प्रबुद्ध वर्ग के लोगों को अवसाद में घिरकर जीवन समाप्त करते देखना इन दिनों बहुत साधारण बात हो चुकी है। व्यक्तिगत कारण हों या ऑफिस से ज्यादा अपेक्षाएं पाल लेना, ऐसी घटनाओं का केंद्र-बिंदु यही होता है कि हम वास्तविकता की अनदेखी कर देते हैं। एक कंपनी के सीईओ की बड़ी अपेक्षा थी कि उनका बेटा फाइनेंस की पढ़ाई करके उनका बिजनेस संभाले। आशा के विपरीत बेटे ने स्पोट्र्स को अपना कॅरियर बना लिया और पिता इसी निर्णय के सदमे से घोर अवसाद में चले गए। निराशा या क्रोध हमें तभी घेरते हैं, जब दूसरे व्यक्ति से तथाकथित अपेक्षित उत्तर नहीं मिल पाता। दूसरे को उसके मूल स्वभाव में स्वीकार कर पाना बहुत कठिन होता है, इसलिए स्थिति विकट हो जाती है। सच पूछा जाए तो हमारी खुशियां अपेक्षाओं की मोहताज हैं। बेटे का आशा अनुरूप रिजल्ट आया तो खुशियां दूनी, अन्यथा नहीं। समयानुकूल प्रमोशन मिला तो खुश नहीं तो उदासी ही उदासी। असली और आंतरिक ख़ुशी का अहसास करना हो तो अपनी अपेक्षाओं को नियंत्रण में रखना सीखना होगा। तभी अपनी असफलताओं से दुख नहीं, बल्कि सीख मिलेगी। वास्तव में हम अपना आकलन कर अपने को सीमाओं में बांध लेते हैं, पर दूसरों से हम हद से ज्यादा उम्मीद रखने लगते हैं। हालांकि दूसरा पहलू यह भी है कि उम्मीदें हमें कर्मपथ पर अग्रसर करती हैं।

अपेक्षाएं मनोबल बढ़ाती हैं। विद्यार्थी अपने माता-पिता की आकांक्षाओं के अनुरूप ढलने में ऊर्जा के साथ-साथ प्रसन्नता का अनुभव करते हैं। कर्मचारी अपने मालिक की आकांक्षाओं के अनुरूप ढलकर देश की प्रगति में सहायक होते हैं। बस, इन अपेक्षाओं की पूर्ति के लिए बहुत ज्यादा दबाव नहीं बनाना चाहिए। अपेक्षा किसी की योग्यता के विपरीत भी नहीं बनानी चाहिए। इसलिए जिससे उम्मीदें रखते हैं उसकी योग्यता और कार्यक्षमता की पहचान कर लेनी चाहिए। किसी दूसरे के लिए लक्ष्य निर्धारित करना भी अनुचित है। किसी से सहयोग की आशा करना या अपनी उम्मीद के अनुसार दूसरों को ढालने से अच्छा है कि खुद को ही समर्थ बना लें। एक निश्चित लक्ष्य को धारण करते हुए अपेक्षाओं पर नियंत्रण रखकर संघर्षों का सहजता से सामना करें, उससे मिली सफलता या असफलता कभी विचलित नहीं करेगी।

[कविता विकास]