अर्थव्यवस्था से खिलवाड़
सितंबर, 2011 में संयुक्त राष्ट्र आम सभा को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा था कि कुछ साल पहले तक विश्व वैश्विकरण और वैश्विक अंतरनिर्भरता के लाभों को अपनी बपौती समझता था। आज हम उस अवधारणा के नकारात्मक आयामों का सामना करने को कहा जा रहा है। 2008 के आर्थिक संकट के बाद अर्थव्यवस्था के उबार के जो अंकुर फूटे हैं, वे अभी खिलने शेष हैं। उन्होंने आगे कहा कि अनेक रूपों में संकट और गहरा गया है।
अगर प्रधानमंत्री को मालूम था कि संकट और गहरा रहा है, तो सवाल उठता है कि तब वह भारतीय अर्थव्यवस्था को बर्बादी के रास्ते पर क्यों ले गए? रुपया तेजी से गिर रहा है, चालू खाते का घाटा 1991 के पहले के स्तर पर पहुंच गया है और राजकोषीय घाटे में सुधार के कोई लक्षण नजर नहीं आ रहे हैं। इन घटकों के नतीजों के बारे में प्रधानमंत्री को बेहतर जानकारी होगी। यहां तक कि आर्थिक विकास के उत्कर्ष पर भी यानी 2005 से 2009 के बीच जब जीडीपी 8 से 9 प्रतिशत की दर से बढ़ी थी, तब भी यह विकास रोजगार के अवसर बढ़ाने में कामयाब नहीं हुआ था। योजना आयोग के अध्ययन के अनुसार, इस अवधि में एक करोड़ 40 लाख लोग खेती से बेदखल हो गए और विनिर्माण क्षेत्र में 53 लाख लोगों को रोजगार से हाथ धोना पड़ा। यदि विकास अतिरिक्त रोजगार में तब्दील नहीं हो रहा था, बल्कि पहले से रोजगार में लगे लोगों को बेरोजगार कर रहा था, तो कुछ न कुछ गड़बड़ जरूर थी।
मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री बनने के नौ साल बाद भारत में सस्ते माल की बाढ़ आ गई है। आयात का बिल 50 अरब डॉलर पर पहुंच गया है। करीब 54 प्रतिशत आयात तो केवल चीन से ही हो रहा है। इनमें बड़ी संख्या उपभोग वस्तुओं के आयात की है, जिन्हें आसानी से भारत में निर्मित किया जा सकता था। जैसे यही काफी नहीं था, अब भारत चीन से मुक्त व्यापार समझौता करने की बात कर रहा है।?हर हाल में, भारत 34 से अधिक देशों के साथ द्विपक्षीय व्यापार संधियां करने की दिशा में तेजी से आगे बढ़ रहा है। इसका नतीजा यह निकल रहा है कि निर्यात की तुलना में आयात कहीं अधिक तेजी से बढ़ रहे हैं। इसका साफ मतलब है कि व्यापार समझौते देश के हित में नहीं हैं।
देश की अर्थव्यवस्था की बदहाली के लिए प्रधानमंत्री किसी अन्य को दोषी नहीं ठहरा सकते। इस चेतावनी के बावजूद कि भारत में आयात तेजी से बढ़ रहे हैं, वह खुद ही द्विपक्षीय व्यापार संधियों की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। निकल भविष्य में लागू होने वाले प्रस्तावित भारत-यूरोपीय संघ व्यापार समझौते पर नजर डालें। यूरोपीय संघ जोर दे रहा है कि भारत शराब के आयात शुल्क में कटौती करे और दुग्ध उत्पादों में आयात शुल्क को वर्तमान 60 प्रतिशत से घटाकर 10 प्रतिशत पर लाए। इस प्रावधान से भारत में दुग्ध आयात की बाढ़ आ जाएगी, जबकि विडंबना यह है कि भारत विश्व में सबसे बड़ा दुग्ध उत्पादक देश है। सस्ती और सब्सिडी वाले कृषि उत्पाद और बड़े पैमाने पर उपभोक्ता वस्तुओं के आयात करने का मतलब है बेरोजगारी का आयात करना। इसकी पुष्टि इस तथ्य से हो जाती है कि खाद्य तेल के 300 प्रतिशत आयात शुल्क को जीरो करने का यह नतीजा हुआ कि अब भारत हर साल 60,000 करोड़ रुपये के खाद्य तेलों का आयात कर रहा है।
अर्थशास्त्री खाद्य सुरक्षा बिल में आने वाली 1.25 लाख करोड़ रुपये की लागत पर तो हायतौबा मचा रहे हैं कि इसके कारण राजकोषीय घाटा और बढ़ जाएगा, लेकिन कोई भी उन 32 लाख करोड़ रुपये के बारे में कुछ नहीं बोल रहा है, जो कर राहतों को नाम पर उद्योगपतियों को भेंट कर दिए गए हैं। किंतु इस भारी-भरकम सब्सिडी के बावजूद, औद्योगिक उत्पादन निरंतर गिरता जा रहा है। मई 2013 में यह -1.6 प्रतिशत तक गिर गया। रुपये की कीमत गिरने के बावजूद निर्यात मंदा है और विनिर्माण क्षेत्र तो अधमरा हो गया है।
फिर क्या टैक्स में दी गई छूट पैसे की बर्बादी नहीं थी। अगर यह टैक्स मिल जाए तो 32 लाख करोड़ की यह अकेली छूट ही भारत के समूचे राजकोषीय घाटे की भरपाई कर सकती है। अगर उद्योग जगत को दी गई इस विशाल टैक्स राहत के साथ-साथ रेवेन्यू फोरगोन की श्रेणी में आने वाली धनराशि को जोड़ दिया जाए और उसे देश के भीतर निवेश किया जाए तो इससे लाखों नए रोजगारों का सृजन हो सकता है। एक तरफ औद्योगिक उत्पादन लगातार गिरता जा रहा है और दूसरी ओर निजी क्षेत्र भारी-भरकम नकदी को दबाए बैठा है। मार्च 2012 तक भारतीय उद्योग जगत दस लाख करोड़ रुपये से अधिक के कैश रिजर्व को दबाए बैठा था। जाहिर है भारत को विदेशी निवेश को आकर्षित करने के लिए हद से अधिक झुकने की कोई जरूरत नहीं है। अगर इस धनराशि का निवेश किया जा सके तो न केवल दूसरे निवेशकों का भारतीय अर्थव्यवस्था पर भरोसा बढ़ेगा, बल्कि उद्योग-जगत के अनुकूल एक वातावरण भी निर्मित होगा।
एक स्विस रिपोर्ट बताती है कि भारत के दस बड़े औद्योगिक घरानों ने बाहरी व्यावसायिक उधारी में छह गुना तक वृद्धि हासिल की है और अब यह आंकड़ा छह लाख तीस हजार करोड़ रुपये के पहाड़ तक पहुंच चुका है। लेकिन इसके अपेक्षित फायदे नजर नहीं आते। इतनी अधिक बाहरी उधारी और भारी-भरकम कैश रिजर्व के होने के बावजूद आखिर क्यों सरकार वर्ष दर वर्ष औद्योगिक घरानों को कर राहत देने के लिए उतावली होती जा रही है? अकेले पिछले दो वषरें में ही 11 लाख करोड़ इन घरानों पर लुटाए जा चुके हैं।
दुख की बात यह है कि यह सब तब हो रहा है जब प्रधानमंत्री यह जानते हैं कि मुक्त बाजार की नीतियां और नियंत्रण मुक्ति के कारण ही आर्थिक समस्याएं बढ़ती जा रही हैं। सही सुधारात्मक कदम उठाने के बजाय उन्होंने भारतीय अर्थव्यवस्था की दशा और अधिक बिगड़ने दी। संकट का समाधान ग्रामीण अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने में निहित है। सरकार को ग्रामीण क्षेत्र में विशेष ध्यान देते हुए कृषि को संकट से उबारने के साथ ही निर्माण उद्योग में नई जान फूंकनी होगी। यदि इस दिशा में आगे बढ़ने में अभी भी देरी की जाती है तो हालात हाथ से फिसलना तय है। अब केंद्र सरकार के पास इतना समय शेष नहीं रह गया है कि वह गलतियों को तात्कालिक रूप से सही कर सके।
[लेखक देविंदर शर्मा, आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं]
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