जाना पहचाना संकट
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किसानों के लिए एक बड़े राहत पैकेज की घोषणा की है। इसके साथ ही उन्होंने बैंकों को निर्देश दिया है कि वे कृषि ऋणों को पुनर्गठित करें। उन्होंने बीमा कंपनियों को भी दावों को निपटाने में तत्परता से काम करने की नसीहत दी है। प्रधानमंत्री ने
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किसानों के लिए एक बड़े राहत पैकेज की घोषणा की है। इसके साथ ही उन्होंने बैंकों को निर्देश दिया है कि वे कृषि ऋणों को पुनर्गठित करें। उन्होंने बीमा कंपनियों को भी दावों को निपटाने में तत्परता से काम करने की नसीहत दी है। प्रधानमंत्री ने देश को आश्वस्त किया कि संकट के समय किसानों की मदद करना सरकार की जिम्मेदारी है। उन्होंने यह भी बताया कि जिन इलाकों में फसलों को बहुत नुकसान हुआ है वहां का जायजा लेने के लिए केंद्रीय मंत्रियों की एक टीम भेजी गई है।
यह नि:संदेह एक स्वागत योग्य कदम है। लेकिन एक बार जब बेमौसम बारिश का संकट खत्म हो जाएगा, राहत बंट जाएगी और देश का ध्यान इससे हट जाएगा कि फसलों को कितना नुकसान हुआ और इसका खाद्य महंगाई पर क्या असर पड़ेगा तो किसानों को एक बार फिर भुला दिया जाएगा। यही खेती-किसानी के लिए हाल के वर्षों में सबसे बड़ी त्रासदी रही है। दरअसल यही मुख्य कारण है जिसके चलते कृषि की बदहाली दूर होने का नाम नहीं ले रही है। किसानों की जानबूझकर अनदेखी की जाती है।
पिछले बीस वर्षों में तीन लाख के करीब किसानों ने अपनी जान दी है। इसका मतलब है कि हर घंटे दो किसान आत्महत्या कर लेते हैं। मैं नहीं जानता हूं कि अभी यह संख्या और कितनी बढ़नी चाहिए जिसके बाद देश जागेगा और उनकी परेशानियों की सुधि लेगा। स्पष्ट रूप से कहें तो बेमौसम बारिश ने किसानों को जिस तरह आत्महत्या करने के लिए मजबूर कर दिया है वह बस इस सच्चाई की बानगी है कि कृषि अर्थव्यवस्था कितनी नाजुक है। मौसम में थोड़ा-बहुत हेरफेर यानी बेमौसम बारिश, तेज हवाएं, सूखे जैसी स्थितियां भी किसानों के लिए संकट को इस हद तक बढ़ा देती हैं कि वे उनका सामना नहीं कर पाते।
पिछले एक माह में जिन किसानों ने अपनी जान गंवाई है उनमें से कई की मौत हृदयगति रुकने से हुई। यानी वे अपनी खड़ी फसल की बर्बादी के दुख को सहन नहीं कर सके। मतलब यह है कि किसानों की आजीविका सुरक्षा एक कच्चे धागे की तरह है जो एक हल्के झटके से भी टूट सकती है। कृषि अर्थव्यवस्था कितनी नाजुक है, इसकी चर्चा अक्सर की जाती है, लेकिन इसे समझा बहुत कम जाता है। अक्सर यह मान लिया जाता है कि संकट के समय ठीक-ठाक राहत पैकेज पर्याप्त होता है। कोई भी यह नहीं महसूस करता है कि इस प्रकार का हर संकट किसानों की आर्थिक ताकत को तीन साल पीछे पहुंचा देता है।
इसे और अधिक साफ तरह से समझने के लिए मैंने कृषि लागत और मूल्य आयोग यानी सीएसीपी की हाल की खरीफ और रबी की फसलों पर आधारित रिपोर्ट को पढ़ा। सीएसीपी के दस्तावेजों का बारीकी से अध्ययन करने पर यह अपने आप स्पष्ट हो जाता है कि किसान क्यों आत्महत्या करने के लिए विवश हैं। जब तक सरकार किसानों को निश्चित मासिक आमदनी प्रदान करने के लिए जी-जान से प्रयास नहीं करती तब तक मुझे कोई उम्मीद नहीं है कि किसानों की डूबती अर्थव्यवस्था उबर सकेगी। आइए देखते हैं कि कुछ प्रमुख फसलों की पैदावार के संदर्भ में लागत और लाभ की स्थिति क्या है।
सीएसीपी सरकार का अपना संगठन है, जो किसानों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य का आधार तय करता है। लिहाजा उसकी गणनाएं दूसरे अध्ययनों और सर्वे से कहीं अधिक सटीक होती हैं। अपनी हाल की रिपोर्ट में सीएसीपी ने 2010-11 और 2012-13 की अवधि में औसत लागत और लाभ की गणना की है। अब अपनी सांसें रोकिए। पूरे देश के स्तर पर गेहूं की फसल में नेट रिटर्न यानी कुल लाभ 14260 रुपये प्रति हेक्टेयर है। तिलहन के लिए यह 14960 रुपये और चने के लिए 7479 रुपये प्रति हेक्टेयर।
चूंकि किसानों की आत्महत्या की ज्यादातर घटनाएं उत्तर प्रदेश से आती हैं इसलिए मैंने इस क्षेत्र में किसानों द्वारा अपनाए जाने वाले गेहूं-धान फसल के पैटर्न पर आधारित लागत और लाभ का अध्ययन किया। गेहूं के लिए एक किसान द्वारा अर्जित किया जाने वाला औसत लाभ या आमदनी 10758 रुपये प्रति हेक्टेयर है। चूंकि गेहूं छह माह की फसल है इसलिए इसकी फसल करने वाले एक किसान की औसत आमदनी 1793 रुपये प्रति हेक्टेयर बैठती है। गेहूं की फसल से इतने कम लाभ के बाद उत्तर प्रदेश के किसी किसान के लिए आत्महत्या का मार्ग चुनने की पूरी आशंका होती है।
आइए अब उसकी वार्षिक आमदनी देखते हैं। अगर वह धान की फसल भी लगा रहा है तो नेट रिटर्न हद से हद 4311 रुपये हो जाता है। अगर दोनों आमदनी यानी गेहूं और धान से होने वाली आय जोड़ दी जाएं तो यह राशि 15669 रुपये हो जाती है यानी 1306 रुपये प्रति माह। अब आप कहेंगे कि पंजाब में औसत राष्ट्रीय औसत से कहीं ज्यादा होगा। सीएसीपी ने गेहूं के लिए पंजाब में नेट रिटर्न 18701 रुपये प्रति हेक्टेयर निकाला है। बिहार में किसान की औसतन आय 9986 रुपये है यानी पंजाब के किसान को मिलने वाली राशि से लगभग आधी। खरीफ की फसलों की बात करें तो सीएसीपी के अनुमान 2009-2010 से 2011-12 के बीच हैं।
देश में धान के लिए कुल आमदनी बमुश्किल साढ़े चार हजार रुपये प्रति हेक्टेयर है। एक अन्य प्रमुख फसल कपास के लिए नेट रिटर्न 15689 रुपये प्रति हेक्टेयर है। अगर राज्यवार लागत को देखें तो पंजाब में धान की फसल 17651 रुपये प्रति हेक्टेयर का लाभ देती है। हरियाणा में यह 17960 रुपये है और आंध्र प्रदेश में 6483 रुपये। बिहार और असम में धान के किसानों को नकारात्मक रिटर्न मिलता है। इसका मतलब है कि उन्हें कुल मिलाकर नुकसान होता है। असम में नुकसान 3361 रुपये प्रति हेक्टेयर है और बिहार में 266 रुपये। पंजाब और हरियाणा के किसान आम तौर पर धान के साथ गेहूं की पैदावार करते हैं। इन दो फसलों के संयुक्त लाभ को देखें। गेहूं पंजाब के किसानों को 18701 रुपये प्रति हेक्टेयर का लाभ देता है।
इसे अगर धान से होने वाले लाभ से जोड़ा जाए तो राशि आती है एक वर्ष में 36352 रुपये प्रति हेक्टेयर। इसका मतलब है कि पंजाब में एक कृषक परिवार के लिए मासिक आमदनी हुई 3029 रुपये। हां, आपने सही पढ़ा 3029 रुपये। अगर यह पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश का औसत है, जिसे देश का खाद्य कटोरा कहा जाता है तो मैं सोच सकता हूं कि देश के दूसरे हिस्सों में किसानों की क्या हालत होगी? किसान इसीलिए आत्महत्या कर रहे हैं और यही कारण है कि उनकी बहुत बड़ी संख्या खेती-किसानी को छोड़ना चाहती है।
सबसे बड़ी जरूरत राष्ट्रीय कृषक आय आयोग बनाने की है, जिसका काम अपनी फसल की उत्पादकता पर निर्भर किसानों को मासिक पैकेज सुनिश्चित करना होना चाहिए। अगर एक चपरासी को कम से कम पंद्रह हजार रुपये महीने की तनख्वाह मिल सकती है और उत्तर प्रदेश में एक सफाई कर्मचारी को 18500 हर महीने मिलते हैं तो अन्नदाता की एक निश्चित मासिक आमदनी क्यों नहीं होनी चाहिए? मध्यम वर्ग के लिए खाद्य पदार्थों की कीमतों को नीचे रखने की जिम्मेदारी केवल किसान ही क्यों उठाएं?
देविंदर शर्मा
(लेखक कृषि नीतियों के विश्लेषक हैं)












-1760967473947.webp)

कमेंट्स
सभी कमेंट्स (0)
बातचीत में शामिल हों
कृपया धैर्य रखें।