त्रासदी की शिकार कृषि
कुछ वर्ष पहले पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने कर्नाटक के गुलबर्गा में एक समारोह के दौरान छात्रों को संबोधित करते हुए कहा था कि उन्हें डॉक्टर, इंजीनियर, नौकरशाह, वैज्ञानिक, अर्थशास्त्री और उद्योगपति बनने के लिए कठिन परिश्रम करना चाहिए और खुद को शिक्षित करना चाहिए। जब उन्होंने अपनी बात खत्म की तो एक युवा छात्र खड़ा हुआ और पूछा कि उन्होंने यह क्यों नहीं कहा कि हमें किसान भी बनना चाहिए? अब्दुल कलाम निरुत्तार थे। उन्होंने घुमा-फिराकर उत्तार देने की कोशिश की, लेकिन वास्तव में उस युवा छात्र ने उन्हें शब्दहीन कर दिया। इससे किसान और किसानी के प्रति पूर्वाग्रह का पता चलता है। यह घटना मुझे तब याद आई जब मैं अमेरिका में एक किसान द्वारा लिखे लेख को पढ़ रहा था। अमेरिकी अखबार न्यूयार्क टाइम्स में एक किसान ब्रेन स्मिथ ने लिखा कि खाद्य आंदोलन का एक छिपा पहलू यह है कि छोटे स्तर के किसानों के बारे में भले ही बहुत कुछ किया जाता हो, लेकिन सच्चाई यही है कि वे जीवन निर्वाह भी नहीं कर पा रहे हैं।
अमेरिका में तकरीबन 91 फीसद किसान परिवार आय के अन्य स्नोतों पर निर्भर हैं। उत्तारी अमेरिका में कोई भी किसान अपने बच्चों को किसान नहीं बनाना चाहता। यह उस देश में हो रहा है जहां किसान बिल 2014 में आगामी 10 वषरें के लिए कृषि को मदद देने के लिए 962 अरब डॉलर की केंद्रीय सब्सिडी का प्रावधान बनाया गया है। यूरोप में भी स्थिति उतनी ही चिंताजनक है। यूरोप के कुल वार्षिक बजट का 40 फीसद कृषि क्षेत्र के लिए निर्धारित होने के बावजूद वहां प्रति मिनट एक किसान कृषि कार्य को छोड़ रहा है। कनाडा में नेशनल फार्मर्स यूनियन के एक अध्ययन से पता चलता है कि वहां कृषि व्यवसाय से जुड़ी 70 कंपनियों का मुनाफा जहां बढ़ा है वहीं खाद्य श्रृंखला से जुड़े किसानों के वर्ग को घाटा उठाना पड़ रहा है। अमेरिका और यूरोप में 80 फीसद कृषि सब्सिडी वास्तव में कृषि व्यवसाय से जुड़ी कंपनियों को जा रही है। वहां किसान एक खत्म हो रही नस्ल बन गए हैं। एक पत्रिका में मैक्स कुटनेर लिखते हैं कि दशकों से समूचे अमेरिका में किसान मर रहे हैं। किसानों में आत्महत्या की दर सामान्य आबादी की तुलना में कहीं बहुत अधिक है। हालांकि वास्तविक संख्या का निर्धारण मुश्किल है। मुख्यत: इसलिए, क्योंकि किसानों को लेकर गलत रिपोर्टिंग की जाती है। वहां किसानों की परिभाषा भी अस्पष्ट है। यह सही है कि अमेरिका में जो कुछ हो रहा है वह वैश्रि्वक रूप से कोई अलग घटना नहीं है। जब कुछ सप्ताह पूर्व मैंने मीडिया द्वारा यह बताया था कि चीन में पिछले दशक में प्रति वर्ष ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले औसतन 2,80,000 लोग आत्महत्या कर रहे हैं तो पूरा राष्ट्र चकित रह गया था। इससे चिंतित तमाम लोगों ने इस बारे में जानना चाहा कि आखिर चीनी किसानों के साथ ऐसा क्यों हो रहा है? ताजा रिपोर्ट बताती है कि चीन में अपनी जान ले रहे ग्रामीण इलाकों के 80 फीसद लोग वह हैं जो भूमि अधिग्रहण का शिकार हुए हैं। भारत में 1995 से अब तक तकरीबन तीन लाख किसानों ने आत्महत्या की है।
कुछ राज्य इन घटनाओं को छिपाने-दबाने की कोशिश करते हैं और ऐसी मौतों को दूसरी श्रेणियों में हुई मौत से जोड़कर दिखाते हैं। समान कृषि नीति के तहत बड़े पैमाने पर सब्सिडी देने वाले यूरोप में भी मौतों की श्रृंखला रुकने का नाम नहीं ले रही। फ्रांस में एक वर्ष में 500 किसानों के आत्महत्या करने की रिपोर्ट आई है तो आयरलैंड, ब्रिटेन, रूस और आस्ट्रेलिया में किसान मरने को विवश हो रहे हैं। हालांकि भारत में हम यही कहते हैं कि कृषि हमारी अर्थव्यवस्था की रीढ़ है, लेकिन यह वास्तविकता नहीं है। हमारी आबादी के 52 फीसद लोगों को रोजगार देने वाले कृषि का हिस्सा देश की कुल जीडीपी में लगातार घट रहा है। मैं लंबे समय से कहता आया हूं कि छोटे किसानों को अपना चूल्हा जलाए रखने अथवा रोटी खाने के लिए बहुस्तरीय रोजगार मिलना चाहिए। भारतीय कृषि की हालत भी दयनीय है। इस बारे में कुछ अध्ययन बताते हैं कि तकरीबन 58 फीसद किसान मनरेगा पर निर्भर हैं, जो उन्हें वर्ष में न्यूनतम 100 दिन की रोजगार गारंटी उपलब्ध कराता है। हालांकि स्थिति अभी खराब बनी हुई है। जो लोग देश को खाना खिलाते हैं वही वास्तव में भूखे सोने को विवश हैं। प्रत्येक रात में तकरीबन 60 फीसद लोग भूखे सोते हैं। किसानों की इस त्रासदी से खराब बात कुछ और नहीं हो सकती। यह सब किसी प्राकृतिक आपदा के चलते नहीं हो रहा और न ही किसी वायरस के फैलने से है कि पूरी दुनिया में किसान मर रहे हैं अथवा आत्महत्या करने को विवश हैं। यह वैश्रि्वक अर्थव्यवस्था की डिजाइन का हिस्सा है, जिस कारण किसान खेती के काम से विमुख हो रहे हैं। खाद्यान्न उत्पादन के लिए मिल रही सब्सिडी कृषि व्यवसाय में लगी कंपनियों के हाथों में जा रही है। सामान्य तौर पर माना यही जाता है कि कोई भी देश आर्थिक रूप से तभी बड़ा और विशाल हो सकता है जब कुल जीडीपी में कृषि का हिस्सा घटे अथवा नीचे लाया जाए।
अमेरिका की कुल जीडीपी में कृषि क्षेत्र की भागीदारी 4 फीसद है और भारत में यह 14 फीसद से कम है। 2020 के अंत तक यह अनुपात घटकर 10 फीसद पर आ सकता है। इसका छोटे स्तर की कृषि पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। पिछले सात वषरें में 2007 से 2012 के बीच 3.2 करोड़ किसानों ने खेती को अलविदा कह दिया और वह शहरों में मध्यम स्तर के रोजगार के लिए आकर्षित हुए हैं। 2011 की जनगणना के मुताबिक प्रति दिन 2500 किसान खेती छोड़ रहे हैं। दूसरे अध्ययनों के मुताबिक प्रति दिन 50 हजार लोग गांवों से कस्बों अथवा शहरों में स्थानांतरित हो रहे हैं, जिनमें किसान भी शामिल हैं। एनएसएसओ की रिपोर्ट के मुताबिक 42 फीसद किसान दूसरे विकल्प मिलने पर खेती छोड़ना चाहते हैं। कृषि क्षेत्र में अग्रणी पंजाब राज्य में 98 फीसद ग्रामीण परिवार कर्ज में डूबे हैं। यदि पंजाब में ऐसी स्थिति है तो देश के बाकी राज्यों की हालत को समझा जा सकता है। ऐसी हालत में किसानों का मरना स्वाभाविक है। यह केवल समय की बात है कि कब एक प्रजाति के तौर पर किसानों का खात्मा होता है।
[लेखक देविंदर शर्मा, कृषि एवं खाद्य नीतियों के विश्लेषक हैं]
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