विश्व गुरु की विवशता
परचम सदियों से अपने ज्ञान और अध्यात्म का प्रकाश फैला रहे भारत को दुनिया का विश्व गुरु कहा जाता रहा। हमारे नालंदा और तक्षशिला जैसे शिक्षण संस्थानों ने दुनिया में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया। हमारी प्राचीनतम गुरुकुल शिक्षण प्रणाली दुनिया में कौतूहल का विषय बनी रही। तमाम सभ्यताएं पठन-पाठन के
परचम
सदियों से अपने ज्ञान और अध्यात्म का प्रकाश फैला रहे भारत को दुनिया का विश्व गुरु कहा जाता रहा। हमारे नालंदा और तक्षशिला जैसे शिक्षण संस्थानों ने दुनिया में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया। हमारी प्राचीनतम गुरुकुल शिक्षण प्रणाली दुनिया में कौतूहल का विषय बनी रही। तमाम सभ्यताएं पठन-पाठन के हमारे ही बताए रास्ते पर चलती दिखीं। सदियों तक हम अपने विश्व गुरु के रुतबे पर न केवल इतराते रहे बल्कि उसे बरकरार रखने की हर संभव कोशिश भी करते रहे। शनै: शनै: हमारी यह कोशिश क्षीण होती गई। हम ज्ञानार्जन की जगह बाजारोन्मुखी और व्यावसायिक शिक्षा दिलाने वाले मकड़जाल में घिरकर उबर नहीं सके। धीरे-धीरे हम पर थोपी गई यह विवशता हमारी शिक्षा प्रणाली को दीमक की तरह चाटती गई।
पतन
देश में सरकारी स्कूलों की दुर्दशा से सब वाकिफ हैं। हाल ही में इसी मसले पर चिंता जताते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक अहम फैसले में कहा कि जब तक जनप्रतिनिधियों, उच्च पदों पर बैठे अधिकारियों और न्यायाधीशों के बच्चे सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ेंगे, तब तक इन स्कूलों की दशा नहीं सुधरेगी। चिंता स्वाभाविक भी है। आजादी के करीब सात दशक बाद तक हम सभी स्कूलों में मानक सुविधाएं नहीं दे सके हैं। शौचालय बनाने की मुहिम अब चली है। पेयजल किल्लत, भवन, अन्य शिक्षण उपकरणों की दयनीय दशा यह बताती है कि यह क्षेत्र नीति-नियंताओं की किस स्तर की प्राथमिकता में शामिल है। इनको शायद इस बात की तनिक भी चिंता नहीं है कि यहीं से पढ़े बच्चे देश का भविष्य संवारेंगे।
प्रयास
स्कूली ही नहीं, उच्च शिक्षा की हालत भी जर्जर है। हालिया जारी 2015 अकेडमिक रैंकिंग ऑफ वल्र्ड यूनिवर्सिटीज में दुनिया के 500 विश्वविद्यालयों में भारत से केवल इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस, बेंगलूर ही शामिल हो सका है। वह भी एकदम तलहटी में। दिक्कत यह है कि हमें इस बात का कोई पछतावा नहीं है। तभी तो शिक्षा व्यवस्था कभी किसी राजनीतिक दल के प्रमुख एजेंडे में नहीं जगह बना पाती। जनप्रतिनिधियों का जैसे इससे कोई सरोकार ही नहीं हैं। रोजमर्रा की मुश्किलों से जूझता आम आदमी यहां तक सोच ही नहीं पाता है कि शिक्षा भविष्य के लिए कितनी जरूरी है। ऐसे में आम लोगों को शिक्षा की महत्ता के प्रति जागरूक करने और नीति-नियंताओं से भारत को फिर से विश्व गुरु बनाने की अपेक्षा आज हम सबके लिए बड़ा मुद्दा है।
जनमत
क्या सरकारी स्कूलों की खराब दशा-दिशा के लिए कमजोर राजनीतिक इच्छाशक्ति बड़ी बाधा है?
हां 80%
नहीं 20%
क्या भारतीय शिक्षा प्रणाली में अपेक्षित निवेश का न हो पाना इसके प्रति सरकारी उदासीनता का परिचायक है?
हां 70%
नहीं 30%
आपकी आवाज
जी हां, तभी तो इलाहाबाद हाईकोर्ट को कहना पड़ता है कि नेता और अधिकारी अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाएं। -जवाहरलाल सिंह
सरकारी विद्यालयों की दुर्दशा के लिए बहुत हद तक राजनीतिक और सरकारी तंत्र ही जिम्मेदार है। शिक्षकों की नियुक्ति को वोट बैंक का जरिया बना दिया गया जिससे शिक्षा और शिक्षा व्यवस्था एक मजाक बनकर रह गया है।- संजय के.विश्वकर्मा
भावी पीढ़ी के अशिक्षित होने का बड़ा कारण राजनेताओं की इच्छाशक्ति भी है। वे योजनाएं तो बनाते हैं लेकिन उनपर अमल करने-कराने में असफल रहते हैं। -इशिका गुप्ता
हां, सरकारी स्कूलों की बदहाली के लिए सरकारी प्रशासन ही जिम्मेदार है। वह समय-समय पर होने वाली अव्यवस्थाओं और शिक्षा के स्तर को लेकर उचित कार्यवाही नहीं कर पाता है। - ईरा श्रीवास्तव
कमजोर राजनीतिक इच्छाशक्ति के कारण शिक्षा सर्वांगीण विकास के अपने महान उद्देश्य से भटककर व्यापार बनती जा रही है और सरकारी स्कूलों की खराब व्यवस्थाओं के कारण ही लोग अपने बच्चों को निजी स्कूलों में भेज देते हैं।- गौरीशंकर
हां, भारतीय शिक्षा प्रणाली में अपेक्षित निवेश का न हो पाना इसके प्रति सरकारी उदासीनता का परिचायक है।-रामजी यादव
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