दिशा तलाशती दलित राजनीति
मायावती ने बसपा में अपने बाद के नेतृत्व पर संशय को साफ करते हुए अपने भाई एवं भतीजे की जगह दी है।
बद्री नारायण
बीते दिनों पटना में लालू यादव की रैली में विपक्षी नेताओं में जो प्रमुख चेहरा नजर नहीं आया वह बसपा सुप्रीमो मायावती का था। इस रैली में माया की अनुपस्थिति इसलिए उल्लेखनीय रही, क्योंकि एक तो वह विपक्षी एकता की हिमायती रही हैैं और दूसरे लालू यादव उन्हें अपने दल की ओर से राज्यसभा में भेजने की बात करते रहे हैैं। मायावती का इस रैली में शामिल नहीं होना कहीं न कहीं यह बताता है कि वह अपने बलबूते राजनीति करना चाह रही हैैं, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि जहां कांशीराम ने अपनी बहुजन राजनीति को भाई-भतीजावाद से दूर रखना चाहा था, वहीं आज बसपा में भाई भतीजावाद दिखाई पड़ने लगा है। मायावती ने बसपा में अपने बाद के नेतृत्व पर संशय को साफ करते हुए अपने भाई एवं भतीजे की जगह दी है। बसपा नेताओं में राजनीतिक महत्वाकांक्षा के साथ चंदे की उगाही में हिस्सेदारी जैसे टकराव बहुजन राजनीति को कमजोर करते जा रहे हैं। उत्तर प्रदेश में बहुजन राजनीति में दलितों की वही जातियां प्रभावी हैैं जिनकी संख्या ज्यादा है या फिर जो विभिन्न ऐतिहासिक कारणों से आर्थिक रूप से बेहतर स्थिति में हैं। दलितों में 50 से ज्यादा छोटी छोटी संख्या वाली दलित बहुजन जातियों का प्रतिनिधित्व उत्तर प्रदेश की बहुजन राजनीति में न के बराबर है। अन्य राज्यों में भी दलित राजनीति बड़े दलों की पिछलग्गू की तरह ही है जिसे कांशीराम ने ‘चमचा संस्कृति’ कहा था। दलित राजनीति में दलितों की कुछ बड़ी जातियों का प्रभुत्व एवं अनेक छोटी जातियों की नगण्य उपस्थिति दूसरी बड़ी समस्या है।
अपने देश के विभिन्न राज्यों में दलित राजनीति के अलग-अलग रूप दिखाई पड़ते हैं। दलित राजनीति का तात्पर्य दलित गोलबंदी से है। हिंदी क्षेत्रों में बहुजन राजनीति के रूप में दलितों की राजनीति 90 के दशक में मजबूत हुई। उत्तर प्रदेश में तो यह राजनीति मजबूत हुई ही, साथ ही प्रारंभिक दौर में मध्य प्रदेश, राजस्थान, बिहार में भी उसका आकर्षण बढ़ा। उत्तर प्रदेश में ‘दलित पार्टी’ के रूप में शुरू हुई बसपा सही रूप में दलित से ‘बहुजन’ का आकार लेते हुए सर्वजन के रूप में फैली, किंतु आज उत्तर प्रदेश में ‘बहुजन राजनीति’ गहरे संकट से गुजर रही है। मध्य प्रदेश, राजस्थान, बिहार जैसे राज्यों में भी इसका शुरुआती आकर्षण आज छीज सा गया है। वैसे तो बसपा देश के अनेक राज्यों में विधानसभा एवं लोकसभा के चुनावों में अपने उम्मीदवार लड़ाती है, लेकिन उसे अभी तक उत्तर प्रदेश को छोड़ अन्य किसी राज्य में महत्वपूर्ण सफलता नहीं मिली। उत्तर प्रदेश के अतिरिक्त आजादी के बाद केरल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र जैसे राज्यों में दलित अस्मिता की राजनीति मुखर होकर उभरी थी। केरल में दलित गोलबंदी पर कांग्रेस, वामपंथी एवं आरएसएस की राजनीति का गहरा असर है। मध्य जातियों के प्रभाव वाली केरल की राजनीति में दलित राजनीति लगभग वहां की मुख्यधारा में समाहित है। दलितों का एक छोटा धड़ा एक स्वायत्त दलित राजनीति की बात तो करता है, किंतु उनका व्यापक भाग केरल की मुख्यधारा की राजनीति का हिस्सा है। यहां की दलित चेतना के निर्माण में ईसाई मिशनरियों के साथ अंबेडकरवादी एवं वामपंथी राजनीति का गहरा असर दिखाई पड़ता है। अब संघ की राजनीति का असर भी यहां के मछुआरों और अन्य छोटी जातियों पर दिखाई पड़ने लगा है।
तमिलनाडु में दलित राजनीति ब्राह्मण विरोधी आंदोलन की छाया में विकसित हुई। इस आंदोलन में मध्य जातियां ज्यादा प्रभावी होकर उभरीं और इस तरह दलितों के मुद्दे गौण से हो गए। आज तमिलनाडु की दलित राजनीति के समक्ष गहरा संकट आ खड़ा हुआ है। तमिलनाडु एवं अन्य राज्यों के दलित आंदोलनों के समक्ष दूसरी समस्या यह है कि वे किस प्रकार अपने विचार एवं तर्कों को लोकप्रिय आधार दें। आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र एवं पंजाब में दलित आंदोलन के संकट थोड़े भिन्न हैं। पंजाब में भारत के किसी भी राज्य से ज्यादा 31 प्रतिशत के आस-पास दलित हैैं। इस 31 प्रतिशत आबादी का बहुलांश रविदासी एवं बाल्मीकि जातियों से है। ये दोनों समुदाय राजनीतिक रूप से एक होने को तैयार नहीं होते। बहुधा इनमें से एक अगर कांग्रेस की तरफ जाता है तो दूसरा अकाली दल की तरफ । कांशीराम ने 90 के दशक में इनके बीच एकता लाने की कोशिश की थी, पर वह भी सफल नही हुए। पंजाब का होने के बावजूद वह बसपा का प्रसार पंजाब में नही कर पाए। पंजाब में आज भी दलित राजनीति की सबसे बड़ी समस्या संख्या एवं आर्थिक तौर पर महत्वपूर्ण दो बड़ी जातियों में एकता न होना है।
महाराष्ट्र में आरपीआई एवं दलित पैंथर से निकले हर बड़े नेता ने अपना गुट बना लिया है। रामदास अठावले शिवसेना से होते हुए भाजपा तक पहुंच चुके हैं। प्रकाश अंबेडकर आज भी कांग्रेसी प्रभाव में हैं। महाराष्ट्र में भी दलित दो बड़ी जातियों में विभाजित -महार एवं मातंग हैैं। इन जातियों से निकले नेताओं ने अपने-अपने दल बना लिए हैैं। जातीय एवं क्षेत्रीय अस्मिताओं के आपसी टकराव यहां की दलित राजनीति के संकट को बढ़ा रहे हैैं। यहां दलित आबादी शिवसेना, भाजपा एवं कांग्रेस समर्थक के तौर पर बंटी दिखती है।
आंध्र की दलित राजनीति अंबेडकरवादी राजनीति से प्रभावित होने के साथ ही भाग्य रेड्डी के ‘आदि आंदोलन’ से प्रभावित रही है, किंतु अब वहां भी दलित राजनीति स्वायत्त रूप से न विकसित होते हुए एक तरह से टीआरएस और टीडीपी के साथ-साथ कांग्रेस एवं भाजपा के बीच सैंडविच बनकर रह गई है। तमाम समानतावादी आदर्शों के बावजूद आंध्र की दलित राजनीति ‘माला’ एवं ‘मादिगा’ जैसे दो बड़े दलित समूहों के अंतर्विरोधों का शिकार है। इन दो जातियों की अस्मिता का टकराव यहां की दलित राजनीति को एक नहीं होने दे रहा। ‘मादिगा’ जाति को सदैव यह शिकायत रही है कि दलित के नाम पर मिलने वाले जनतांत्रिक लाभों का बहुलांश ‘माला’ जाति के कब्जे में चला जाता है। अन्य छोटी दलित जातियों का प्रतिनिधित्व न होना भी आंध्र प्रदेश की दलित राजनीति का एक बड़ा संकट है।
कुल मिलाकर अनेक राज्यों में दलित राजनीति में दो या तीन बड़ी जातियों का जनतांत्रिक लाभों के बंटवारे के लिए हो रहा टकराव दलित राजनीति को कमजोर कर रहा है। दलित समूहों में आज नेतृत्व केअनेक स्तर उभर आए हैं। व्यक्तिगत राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की टकराहट भी दलित राजनीति को लगातार कमजोर करती जा रही है। अंबेडकरवादी आदर्शों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दिखाने के बावजूद आज की दलित राजनीति मुख्यधारा के राजनीतिक दलों की राजनीतिक संस्कृति की ही शिकार है। महत्वाकांक्षओं की टकराहट, भाई-भतीजावाद, सत्ता प्राप्ति की होड़ उन्हें भीतर से कमजोर करती जा रही है। जिसका प्रतिरोध करना था, उसी से प्रभावित होते जाना दलित राजनीति के संकट को और गहरा कर रहा है।
[ लेखक गोविंद बल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान में निदेशक एवं समाज विज्ञानी हैैं ]
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