संसद के मानसून सत्र में हुए हंगामे और सत्ता पक्ष और विपक्ष में बढ़ते टकराव से देश बहुत चिंतित है। पिछले दिनों इसी पृष्ठ पर आरके सिन्हा ने 'संसदीय लोकतंत्र को खतरा लेख में लिखा था कि 'देश में विकास की बयार बहे इसके लिए जरूरी है कि परस्पर संवाद का वातावरण बना रहे। यह हो सकता है अगर सांसद अपने संकल्प को याद करें। संसद के पचास साल पूरे होने पर पीए संगमा की अध्यक्षता में हर दल और समूह की सहमति से निर्णय किया गया था कि प्रश्नकाल में व्यवधान पैदा नहीं किया जाएगा...आजादी के 68 साल पूरे होने पर कम से कम यही एक संकल्प सांसद करें तो संसदीय लोकतंत्र में सुधार की शुरुआत हो सकती है... लेकिन क्या हमारे आजकल के सांसद यह संकल्प लेने की स्थिति में हैं? यह खतरा सिर्फ सांसदों के संकल्प करने से नहीं हटेगा क्योंकि आजकल के सांसद यह संकल्प लेने में समर्थ ही नहीं हैं।

इस खतरे से निपटने के लिए कुछ अन्य सुधारों की जरूरत है। इसके लिए किसी भी सांसद की वास्तविकता के बारे में सही जानकारी होना जरूरी है। सबसे पहली बात है कि अगर कोई भी व्यक्ति सांसद बनना चाहे तो उसे क्या-क्या करना पड़ता है। यह तो सब जानते हैं कि सांसद बनने के लिए चुनाव में उम्मीदवार बनना पड़ता है। कम से कम कानूनी तौर पर तो यह भी सही है कि एक साधारण नागरिक भी निर्दलीय चुनाव लड़ सकता है और जीत कर सांसद बन सकता है। पर आंकड़ों से यह भी पता चलता है कि निर्दलीय उम्मीदवारों के चुनाव लडऩे की और चुने जाने की संख्या में निरंतर कमी हो रही है। इसका सीधा-सीधा मतलब यह है कि चुनाव में चुने जाने लायक उम्मीदवार बनने के लिए किसी अच्छे राजनीतिक दल का टिकट लेना बहुत जरूरी है।

राजनीतिक दल चुनाव में उम्मीदवार बनाने के लिए टिकट देने का फैसला कैसे करते हैं, यह एक रहस्य है जिसका शायद किसी को भी पूरी तरह पता नहीं है। लेकिन इतना तो सभी जानते हैं कि ऐसे फैसले राजनीतिक दलों के उच्चतम नेतृत्व द्वारा ही किए जाते हैं। यही एक मूल कारण है कि जो लोग चुन कर सांसद बनते हैं, उनकी सबसे ज्यादा कृतज्ञता पार्टी के नेतृत्व की ओर होती है क्योंकि अगर उनको टिकट नहीं मिलता तो उनके चुनावी उम्मीदवार बनने का और चुनाव जीतने का सवाल ही नहीं पैदा नहीं होता। यह एक कारण है कि हमारे चुने हुए प्रतिनिधि अपने क्षेत्र के मतदाताओं से भी ज्यादा अपने नेताओं के हितों की रक्षा करते हैं।

यह तो हुआ एक व्यवहारिक कारण, परंतु एक कारण संवैधानिक भी है और वह है हमारे संविधान के दल-बदल विरोधी प्रावधान। ये प्रावधान संविधान की दसवीं अनुसूची में दिए हुए हैं। इसके मुताबिक अगर कोई सांसद अपनी पार्टी के व्हिप के खिलाफ संसद में वोट देता है, तो उसकी संसद की सदस्यता रद की जा सकती है। यह सबसे बड़ी वजह है कि सांसद अपनी पार्टी के नेतृत्व की मर्जी के खिलाफ कुछ भी नहीं कर सकते, चाहे व्हिप हो या न हो। अब सवाल उठता है कि राजनीतिक दलों के नेतागण एकदूसरे के इतने खिलाफ क्यों हैं कि वे देश के हित को अपने और पार्टी के हितों से ऊपर रख कर एकदूसरे से बात तक नहीं कर सकते। इसका कारण थोड़ा सा पेचीदा है। कारण यह है कि पार्टियों के नेताओं की अपनी पार्टी के सदस्यों या पार्टी के चुनावी उम्मीदवारों की तरफ कोई भी जवाबदेही न तो है और न वे कोई जवाबदेही समझते हैं। इसका कारण यह है कि पार्टियों के नेताओं को नेता बनाने में पार्टी के सदस्यों और कार्यकर्ताओं का बिल्कुल भी हाथ या योगदान नहीं होता।

इससे सवाल पैदा होता है कि लोग पार्टियों के नेता कैसे बनते हैं? है तो यह भी एक रहस्य, लेकिन दो तरीके तो पता हैं। एक है कि कुछ लोग अपनी व्यक्तिगत लोकप्रियता या कुछ और शक्तियों के आधार पर अपनी निजी पार्टी बना लेते हैं जिसमें स्वाभाविक है कि सिर्फ उनकी अपनी मर्जी ही चलती है। राजनीतिक दलों के नेता बनने का दूसरा तरीका है वंशानुक्रम, जिसमें एक पार्टी का नेता अपनी विरासत अपने बेटे, बेटी, पत्नी, दामाद, पुत्रवधू या किसी और नजदीकी को सौंप देता है या बेटा, बेटी, पत्नी, दामाद, पुत्रवधू या कोई और नजदीकी नेतृत्व को ले लेते हैं। जाहिर है कि नेतृत्व ग्रहण करने के तरीके तो और भी बहुत हैं और होंगे, जिनका हम साधारण नागरिकों को पता नहीं है और न ही चलेगा, लेकिन यह तय है कि इनमें कोई भी तरीका लोकतांत्रिक नहीं है। यह सबसे बड़ी वजह है कि संसद की भिड़ंत को रोकना बहुत मुश्किल है।

संक्षेप में कहना हो तो कहा जाएगा कि संसद की भिडं़त तभी रुकेगी जब राजनीतिक दल अंदरूनी तौर पर लोकतांत्रिक होंगे। इसका मतलब है कि राजनीतिक दलों के नेता अपनी मर्जी से या किन्हीं दो-चार या आठ-दस प्रभावशाली लोगों की मर्जी से पार्टी के नेता नहीं बन सकेंगे, बल्कि खुले रूप से नेता के चुनाव में जीत कर नेता बनेंगे। नेताओं के चुनावों का 'खुले रूप से होना बहुत ही जरूरी है ताकि देखने वालों को साफ-साफ दिखे कि वाकई में चुनाव हुआ है। जब भी एक विधानसभा में किसी भी पार्टी को बहुमत मिलता है, वहां के विधायक अपने नेता को खुले रूप से नहीं चुनते, बल्कि पार्टी के मुख्यालय से दो पर्यवेक्षक जाते हैं और कहा जाता है कि ये दोनों विधायकों की राय लेकर नेता का नाम घोषित करेंगे। जबकि होता यह है कि ये पर्यवेक्षक पार्टी हाई कमान के दिए हुए नाम की घोषणा करते हैं। यह खुले रूप से हुआ चुनाव नहीं है।

अगर पार्टियों में आतंरिक लोकतंत्र हो तो पार्टी के चुनावी उम्मीदवारों को भी पार्टी के सदस्यों द्वारा चुना जाना चाहिए। जब पार्टी के साधारण सदस्यों का पार्टी के चुनावी उम्मीदवारों को मनोनीत करने में या चुनने में हाथ होगा, तभी चुने हुए सांसद अपने मतदाताओं के और देश के हित में काम करेंगे न केवल अपनी पार्टी के नेता के हित में। तभी संसद देश के हित में काम करेगी और संसद में भिड़ंत नहीं होगी।

[लेखक जगदीप एस. छोकर, वरिष्ठ स्तंभकार हैं]