जब जाड़े के दिन आते हैं तो मैं सरसों के साग के लिए तरसने लगता हूं। जहां तक मुङो याद है जब मुङो पहली नौकरी मिली थी तो मेरी मां मुङो इतना साग भेज देती थीं जो एक सप्ताह तक चल जाए। मैं हर वक्त या कम से कम दिन में एक बार साग के साथ भोजन कर सकता था। यह ऐसी आदत थी जो बचपन से ही बनी रही, लेकिन मैं अपने खान-पान के स्वाद और इच्छा की बात इसलिए कर रहा हूं, क्योंकि मुङो लगता है मुङो जल्द ही अपने इस पसंदीदा भोजन को भूलना पड़ेगा।

बताया जा रहा है कि पर्यावरण और वन मंत्रलय आनुवंशिक रूप से परिवर्तित यानी जीएम सरसों के व्यावसायिक उत्पादन की अनुमति देने जा रहा है। मुङो नहीं लगता कि अब मैं कोई जोखिम ले पाऊंगा। मैं जानता हूं कि मक्के की रोटी और सरसों के साग का लुत्फ लेने वाले लाखों उत्तर भारतीय लोग सरकार के इस कदम से बहुत निराश होंगे। आखिरकार पारंपरिक रूप से रोज की थाली का हिस्सा रही एक खाद्य फसल को आनुवंशिक रूप से परिवर्तित करने की क्या वजह हो सकती है?

वास्तव में जीएम सरसों को आम सरसों से अलग करने का कोई तरीका नहीं है कि मैं निश्चिंत हो सकूं कि जो मैं खा रहा हूं वह आनुवंशिक तौर पर परिवर्तित नहीं है।1पर्यावरण और वन मंत्रलय ने 2010 में बीटी बैंगन पर प्रतिबंध लगाया था। अगर यह नहीं किया जाता तो यह आनुवंशिक रूप से परिवर्तित पहली खाद्य फसल होती। अब पांच साल बाद अनुमति देने वाली केंद्रीय एजेंसी आनुवंशिक अभियांत्रिकी मूल्यांकन समिति यानी जीईएसी दिल्ली विश्वविद्यालय की जीएम सरसों की एक किस्म डीएमएच-11 को हरी झंडी देने की तैयारी कर रही है। दावा है कि यह जीएम सरसों 20-25 फीसद अधिक पैदावार देती है और सरसों तेल की गुणवत्ता को भी बढ़ाती है।

यह समय इन दावों की सच्चाई की परीक्षा का है। इस संदर्भ में सबसे पहले यह समझने की जरूरत है कि जब बीटी बैंगन की बात की जा रही थी तब तर्क था कि बैंगन की फसल एक घातक कीड़े की वजह से नष्ट हो रही जै, जो इसके फल और डंठल को खा जाता है। इससे किसानों को बड़ा नुकसान ङोलना पड़ता है, लेकिन पिछले पांच साल में हमने देश के किसी हिस्से में बैंगन उगाने वाले किसानों द्वारा ऐसे किसी संकट के बारे में शायद ही कभी सुना हो। जो एकमात्र समस्या है भी वह अधिक उत्पादन की है जिससे कीमतें गिरती हैं। रासायनिक खाद के मुद्दे पर हम बाद में आएंगे, पहले इस दावे की ओर देखें कि जीएम सरसों से आयात में कमी आएगी या नहीं?

जीएम सरसों को विकसित करने वाले कुछ वैज्ञानिकों को मैंने यह कहते हुए सुना है कि भारत सालाना 60 हजार करोड़ रुपये का खाद्य तेल आयात करता है इसलिए जीएम सरसों के बढ़े उत्पादन से आयातित तेल कम हो जाएगा। जो वस्तुस्थिति नहीं जानते उनके लिए यह लाभप्रद सुझाव है। यह सच है कि भारत सालाना 60 हजार करोड़ रुपये का खाद्य तेल आयात करता है, लेकिन इसकी वजह तकनीक की कमी या अधिक उत्पादन न कर पाने की समस्या अथवा पिछड़ापन नहीं है। इसका सामान्य सा कारण है कि हमने आयात शुल्क को 300 प्रतिशत घटाकर लगभग शून्य करने की अनुमति दे रखी है।

इस वजह से सस्ते आयात की बाढ़ है। सरसों समेत तमाम तिलहनी फसलों की उत्पादकता बढ़ाने के लिए 1985 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने तिलहन टेक्नोलॉजी मिशन की शुरुआत की थी ताकि आयात घटाया जा सके। 1985 में भारत लगभग 15 हजार करोड़ का खाद्य तेल आयात कर रहा था, जो हमारी घरेलू जरूरत का लगभग 50 प्रतिशत था। पेट्रोल और उर्वरक के बाद यह तीसरा सबसे बड़ा आयात बिल था। राजीव गांधी इसे कम करना चाहते थे। परिणामस्वरूप तिलहन मिशन की शुरुआत के दस साल बाद 1994-95 में भारत खाद्य तेल के मामले में लगभग आत्मनिर्भर हो गया और सिर्फ तीन प्रतिशत तेल का आयात हुआ।

आखिर अब फिर से आयात बिल बढ़कर 60 हजार करोड़ रुपये कैसे हो गया? दरअसल बाद की सरकारों ने डब्ल्यूटीओ के निर्देशों पर अत्यधिक उदारीकरण की नीति के चलते आयात शुल्क घटाने शुरू कर दिए। डब्ल्यूटीओ नियमों के अनुसार, भारत 300 प्रतिशत आयात शुल्क लगा सकता है, लेकिन पता नहीं किन कारणों से भारत का आयात शुल्क लगभग शून्य तक ला दिया गया है। इस तरह आयात शुल्क में जबरन कटौती के कारण भारत में खाद्य तेल का आयात बढ़ते-बढ़ते आज 60 हजार करोड़ रुपये से अधिक हो गया है। परिणामस्वरूप किसानों ने तिलहन बोना बंद कर दिया।

इसलिए यह कहना बिल्कुल गलत है कि हमारे खाद्य तेल का आयात इसलिए बढ़ा है कि हम पर्याप्त घरेलू तिलहन नहीं पैदा करते। 1सरसों भारत में पैदा की जाने वाली कई तिलहनी फसलों में से एक है। पिछले वर्षो में इसकी उत्पादकता और उत्पादन उछाल पर रहा है। 2010-11 में 81.8 लाख टन रिकॉर्ड सरसों का उत्पादन हुआ है। 1990-91 में इसका उत्पादन 9.4 क्विंटल प्रति हेक्टेयर था, जबकि 2013-14 में औसत उत्पादन बढ़कर प्रति हेक्टेयर 12.62 क्विंटल हो गया। गुजरात में तो यह 16.95 क्विंटल प्रति हेक्टेयर था। सरसों का उत्पादन और बढ़ सकता है अगर किसानों को लाभकारी कीमत मिले और हर साल उत्पादन को खरीदने वाली मंडी की उचित आधारभूत संरचना बनाई जाए।

चूंकि राजस्थान, मध्य प्रदेश और हरियाणा में करीब 70 प्रतिशत सरसों की फसल उगाई जाती है इसलिए किसान जो समस्या ङोलते हैं वह अधिक उत्पादन और खरीदारों की कमी की है। खास तौर से राजस्थान में केंद्रीय एजेंसी नेफेड को जरूरत से ज्यादा उत्पादन और गिरती कीमत के वक्त सरसों की खरीद के लिए कई बार आगे आना पड़ता है। उपलब्ध खाद्य तेलों में सरसों का तेल स्वास्थ्य की दृष्टि से सबसे अच्छा है। इसमें संतृप्त फैटी एसिड की मात्र सबसे कम होती है। सरसों के तेल में अपेक्षाकृत सस्ते बिनौले तेल और ताड़ के तेल की मिलावट एक बड़ी समस्या है।

इसमें तीखापन लाने के लिए लाल मिर्च के घोल की भी मिलावट की जाती है। बाजार से मैगी नूडल्स को वापस लेने के बाद मुङो कोई कारण नहीं दिखता कि सरसों के तेल में होने वाली मिलावट के खिलाफ भी कड़ी कार्रवाई क्यों नहीं की जा सकती। वास्तव में सरसों तेल की गुणवत्ता में सुधार किसी आनुवंशिक परिवर्तन से नहीं, बल्कि प्रोसेसिंग उद्योग में सुधार से संभव है। कहा जा रहा है कि जीईएसी आने वाले महीनों में जीएम सरसों को पूरी तरह अनुमति देने पर सक्रियता से विचार कर रही है। जीएम सरसों को लाने का कोई औचित्य न होने के बावजूद इसे लाने की कवायद को लेकर मैं यह समझ पाने में विफल हूं कि मेरे जैसे लाखों उत्तर भारतीयों को अपने पसंदीदा सरसों के साग से आखिर क्यों महरूम किया जा रहा। जीएम सरसों के आने से उसमें वह पुराना स्वाद नहीं रहेगा और यह स्वास्थ्य तथा पर्यावरण की दृष्टि से भी जोखिम भरा होगा। ऐसे में जीएम सरसों का साग खाने का जोखिम कौन उठाना चाहेगा?

(लेखक देविंदर शर्मा खाद्य एवं कृषि नीतियों के विश्लेषक हैं)