हिन्दी की बढ़ती स्वीकार्यता
गैर हिंदी भाषियों की यह गलतफहमी दूर होती दिख रही है कि हिंदी उन पर जबरन थोपी जा रही है
अनंत विजय
संसद के चालू सत्र में मिजोरम से राज्यसभा सांसद रोनाल्ड सापा तलाऊ ने जब अपने राज्य में हिंदी शिक्षकों की बदहाली का सवाल उठाया तो कई लोगों को सुखद आश्चर्य हुआ, क्योंकि आम धारणा यह है कि मिजोरम में हिंदी को पसंद नहीं किया जाता। सांसद रोनाल्ड सापा के मुताबिक मिजोरम में फरवरी से करीब तेरह सौ संविदा हिंदी शिक्षक भूख हड़ताल पर हैं, क्योंकि उनको पिछले दस महीने से वेतन नहीं मिला और फरवरी से उनकी सेवा भी समाप्त कर दी गई। अब अगर इसे एक सामान्य खबर की तरह देखें तो हर राज्य में शिक्षकों को कांट्रैक्ट पर रखा जाता है और इन शिक्षकों की सरकार से तनातनी चलती रहती है, लेकिन मिजोरम का मसला अलग है, क्योंकि ये हिंदी के शिक्षक हैं। पूर्वोत्तर के लोगों के बीच हिंदी की स्वीकार्यता बढ़ाने और उनको हिंदी सिखाने के लिए इन शिक्षकों का होना आवश्यक है।
अगर मिजोरम के इतिहास पर नजर डालें तो पिछले करीब दो दशक से यह राज्य हिंसक आंदोलन की चपेट में है। मिजो विद्रोही लगातार हिंदी के खिलाफ न केवल दुष्प्रचार करते रहे हैं, बल्कि इसको भी अपनी समस्याओं की जड़ में मानते रहे हैं। मिजो चरमपंथियों को लगता है कि हिंदी के प्रचार से हिंदुओं का भी प्रचार होगा। लिहाजा वे हिंदी और हिंदू को जोड़कर घृणा का वातावरण बनाते रहे हैं। हालांकि यह कोई नई बात नहीं है। हिंदी को हिंदुत्व से जोड़ने की कोशिशें आजादी के बाद से ही की जाती रही हैं। रामधारी सिंह दिनकर ने राज्यसभा में एक चर्चा के दौरान साथी सांसद फ्रेंक एंथोनी की इस बात का कड़ा प्रतिवाद किया था कि हिंदी हिंदुत्व की भाषा है। दिनकर जी ने हिंदी के बारे में सारी शंकाओं को दूर करते हुए कहा था कि ‘हिंदी संकीर्णता की नहीं, बल्कि उदारता की भाषा है। भारत जितना सहिष्णु देश है, हिंदी भी हमेशा उतनी ही सहिष्णु और उदार भाषा रही है।’
मिजोरम का जो समाज है या वहां के जो लोग हैं वे सांस्कृतिक तौर पर अपनी अलग पहचान रखते हैं और भारत के मैदानी इलाके की संस्कृति से बिल्कुल अलग हैं। यह हिंदी ही है जो उनको देश के बाकी हिस्सों से जोड़ने का काम करती है। हिंदी शिक्षकों की समस्या को उठानेवाले सांसद रोनाल्डो सापा भी इस पर जोर देते हैं कि हिंदी को रणनीतिक रूप से मिजोरम समेत तमाम उत्तर-पूर्व के राज्यों में मजबूत करना होगा ताकि वहां के लोग शेष भारत से अपना जुड़ाव महसूस करते रहें। अगर मिजोरम के हिंदी शिक्षकों की समस्या को इस आईने में देखा जाएगा तो एक बिल्कुल अलहदा तस्वीर नजर आएगी और केंद्र और राज्य सरकार को मिलकर फौरन इस दिशा में सकारात्मक कदम उठाने की आवश्यकता है। यह बात कई बार कही जा चुकी है कि हिंदी भारत की एकता की भाषा है और गांधी जी ने इसको साबित भी किया। जब वह दक्षिण अफ्रीका से लौटे तो यहां आते ही उन्होंने हिंदी में बोलना शुरू कर दिया और पूरे देश के लोग उनकी बातें समझने लगे।
यह तो आजादी के बाद राजनीति की प्रधानता ने हिंदी को लेकर तमाम भ्रांतियां फैलानी शुरू की। उग्रवादियों और चरमपंथियों ने लोगों की भावनाओं को भड़काने के लिए भी अन्य भाषाओं को हिंदी के खिलाफ खड़ा करना शुरू किया। भारत का भावना प्रधान समाज इस साजिश को समझ नहीं पाया और उसका शिकार हो गया। अब वक्त आ गया है कि हिंदी को देश को जोड़नेवाली भाषा के तौर पर मिल रही मान्यता को और मजबूत किया जाए और मिजोरम जैसे गैर हिंदी भाषी राज्यों में हिंदी की स्वीकार्यता को और गाढ़ा करने का काम किया जाए। इसलिए और भी, क्योंकि पिछले कुछ वर्षो से गैर हिंदी प्रदेशों की यह गलतफहमी दूर होती दिख रही है कि हिंदी उन पर जबरन थोपी जा रही है।
पूरे देश में हिंदी एक संपर्क भाषा के तौर पर धीरे-धीरे अंग्रेजी को विस्थापित करने लगी है। सूदूर दक्षिण से लेकर पूर्वोत्तर के राज्यों में भी हिंदी को लेकर एक खास किस्म का अपनापन दिखाई देने लगा है। पूर्वोत्तर राज्यों के ज्यादातर युवाओं का मानना है कि देश की मुख्यधारा में शामिल होने के लिए हिंदी सीखने की जरूरत है। हालांकि कुछ लोग बीच-बीच में हिंदी के नाम पर सियासत करने की कोशिश अभी भी करते रहते हैं। जैसे अभी हाल ही में डीएमके के नेता स्टालिन ने मोदी सरकार पर तमिलनाडु पर हिंदी थोपने का आरोप लगाया।
दरअसल स्टालिन नेशनल हाईवे पर मील के पत्थरों पर हिंदी में शहरों के नाम लिखे जाने को लेकर खफा थे। स्टालिन के इस बयान को विधानसभा उपचुनाव के पहले के सियासी कदम के तौर पर देखा गया। वैसे भी वह अपनी सुविधानुसार हिंदी का विरोध या समर्थन करते रहे हैं। पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान तमिलनाडु में कई जगहों पर डीएमके ने हिंदी में पोस्टर लगवाए थे। इसी तरह असम में हालिया विधानसभा चुनाव के पहले हिंदी भाषियों पर हमले हुए थे, लेकिन अब वहां भी हालात बेहतर हैं।
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