गरीबी पर आंकड़ों का खेल
गरीबी के संदर्भ में विश्व बैंक के ताजा आकलन को सिर्फ और सिर्फ आंकड़ों की बाजीगरी मान रहे हैं देविंदर शर्मा देश में फिलहाल कोई भी खुश नहीं है। न तो कांग्रेस पार्टी और न ही सत्ताधारी भाजपा गरीबी को लेकर विश्व बैंक के आकलन को औपचारिक तौर पर स्वीकार करने के लिए तैय्
गरीबी के संदर्भ में विश्व बैंक के ताजा आकलन को सिर्फ और सिर्फ आंकड़ों की बाजीगरी मान रहे हैं देविंदर शर्मा
देश में फिलहाल कोई भी खुश नहीं है। न तो कांग्रेस पार्टी और न ही सत्ताधारी भाजपा गरीबी को लेकर विश्व बैंक के आकलन को औपचारिक तौर पर स्वीकार करने के लिए तैयार है। पीपीपी यानी क्रय शक्ति क्षमता सूचकांक में संशोधन करते हुए विश्व बैंक ने बताया है कि जहां 2005 में भारत में गरीबों की संख्या 40 करोड़ थी वहीं 2010 में इसमें प्रभावशाली गिरावट दर्ज की गई और यह घटकर 9.8 करोड़ पहुंच गई। आंकड़ों की बाजीगरी तब सामने आई जब प्रधानमंत्री के पूर्व आर्थिक सलाहकार प्रोफेसर सी. रंगराजन ने इस वर्ष जुलाई माह में योजना आयोग को अपनी रिपोर्ट सौंपी। इसमें गरीबी रेखा में सुधार करते हुए ग्रामीण इलाकों के लिए 32 रुपये और शहरी इलाकों के लिए 47 रुपये की कमाई करने वालों को इस दायरे में रखा गया है। इस तरह रंगराजन समिति ने वास्तव में गरीबों की संख्या में 9.37 करोड़ और लोगों को शामिल कर लिया। इससे गरीबों की कुल संख्या बढ़कर 36.3 करोड़ हो गई, जो हमारी कुल आबादी का 29.5 फीसद है। क्या यह चौंकाने वाला आंकड़ा नहीं है? हालांकि तमाम भारतीयों को इस पर मुश्किल से ही विश्वास होगा कि रंगराजन समिति का आकलन सच्चाई के थोड़ा बहुत भी करीब है।
विश्व बैंक का हालिया आकलन यही दर्शाता है कि गरीबी की बुराई को दूर करने के लिए सहस्नाब्दि विकास लक्ष्य अथवा दूसरे अन्य कार्यक्रमों की शायद ही आवश्यकता है। इस सबके लिए महज कुछ अर्थशास्त्रियों की आवश्यकता है, जो आंकड़ों से खेल सकते हों। यह अर्थशास्त्री वास्तविक आंकड़ों को कहीं अधिक कुशलता से छिपाने में माहिर होते हैं। विश्व बैंक के हालिया आकलनों के मुताबिक वैश्विक गरीबी में गिरावट आई है, जो 1.2 अरब से घटकर अब 57.1 करोड़ रह गई है। पूर्व में भारत में गरीबी रेखा का आंकड़ा ग्रामीण इलाकों के लिए 27 रुपये और शहरी इलाकों के लिए 33 रुपये तय किया गया था, जिसे तकरीबन एक वर्ष पूर्व तेंदुलकर समिति ने सुझाया था। इन दोषपूर्ण और अव्यावहारिक आंकड़ों को लेकर विवाद खड़ा हुआ और रंगराजन के नेतृत्व में एक अन्य समिति के गठन की आवश्यकता महसूस की गई। रंगराजन समिति की सिफारिशें यही बताती हैं कि यहां कुछ चीजें संदिग्ध रूप से गलत हैं और भारत में गरीबी को कम दिखाने का प्रयास किया जा रहा है। यदि निष्पक्ष तौर पर कहा जाए तो नई गरीबी रेखा और कुछ नहीं, बल्कि भुखमरी की रेखा है। यह सिर्फ यही बताती है कि कितने लोगों को तात्कालिक तौर पर खाद्यान्न मदद की आवश्यकता है। विश्व बैंक द्वारा व्यक्त किया गया अनुमान अथवा चित्रण भी सही नहीं है। आर्थिक उदारीकरण और बाजारवादी व्यवस्था को न्यायोचित ठहराने के क्रम में सामाजिक संकेतकों जिनमें गरीबी रेखा भी शामिल है, में घालमेल करने का प्रयास किया जा रहा है। विश्व बैंक के प्रमुख अर्थशास्त्री कौशिक बसु इन बातों का बचाव करते हुए उदाहरण देते हैं कि घाना जैसे देश में एक डॉलर से आप अमेरिकी की तुलना में तीन गुना अधिक चीजें खरीद सकते हैं। इस तरह एक व्यक्ति जो घाना में प्रति माह 1000 डॉलर कमाता है वह क्रय शक्ति क्षमता के आधार पर वास्तव में 3000 डॉलर कमाता है। हालांकि वास्तविकता यही है कि अमेरिका में भी अर्थव्यवस्था के निजीकरण के बाद भूख से ग्रस्त अथवा गरीब लोगों की संख्या पिछले 25 वर्षो में सबसे उच्च स्तर पर है। यहां तकरीबन 4.9 करोड़ लोग यानी प्रति सात व्यक्तियों में से एक अपनी दैनिक खाद्यान्न आवश्यकताओं के लिए फूड कूपन पर निर्भर हैं।
भारत के मामले में विश्व बैंक की नई क्रय शक्ति क्षमता सूचकांक के साथ अथवा उसके बिना मैं समझ सकता हूं कि भारत के शहरी इलाके में रहने वाला एक व्यक्ति अपनी दैनिक 47 रुपये की आय से अमेरिका में इतनी ही राशि की तुलना में तीन गुना अधिक चीजें खरीद सकता है। इससे पता चलता है कि अर्थशास्त्री भी प्रसिद्ध भारतीय जादूगरों से कोई अलग नहीं हैं। अनुभवजन्य वैश्विक साक्ष्य विश्व बैंक की गरीबी की व्याख्या को चुनौती पेश कर रहे हैं। ईसीएलएसी के 2002 और 2011 के अध्ययन यही बताते हैं कि लैटिन अमेरिका में वास्तविक गरीबी की दर विश्व बैंक द्वारा दर्शाए गए आंकड़ों की तुलना में तकरीबन दोगुनी है। ब्रिस्टल विश्वविद्यालय द्वारा 11 अप्रैल, 2014 को जर्नल ऑफ सोशियोलॉजी में प्रकाशित कराए गए एक अध्ययन के मुताबिक विश्व बैंक अपनी संकीर्ण परिभाषा के कारण गरीबी को अत्यधिक कम बताकर इसकी गुलाबी तस्वीर पेश करता है। ब्रिस्टल विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ ज्योग्राफिकल साइंस के डॉ. क्रिस्टोफर के मुताबिक नतीजे यही बताते हैं कि गरीबी निर्धारण के लिए एक डॉलर प्रतिदिन की वर्तमान अंतरराष्ट्रीय परिभाषा वैश्विक गरीबी की सही तस्वीर पेश करने की दृष्टि से अत्यधिक त्रुटिपूर्ण है।
रंगराजन समिति ने गरीबी की नई रेखा का निर्धारण किया है, लेकिन 2007 में अर्जुन सेनगुप्ता समिति ने अपनी रिपोर्ट में अनुमान जताया था कि तकरीबन 77 फीसद आबादी अथवा 83.4 करोड़ लोग प्रतिदिन 20 रुपये से अधिक खर्च करने की स्थिति में नहीं थे। हाल में ही एनएसएसओ ने अपने 2011-12 के उपभोक्ता खर्च आंकड़े खराब तस्वीर पेश करते हैं। अन्य आकलन भी बढ़ती असमानता का खुलासा करते हैं। 56 लोगों के पास मौजूद कुल संपदा देश के 60 करोड़ लोगों के बराबर है। कोई आश्चर्य नहीं कि जब हम बढ़ती आय वालों के औसत को देखते हैं तो यह तेजी से बढ़ रही असमानता को छिपाता है। अब काले जादू की मदद से वास्तविक गरीबों की संख्या को घटाया जा रहा है और विश्व बैंक गुलाबी तस्वीर पेश करने में लगा हुआ है। समय के साथ ही चुनौती से परे इन आंकड़ों को बार-बार इस्तेमाल किया जाएगा और यही स्वीकृत हो जाएंगे। विश्व बैंक द्वारा तत्काल सुधार किए बगैर 2030 तक परम गरीबी को दूर करने का लक्ष्य नई गरीबी रेखा की तरह ही हास्यास्पद होगा। मुझे संदेह है कि ऐसा कुछ होगा। इस दर पर पांच वर्ष बाद जब विश्व बैंक क्रय शक्ति क्षमता सूचकांक में सुधार करेगा तो भारत में कागजों पर गरीबी गायब हो चुकी होगी। यही आंकड़ों की जादूगरी है।
(लेखक खाद्य एवं कृषि नीतियों के विश्लेषक हैं)
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