राजनीति में हास्य-व्यंग्य की कमी लंबे समय से महसूस की जा रही है। इसके बावजूद किसी नेता ने कभी इस ओर इंगित करने की जरूरत नहीं समझी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने टाइम्स नाउ न्यूज चैनल को दिए इंटरव्यू में कहा कि अब उन्हें इससे डर लगता है, क्योंकि पता नहीं मीडिया किस शब्द को निकालकर उसे किसी अन्य रूप में पेश कर दे। क्या राजनीति से हास्य-व्यंग्य के लुप्त होने का यही कारण है। वैसे प्रधानमंत्री ने जो कहा उससे शायद ज्यादातर राजनेता सहमत होंगे। यह बात तो सही है कि मुहावरों, कहावतों और लोकोक्तियों का प्रयोग चौबीस घंटे के खबरिया चैनल के युग में कठिन हो गया है। संवाद के इन माध्यमों का प्रयोग भावनात्मक अर्थ में होता है। उन्हें शाब्दिक अर्थ में ले लिया जाए तो अर्थ का अनर्थ हो सकता है, लेकिन इस स्थिति के लिए राजनेता और पार्टियां भी कुछ कम जिम्मेदार नहीं है। कितने नेता हैं जो हास्य-व्यंग्य को उसी भाव से ग्रहण करते हैं? वैसे तो प्रधानमंत्री ने बहुत से विषयों पर अपनी राय रखी, लेकिन दो मुद्दों पर उन्होंने एक तरह से मीडिया पर दोष मढ़ा। पहले का जिक्र ऊपर हो चुका है। दूसरा मुद्दा था भाजपा और संघ परिवार के बयानवीरों का। सवाल था कि पार्टी उन पर अंकुश क्यों नहीं लगाती? प्रधानमंत्री ने सीधा जवाब देने की बजाय बात को टालना चाहा और ऐसा करने में उन्होंने इसके लिए मीडिया को ही जिम्मेदार ठहरा दिया। सवाल के जवाब में प्रधानमंत्री का प्रति प्रश्न था कि आप लोग इनको हीरो क्यों बनाते हैं? इन्हें मत दिखाइए, अपने आप बोलना बंद कर देंगे। यह प्रधानमंत्री की इच्छा हो सकती है, लेकिन मीडिया का यह कर्तव्य नहीं हो सकता। मीडिया किसी पार्टी का काम आसान करने के लिए काम नहीं करता। उम्मीद थी कि प्रधानमंत्री जिस तरह सुब्रमण्यम स्वामी से जुड़े सवाल पर बोले, कम से कम उतना तो इन तत्वों के बारे में भी कुछ कहते।

प्रधानमंत्री ने जो कहा उसका निष्कर्ष यह है कि बोलने वाले सस्ती लोकप्रियता के लिए बोलते हैं और मीडिया उन्हें अपने प्रसार के लिए दिखाता है। बात खत्म। सरकार और प्रधानमंत्री का इससे क्या लेना देना। एक बार बात को इसी रूप में स्वीकार कर लें तो भी सवाल उठता है कि इन बयानवीरों के बयान से जो नुकसान होता है और समाज में जो कटुता बढ़ती है उसका क्या? उसके लिए कौन जिम्मेदार है? अब तो इसमें एक नया सवाल जुड़ गया है कि प्रधानमंत्री के इस तर्क का इन बयानवीरों के हौसले पर क्या असर होगा? इससे कम से कम वे हतोत्साहित तो नहीं ही होंगे। दरअसल इस मसले पर प्रधानमंत्री की चुप्पी शायद उनकी मजबूरी है। ऐसे तत्व भाजपा के समर्थक और वोटर हैं। पार्टी और संघ परिवार का कोर समर्थक इन बयानों को ज्यादा अनुचित नहीं मानता। प्रधानमंत्री विकास की जितनी भी बात करें, इस वर्ग के लिए वह मुद्दा गौण है। इस वर्ग के लिए जिस मुद्दे की ज्यादा अहमियत है वह उसी पर बोलता है। उसे लग रहा है कि पहली बार उसे बोलने का मौका मिला है तो चुप क्यों रहे? प्रधानमंत्री चाहकर भी उसके खिलाफ कोई कठोर कदम उठाने का जोखिम नहीं ले सकते। इसलिए पार्टी और सरकार उनसे अपनी असहमति जताती रहेगी, लेकिन उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होगी।

राजनीति में हास्य का पुट घटने की बात करें तो शायद पूरा समाज ही इस तरह का बनता जा रहा है कि अपने पर हंसने वालों की संख्या तेजा से घटती जा रही है। राजनीतिक दलों के नेता अब परस्पर प्रतिद्वंद्वी नहीं रह गए हैं। राजनीतिक विरोध ने दुश्मनी की शक्ल अख्तियार कर ली है। विभिन्न दलों के नेता सार्वजनिक स्थानों पर एक दूसरे से मिलने से भी कतराते हैं। संसद में तो स्थिति और बुरी है। हास्य, कटाक्ष या फब्ती कसने वाला माहौल रहा ही नहीं। भारतीय संसद हमेशा से ऐसा नहीं रही है।

संसद की कार्यवाही का एक बड़ा मशहूर किस्सा है। 1962 में चीन से युद्ध में हार के बाद सदन में इस मसले पर चर्चा हो रही थी। पूरे सदन में तनाव का माहौल था। अक्साई चिन पर चीन के कब्जे की बात उठी तो उस समय के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने कह दिया कि अक्साई चिन चला गया तो क्या हुआ वहां तो घास का एक तिनका भी नहीं उगता था। महावीर त्यागी खड़े हुए और नेहरू जी के गंजे सिर की तरफ इशारा करते हुए कहा कि उगता तो इस पर भी कुछ नहीं है। क्या इसे काटकर किसी को दे दिया जाए? पूरा सदन ठहाकों से गूंज गया। हंसने वालों में नेहरू जी भी शामिल थे। आज इस तरह के मजाक को कौन बर्दाश्त करेगा? एक किस्सा जेबी कृपलानी का है। कृपलानी जी सदन में कांग्रेस की लगातार आलोचना किए जा रहे थे। पास बैठे एक सदस्य ने याद दिलाया कि आपकी पत्नी (सुचेता कृपलानी) भी कांग्रेस में हैं। कृपलानी बोले, मुझे अभी तक लगता था कि कांग्रेसी बेवकूफ हैं। अब लगता है कि ये गैंगस्टर भी हैं। दूसरे की पत्नी लेकर भाग जाते हैं। स्वतंत्र पार्टी के संस्थापक पीलू मोदी किसी भी समय सदन का माहौल हल्का करने में माहिर थे, लेकिन अपनी अंग्रेजी की महारत से वह कई बार पीठीसीन अघिकारी के कोप से बच भी जाते थे। एक बार पीलू सदन में बोल रहे थे। जेसी जैन उन्हें लगातार टोक रहे थे। पीलू मोदी ने झल्लाकर कहा स्टॉप बार्किंग (भौंकना बंद करो)। जैन ने आपत्ति की कि उन्हें कुत्ता कहा जा रहा है। इस पर पीठासीन अधिकारी ने इस टिप्पणी को कार्यवाही से निकाल दिया। पीलू कहां चुप रहने वाले। उन्होंने फिर कहा देन स्टॉप ब्रेयिंग (गधे की तरह रेंकना)। जैन की समझ में नहीं आया और यह टिप्पणी कार्यवाही का हिस्सा रह गई। पीलू मोदी अपने पर भी हंस सकते थे। एक दिन सदन में उन्हें एक सदस्य ने टोका कि पीठासीन अधिकारी की तरफ अपनी बैक (पीठ) करके मत बोलिए। भारी भरकम शरीर वाले पीलू मोदी का तपाक से जवाब आया, मैं तो गोल हूं।

प्रधानमंत्री मोदी ने इंटरव्यू में यह भी कहा कि वे अपने सार्वजनिक भाषण में पहले हास्य का काफी इस्तेमाल करते थे। आज उनको डर लगता है। वैसे आज के नेताओं पर नजर डालें तो ज्यादातर नेता सार्वजनिक जीवन में हास्य को जैसे अवांछनीय मानते हैं। राहुल गांधी, जयललिता, सोनिया गांधी, पी चिदंबरम, एचडी देवेगौड़ा, नवीन पटनायक, ममता बनर्जी, प्रकाश करात, मुलामय सिंह यादव, अरविंद केजरीवाल या मायावती को क्या आपने कभी ठहाका लगाते हुए देखा है? यह मानना मुश्किल है कि ये नेता निजी जीवन में भी ऐसे होंगे। ऐसा लगता है कि नेताओं ने हंसने-हंसाने का सारा जिम्मा लालू यादव को दे दिया है। लालू ने इसे अपने स्वभाव का स्थायी भाव बना लिया है। नतीजा यह हुआ कि उनका हास्य मसखरी की हद तक पहुंच गया। अब उनके हास्य में हंसी कम विद्रूप ज्यादा नजर आता है। इसीलिए कहते हैं अति सर्वत्र वर्जयेत।

[ लेखक प्रदीप सिंह, राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं ]