सुनहरे भविष्य की आस
साल 2014 में देश राजनीतिक क्षेत्र में क्या उम्मीदें रखे, इसे जानने और समझने के लिए हमें 2013 की ओर देखना पड़ेगा। 2013 ने जो सबसे बड़ी उम्मीद पैदा की वह यह थी कि देश में नैतिकता पूर्ण राजनीति का आरंभ होगा। 2014 की सबसे बड़ी उम्मीद है कि यह आशा पूरी होगी। इसके पूरे होने के अच्छे भले लक्षण भी हैं। यद्यपि अभी शुरुआत ही है, फिर भी
साल 2014 में देश राजनीतिक क्षेत्र में क्या उम्मीदें रखे, इसे जानने और समझने के लिए हमें 2013 की ओर देखना पड़ेगा। 2013 ने जो सबसे बड़ी उम्मीद पैदा की वह यह थी कि देश में नैतिकता पूर्ण राजनीति का आरंभ होगा। 2014 की सबसे बड़ी उम्मीद है कि यह आशा पूरी होगी। इसके पूरे होने के अच्छे भले लक्षण भी हैं। यद्यपि अभी शुरुआत ही है, फिर भी लगता है कि दिसंबर, 2013 में दिल्ली में हुए चुनाव का प्रभाव 2014 के लोकसभा चुनाव तक तो अवश्य रहेगा। पारंपरिक राजनीतिक दल इस मामले में क्या रुख अपनाते हैं, यह तो समय ही बताएगा, पर उनसे आशा तो है कि वह एक सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाएंगे। उसी में उनकी तथा देश की भलाई होगी।
नैतिकता पूर्ण राजनीति तो शायद अंतिम मंजिल है पर उसके रास्ते में कई पड़ाव भी हैं। वे हैं राजनीतिक और चुनावी सुधार। इन सुधारों में से कई का शुभारंभ 2013 में हो चुका है लेकिन उनका पूर्ण क्रियान्वयन 2014 में ही हो पाएगा। इनमें सबसे महत्वपूर्ण है राजनीतिक दलों का सूचना के अधिकार के दायरे में आना। इस बारे में केंद्रीय सूचना आयोग ने अपना निर्णय तीन जून, 2013 को दे दिया था। जब उसने छह राष्ट्रीय राजनीतिक दलों को सूचना अधिकार अधिनियम के अंतर्गत सार्वजनिक संस्था घोषित किया था। इन छह दलों ने अभी तक इस निर्णय को स्वीकार नहीं किया है। यद्यपि किसी को इस निर्णय पर आपत्ति हो तो हाईकोर्ट में अपील करना उसका कानूनी समाधान है, परंतु छह में से किसी राजनीतिक दल ने ऐसा नहीं किया। इसके बजाय सूचना अधिकार अधिनियम को संशोधित करने का प्रस्ताव संसद में प्रस्तुत किया गया। संसद ने प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया लिहाजा इसे संसद की एक स्थायी समिति के पास भेजना पड़ा। इस समिति ने संसद को अपनी रिपोर्ट 17 दिसंबर को दी जिसमें सूचना अधिकार अधिनियम में संशोधन करने के प्रस्ताव को मंजूर करने की सिफारिश की गई है। संशोधन यह होगा कि सूचना अधिकार अधिनियम में एक अनुच्छेद जोड़ा जाएगा कि कोई भी राजनीतिक दल कभी भी इस अधिनियम के दायरे में नहीं आएगा। सामाजिक संगठन और कार्यकर्ता इस संशोधन का विरोध कर रहे हैं। उम्मीद है कि 2014 में यह संशोधन नकारा जाएगा।
दूसरी उम्मीद नोटा को लेकर है। जिसके अंतर्गत किसी भी वोटर को यह अधिकार होगा कि वह कह सके कि मैं किसी भी प्रत्याशी को वोट नहीं देना चाहता और यह वोट गिने जाएंगे। सुप्रीम कोर्ट के फैसले और चुनाव आयोग के निर्देशों के अंतर्गत नोटा के वोट गिने तो जाएंगे पर चुनाव परिणामों पर उनका कोई प्रभाव नहीं होगा। यह बिल्कुल पर्याप्त नहीं है। अभी हाल ही में हुए पांच राच्यों के चुनावों में नोटा के वोटों की हिस्सेदारी 10 प्रतिशत तक रही। खासतौर से छत्तीसगढ़ के कुछ चुनाव क्षेत्रों में। काफी चुनाव क्षेत्र ऐसे थे जिनमें जीत-हार के वोटों का अंतर नोटा के वोटों से कम था। इससे नोटा के वोटों की महत्ता का पता चलता है।
2014 में यह उम्मीद है कि नोटा की महत्ता को ठीक से पहचाना और माना जाएगा और चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट दोनों इस बात को स्वीकार करेंगे कि किसी को भी नोटा से अधिक वोट न मिलने की सूरत में किसी भी प्रत्याशी को विजयी न घोषित किया जाए। उस क्षेत्र में नया चुनाव हो जिसमें पहले वाले प्रत्याशियों को चुनाव में भाग लेने की अनुमति न हो। यह करके ही लोकतंत्र को नोटा का पूरा लाभ दिया जा सकता है। और लोकतंत्र की सच्ची अवधारणा को लागू किया जा सकता है।
सबसे बड़ी उम्मीद है कि राजनीतिक दलों और राजनेताओं का मानसिक दृष्टिकोण बदलेगा और वह यह समझने लगेंगे कि उनका कर्तव्य जनता पर राज करना नहीं है बल्कि जनता के साथ मिलकर और जनता को साथ लेकर देश को चलाना व उसे उन्नति के पथ पर अग्रसर करना है।
-जगदीप एस छोकर [आइआइएम, अहमदाबाद के पूर्व प्रोफेसर, डीन और डायरेक्टर इंचार्ज रहे हैं।]
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