दो फरवरी को महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून यानी मनरेगा के दस वर्ष पूरे हो गए। यह कानून नागरिक संगठनों के साथ लंबी मंत्रणा के बाद बना था और अपने आकार-प्रकार तथा प्रभाव के मामले में बेजोड़ था। इसका स्वरूप भी अन्य सामाजिक योजनाओं से अलग बनाया गया। इस कानून की पूरी रूपरेखा मांग आधारित थी। मनरेगा ने वाम दलों को आकर्षित किया, दक्षिणपंथियों को उकसाया और केंद्र को विकास के विमर्श का हिस्सा बनाए रखा। अब जब मनरेगा को लागू हुए एक दशक पूरा हो गया है तो इस अवसर पर तीन महत्वपूर्ण सवालों के जवाब तलाशे जाने चाहिए। पहला, क्या मनरेगा ने अपनी भूमिका निभाई? दूसरा, आज मनरेगा के साथ कैसा व्यवहार हो रहा है? और तीसरा, क्या हमें अभी भी इस कानून की जरूरत है?

हम मनरेगा के प्रदर्शन का दो तरीके से मूल्यांकन कर सकते हैं। पहला, क्या इसने दिहाड़ी रोजगार के जरिए ग्रामीण परिवारों की आजीविका सुरक्षा को बढ़ाया। अथवा क्या इस कानून ने ग्रामीण सशक्तीकरण के एक साधन के रूप में अपनी भूमिका अदा की? यह योजना हर साल कुल ग्रामीण परिवारों में से एक चौथाई परिवारों को 40-45 दिनों तक रोजगार उपलब्ध कराती है। यह रोजगार थोड़े बहुत कृषि कार्य जैसे गैर मनरेगा कामों के अतिरिक्त है। इससे साबित होता है कि ग्रामीण आय को बढ़ाने में इस कानून की बड़ी भूमिका है। दूसरी तरफ मनरेगा और ग्रामीण सशक्तीकरण पर लोगों का मत बंटा हुआ है। दरअसल इसकी वजह अलग-अलग राज्यों में इसके क्रियान्वयन में अंतर होना है। इसके बावजूद इस कानून की सफलता को नकार नहीं सकते। उदाहरण के लिए मनरेगा की सबसे बड़ी उपलब्धि ग्रामीण मजदूरी में बढ़ोतरी रही है। मनरेगा के धुर विरोधी भी मानेंगे कि यह योजना घर के पांच किलोमीटर के अंदर समान मजदूरी दर पर काम उपलब्ध कराती है। ऐसे में इसने महिलाओं को काम का महत्वपूर्ण अवसर उपलब्ध कराया है और लैंगिक समानता को बढ़ावा दिया है। इसमें महिलाओं की भागीदारी करीब 50 प्रतिशत तक बरकरार रही है। मनरेगा के अभाव में ये महिलाएं या तो बेरोजगार रहतीं या फिर अद्र्धबेरोजगार रहतीं। आंकड़ों से स्पष्ट है कि मनरेगा ने पलायन पर भी रोक लगाई है। मनरेगा ने ग्रामीण परिदृश्य को बदला है और भूमि विकास, पानी के परंपरागत स्नोतों तथा सिंचाई के साधनों में सुधार के साथ जल संरक्षण के कामों के जरिए इसने प्राकृतिक संसाधनों को नया रूप दिया है। इसने गरीबी को भी कम किया है। हाल ही में एक सर्वे में बताया गया कि मनरेगा ने आदिवासियों में गरीबी 28 फीसद और दलितों में 38 फीसद कमी लाने में सफलता पाई है। इसके अलावा मनरेगा के जरिये संस्थागत परिवर्तन भी आया है। साल 2008 और 2014 के बीच में बिना किसी तामझाम के दस करोड़ बैंक और पोस्ट ऑफिस खाते खोले गए और कुल मजदूरी के अस्सी फीसद हिस्से का इसके जरिये भुगतान किया गया। यह सही मायने में वित्तीय समावेशन था, क्योंकि इससे भ्रष्टाचार और रिसाव में कमी सुनिश्चित हुई।

आज मनरेगा किस हालत में है? इसे विफलताओं के स्मारक के रूप में परिभाषित करने के बाद इस सवाल का जवाब पूरी तरह साफ हो जात है। न्यूनतम मजदूरी में वृद्धि और साथ ही बजट को कृत्रिम रूप से सीमित करने के साथ इस योजना की मांग में गिरावट देखी जा रही है। रोजगार के कुल श्रम दिवसों की संख्या वित्तवर्ष 2013-14 में 220 करोड़ की तुलना में वित्तवर्ष 2014-15 में घटकर 166 करोड़ हो गई। इसके साथ ही इस साल मजदूरी भुगतान में 40 फीसद की देरी हुई है। कुल मिलाकर बीते दो वर्षों में मनरेगा को लेकर सरकार का रवैया ढुलमुल रहा है। 2014-15 में योजना के मजदूरी और सामग्री अनुपात को 60=40 से 51=49 करने का प्रयास किया गया। योजना के श्रम आधारित स्वरूप में बदलाव करने का विचार इस कानून के मुख्य उद्देश्य को प्रभावित करेगा। हालांकि सरकार ने इस सुझाव से पैर खींच लिए, लेकिन धन का आवंटन अप्रत्याशित बना हुआ है। मौजूदा साल में राज्यों के पास फंड का अभाव है और वे नए काम देने और मजदूरी के भुगतान करने की स्थिति में नहीं हैं। जनवरी 2016 तक 14 राज्यों के फंड बैलेंस नकारात्मक दर्शा रहे थे। केंद्र में सरकार बदलने के बाद मनरेगा को सफल बनाने वाले दो प्रमुख घटक यानी राजनीतिक इच्छाशक्ति और इस कानून पर विश्वास छिन गए हैं।

मनरेगा की आलोचना मुख्य रूप से दो बातों के लिए की जाती है। एक, इस योजना में भारी पैमाने पर रिसाव हौता है और दूसरी, इसमें काम के नाम पर गड्ढे खोदे और भरे जाते हैं, जिसकी कोई उपयोगिता नहीं है। ये दोनों आलोचनाएं बढ़ा-चढ़ाकर पेश की गई हैं और बौद्धिक आलस्य और वैचारिक संकीर्णता पर आधारित हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि दूसरी योजनाओं की तरह मनरेगा भी भ्रष्टाचार की समस्या से जूझ रही है। भ्रष्टाचार के साथ कड़ाई से निपटने की जरूरत है, लेकिन फंड में कटौती इसका कोई हल नहीं है। मनरेगा आइटी और समुदाय आधारित जवाबदेही तंत्र जैसे सोशल ऑडिट के जरिये भ्रष्टाचार से लड़ती रही है। तथ्य यह है कि बहुत कम ही योजनाएं हैं जो सौ फीसद तकनीक से जुड़ी हुई हैं और उनसे संबंधित आंकड़ों को सार्वजनिक किया गया है। मनरेगा के तहत होने वाले कामों के स्थायित्व और उपयोगिता से जुड़ी चिंताओं को 2013 में इसमें नए कामों को शामिल कर दूर करने का प्रयास किया गया।

कुछ राज्यों या जिलों में घटिया क्रियान्वयन अथवा भ्रष्टाचार के कारण इस कानून की जरूरत और उपयोगिता का फैसला नहीं किया जा सकता है। मनरेगा का आकलन करने के दौरान हमें यह जरूर ध्यान रखना चाहिए कि यह एकमात्र ऐसा साधन है जो ग्राम पंचायतों को सशक्त करता रहा है। कुल कामों का पचास फीसद ग्राम पंचायतें निष्पादित करती हैं। इसके साथ ही सोशल ऑडिट से जवाबदेही सुनिश्चित होती है। अन्य किसी योजना में इतनी बड़ी मात्रा में फंड जारी नहीं हुआ है। इसमें औसतन पंद्रह लाख रुपये की राशि प्रति वर्ष सीधे ग्राम पंचायतों को जारी की जाती है। इस प्रकार यदि हम ग्रामसभा से लेकर लोकसभा में विश्वास करते हैं तो मनरेगा की आधारभूत संरचना का त्याग नहीं किया जाना चाहिए। इस योजना की लगातार समीक्षा और मूल्यांकन की जरूरत है। मनरेगा का ध्यान अति पिछड़े इलाकों के वंचित समुदायों और कौशल विकास पर केंद्रित किया जाना चाहिए। इसे 2013 में मनरेगा का हिस्सा बनाया गया था और आज इसमें विस्तार की जरूरत है। इसके अतिरिक्त मनरेगा को तुरंत सामाजिक- आर्थिक जाति गणना से जोड़ा जाना चाहिए। मनरेगा के लिए राजनीतिक समर्थन में निरंतरता सबसे ज्यादा जरूरी है। जो जरूरी नहीं है वह है इस योजना का धीरे-धीरे गला घोंटा जाना। अभी तो मोदी सरकार यही करती प्रतीत हो रही है।

[लेखक जयराम रमेश, पूर्व केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री हैं]