि मोदी सरकार से बंगाल के लिए आर्थिक पैकेज हासिल किया जा सके। पूर्ववर्ती वाम सरकार द्वारा केंद्र सरकार से लिए गए दो लाख करोड़ रुपये के कर्ज का ब्याज ही हर साल 20 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा होता है जिसे बंगाल के खजाने से केंद्र अपने-आप काट लेता है। तीन साल पहले ममता बनर्जी ने जब सत्ता संभाली, तभी से वह विशेष आर्थिक पैकेज देने की मांग करती आ रही हैं। यूपीए सरकार ने उनकी इस मांग पर गौर नहीं किया। अब तृणमूल सांसद अरुण जेटली के यहां दरबार लगा रहे हैं। जेटली ने यह मामला 14वें वित्ता आयोग के पाले में डाल दिया है और कहा है कि 14वां वित्ता आयोग जो भी सिफारिशें करेगा, वे उसे मान लेंगे। अब यदि वित्ता आयोग रियायत अथवा पैकेज की सिफारिश नहीं करता तो उसकी आड़ लेकर जाहिर है कि जेटली बच जाएंगे और तब ममता वंचना का आरोप भी नहीं लगा पाएंगी। यानी ममता के लिए इस मुद्दे पर भी मुश्किल बनी हुई है।

[लेखक कृपाशंकर चौबे, वरिष्ठ स्तंभकार हैं]