नई दिल्ली [ संजय गुप्त ]। सबसे बड़े लोकतंत्र की सबसे बड़ी अदालत के चार वरिष्ठ न्यायाधीशों ने प्रेस कांफ्रेंस करके जिस तरह मुख्य न्यायाधीश से अपने मतभेद उजागर किए उसने सारे देश को हैरान किया तो इसीलिए कि ऐसा इसके पहले कभी नहीं हुआ और कोई ऐसा होने की कल्पना भी नहीं करता था। इस प्रेस कांफ्रेंस ने देश को अवाक करने के साथ ही सुप्रीम कोर्ट की प्रतिष्ठा को भारी आघात पहुंचाने का भी काम किया। भारत में जो भी प्रमुख संवैधानिक संस्थाएं हैैं उनमें सुप्रीम कोर्ट की प्रतिष्ठा सर्वोपरि समझी जाती है। हर आम और खास को यह उम्मीद रहती है कि किसी भी मसले पर जब कहीं से कोई राह निकलेगी तो सुप्रीम कोर्ट समाधान सुझाएगा। कहना कठिन है कि सुप्रीम कोर्ट को अभी भी इसी नजर से देखा जाएगा या नहीं, क्योंकि उसके चार न्यायाधीशों ने न केवल मुख्य न्यायाधीश पर अविश्वास जताया, बल्कि यह भी कहा कि इस अदालत में जैसे काम हो रहा है वह लोकतंत्र को खतरे में डालने वाला है। ऐसी टिप्पणियों और एक तरह से मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ खुली बगावत से जनता को यही संदेश गया कि सुप्रीम कोर्ट में कोई बड़ी गड़बड़ी है। यह संदेश ही इस संस्था की प्रतिष्ठा को क्षति पहुंचाने वाला है। इस क्षति की भरपाई आसान नहीं, क्योंकि शुक्रवार को जो कुछ हुआ वह हर लिहाज से अकल्पनीय है।

मेडिकल कॉलेज से जुड़े मामले को लेकर मुख्य न्यायाधीश से मतभेद चल रहे थे

माना जाता है कि चार न्यायाधीशों के मुख्य न्यायाधीश से मतभेद तभी से चल रहे थे जब लखनऊ के एक मेडिकल कॉलेज से जुड़े मामले पर सुनवाई होनी थी। इन चार न्यायाधीशों की मानें तो मुख्य न्यायाधीश ने उक्त मामले के साथ-साथ कुछ अन्य कथित अहम मसले अपनी मनपसंद बेंच को भेजे। पता नहीं, ये आरोप कितने सच हैैं, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि यह अधिकार मुख्य न्यायाधीश को है कि वह किस मामले को किस बेंच के पास भेजें। इस अधिकार के बावजूद यह भी सही है कि केस आवंटन की एक स्थापित परंपरा भी है और यह परंपरा यह कहती है कि एक प्रकृति के मामले ऐसी बेंच को भेजे जाएं जो उस तरह के मामलों का निपटारा करती रही हो।

जज लोया की आकस्मिक मौत के मामले को लेकर चारों जजों में नाराजगी थी

हर तरफ हलचल पैदा करने वाली प्रेस कांफ्रेंस से यह स्पष्ट हुआ कि चार न्यायाधीश जिन कुछ बड़े मामलों की सुनवाई खुद करना चाहते थे वे उनके पास नहीं भेजे गए। ऐसे एक मामलों में मेडिकल कॉलेज वाला मामला भी था। प्रेस कांफ्रेंस में जिस एक अन्य मामले का जिक्र हुआ उसमें जज लोया की मौत का मामला भी है। जज लोया की आकस्मिक मौत दिसंबर 2014 को हुई थी। वह गुजरात के शोहराबुद्दीन मुठभेड़ मामले की सुनवाई कर रहे थे, जिसमें भाजपा अध्यक्ष अमित शाह आरोपी थे। चूंकि साथी न्यायाधीशों की मौजूदगी में उनका उपचार हुआ और उनके शव का पोस्टमार्टम भी इसलिए उस वक्त कहीं कोई संदेह नहीं उठा, लेकिन तीन साल बाद गुजरात विधानसभा चुनाव के पहले यकायक सनसनीखेज तरीके से यह प्रचारित किया जाने लगा कि जज लोया की मौत संदिग्ध परिस्थितियों में हुई थी। हालांकि उनके बेटे ने कहा है कि ऐसा कुछ नहीं था, लेकिन बावजूद इसके मीडिया का एक हिस्सा यह मसला उछालता रहा। इन्हीं खबरों के आधार पर 9 जनवरी को बंबई हाईकोर्ट में एक याचिका दायर की गई। वहां उसकी सुनवाई शुरू हो गई थी, फिर भी एक याचिका सुप्रीम कोर्ट में दायर की गई। शुक्रवार को जब सुप्रीम कोर्ट में इस याचिका पर सुनवाई हो रही थी तो न्यायाधीशों की प्रेस कांफ्रेंस में मौजूद रहीं एक वकील यह अनुरोध कर रही थीं कि सुप्रीम कोर्ट इस मामले को न सुने। आखिर यह क्या पहेली है?

न्यायाधीश अदालती मामलों का मीडिया ट्रायल पसंद नहीं करते

मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ प्रेस कांफ्रेंस करने वाले न्यायाधीशों ने सुप्रीम कोर्ट प्रशासन की मौजूदा कार्यशैली को भले ही लोकतंत्र को खतरे में डालने वाला बताया हो, लेकिन सच यह है कि केवल सुप्रीम कोर्ट ही लोकतंत्र का प्रतिनिधित्व नहीं करता। तथ्य यह भी है कि सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जज जिस कोलेजियम व्यवस्था के तहत नियुक्त होते हैैं उसमें सरकार अथवा अन्य किसी संस्था की कोई भूमिका ही नहीं। आखिर ऐसे में यह कैसे कहा जा सकता है कि लोकतंत्र खतरे में है? यह भी ध्यान रहे कि जिन चार न्यायाधीशों ने प्रेस कांफ्रेंस की वे कोलेजियम का हिस्सा हैैं। किसी भी संस्था के सदस्यों में मतभेद होना कोई नई-अनोखी बात नहीं, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि मतभेद सड़क पर ले आए जाएं। समझना कठिन है कि ये चार न्यायाधीश मुख्य न्यायाधीश से अपने मतभेद अंदरूनी स्तर पर क्यों नहीं सुलझा सके? यह हास्यास्पद है कि जो न्यायाधीश अदालती मामलों का मीडिया ट्रायल पसंद नहीं करते उन्होंने अपने अंदरूनी मामले को मीडिया ट्रायल के हवाले कर दिया। यह कितना उचित है कि चार न्यायाधीश पहले प्रेस कांफ्रेंस करके मुख्य न्यायाधीश पर अविश्वास जताएं और फिर यह उम्मीद करें कि उनकी ओर से उठाए गए मसलों का समाधान होगा? आखिर यह समाधान कौन करेगा? क्या जनता या फिर सरकार या राजनीतिक दल? जब जजों की नियुक्तियों में किसी अन्य की भागीदारी नहीं तो उनके बीच के मतभेद सुलझाने में बाहरी लोग भागीदार कैसे बन सकते हैैं?

चारों जजों के पास बड़े मामले नहीं आए तो क्या उनकी प्रतिष्ठा कम हो गई?

सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश विशिष्ट शख्सियत होते हैं। यह विश्वास किया जाता है कि वे नीर-क्षीर और परिपक्व ढंग से कार्य करेंगे और अपने आचरण से भी एक मिसाल कायम करेंगे। इन चार न्यायाधीशों के लिए इस सवाल का जवाब देना मुश्किल होगा कि अगर कुछ कथित बड़े मामले उनके पास नहीं आए तो क्या उनकी प्रतिष्ठा कम हो गई? क्या ऐसा कोई नियम है कि समस्त कथित अहम मसले वरिष्ठ जजों की बेंच को ही सुनने चाहिए? क्या इन न्यायाधीशों ने परोक्ष रूप से सुप्रीम कोर्ट के 20 अन्य न्यायाधीशों की निष्ठा और निष्पक्षता पर सवाल खड़े करने का काम नहीं किया? आखिर चार न्यायाधीश क्यों चाहते हैैं कि कुछ खास मामले सुनवाई के लिए उनके पास ही आएं? क्या केसों का आवंटन चार न्यायाधीशों की मर्जी से होने लगे तो सुप्रीम कोर्ट का प्रशासन सही हो जाएगा?

नेतागण सुप्रीम कोर्ट के मसले से दूर रहें

दुर्भाग्यपूर्ण केवल यह नहीं कि चार न्यायाधीश सुप्रीम कोर्ट के आंतरिक मसले को सड़क पर ले आए, बल्कि यह भी है कि उनकी प्रेस कांफ्रेंस के ठीक बाद भाकपा नेता डी राजा जस्टिस चेलमेश्वर से मुलाकात करने उनके आवास पर चले गए। आखिर उन्हें ऐसा करने की क्या जरूरत थी? क्या दोनों के बीच हुई यह मुलाकात जनता के मन में संशय पैदा करने वाली नहीं? डी राजा जैसा काम कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने भी किया। उन्होंने आनन-फानन में एक प्रेस कांफ्रेस करके न केवल न्यायाधीशों की ओर से उठाए गए मसलों पर चिंता जताई, बल्कि इस पर भी जोर दिया कि जस्टिस लोया के मामले की जांच सर्वोच्च स्तर पर होनी चाहिए। क्या यह सुप्रीम कोर्ट के मामले में किसी नेता की गैर जरूरी टिप्पणी नहीं? क्या राहुल इस मामले में इसलिए बोले कि जज लोया की मौत की जांंच संबंधी याचिका कांग्रेसी नेता तहसीन पूनावाला ने दायर की है? बेहतर हो कि नेतागण सुप्रीम कोर्ट के मसले से दूर रहें। इसी के साथ यह भी आवश्यक है कि सुप्रीम कोर्ट के सभी न्यायाधीश अपनी अंदरूनी व्यवस्था को आपसी समन्वय से सुलझाएं। इसके अलावा और कोई उपाय भी नहीं।

[ लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं ]