तीन बेटियों पर खूब मिले ताने, पर दिनेश नहीं माने
छोटी-सी नौकरी करने वाले दिनेश ने बेटियों को आसमान पर पहुंचाने की ठान ली। आज उनकी तीन बेटियां गर्व से भर देती हैं। ताने अब बीते दिनों की बात हो गई है।
सासाराम [ब्रजेश पाठक]। वे दिन भी याद हैं। तीन बेटियों के पिता बनते ही उन्हें ताने देने वाले मुखर हो गए। लोग कहते थे कि तीन बेटियां हैं। शादी करने में ही जिदंगी खप जाएगी। बरबाद हो जाओगे, लेकिन दिनेश ने ताने की परवाह किए बगैर बेटियों को पढ़ा-लिखा उस मुकाम तक पहुंचाया जिस पर हर पिता गर्व कर सकता है।
श्री शंकर कॉलेज में छोटी-सी नौकरी करने वाले दिनेश ने बेटियों को आसमान पर पहुंचाने की ठान ली। आज उनकी तीन बेटियां गर्व से भर देती हैं। ताने अब बीते दिनों की बात हो गई है।
बड़ी बेटी अनुपमा सिंह आज बक्सर में वरीय उप समाहर्ता हैं। दूसरे नंबर की बेटी डॉ. पूर्णिमा पीजीआइ चंडीगढ़ से एमएस करने के बाद आगरा में डॉक्टर (सर्जन) है। वहीं छोटी बेटी स्मिता ने पीएमसीएच से एमबीबीएस करने के बाद दिल्ली एम्स से एमएस (सर्जरी) की पढ़ाई पूरी की।
परिस्थितियों से नहीं किया समझौता
इसके लिए दिनेश सिंह को कठिन संघर्ष करना पड़ा। अब वे उन दिनों को याद नहीं कर चाहते। बड़ी बेटी अनुपमा शादी के कुछ माह बाद ही विधवा हो गईं। उस समय वह गर्भवती थीं।
ससुराल वालों ने साथ छोड़ दिया। कुछ माह बाद उन्होंने एक बेटे को जन्म दिया। दो वर्ष तक वह अवसाद में रहीं। ऐसे में पिता उसके सबसे बड़े संरक्षक बने और हौसला बढ़ा। छाया की तरह साथ रहकर अनुपमा को प्रतियोगी परीक्षा के लिए तैयार किया।
अनुपमा दोबारा उठ खड़ी हुई। पिता की मेहनत व बेटी का जुनून आखिरकार रंग लाया। उनका चयन बिहार प्रशासनिक सेवा के लिए एसडीएम पद पर हुआ। बेटी की सफलता ने परिवार में दोबारा खुशियां भर दी। अब बारी थी दूसरी दो बेटियों को मंजिल तक पहुंचाने की। इसमें सबसे बड़ी बाधा पैसे की थी।
बच्चियों को कहीं कोचिंंग नहीं करा सके, लेकिन पूर्णिमा और स्मिता को खुद पढ़कर तैयार होने को कहते थे। मेडिकल परीक्षा में सफलता पाकर पूर्णिमा रिम्स, रांची से एमबीबीएस करने के बाद पीजीआइ चंडीगढ़ से सीनियर रेजीडेंसी कर चुकी हैं। इस समय वह आगरा में डॉक्टर हैं।
छोटी बेटी स्मिता ने पीएमसीएच से एमबीबीएस करने के बाद दिल्ली एम्स से एमएस की पढ़ाई पूरी की। वर्तमान में वह कर्नाटक के बेलगांव में डॉक्टर पति के साथ प्रैक्टिस कर रही हंै।
दहेज के लिए नहीं, पढ़ाई के लिए पैसे बचाए
दिनेश सिंह कहते हैं कि बेटा-बेटी में भेद क्यों? शुरू में जब तीन बेटियां हुईं तो सोचा महंगाई के इस दौर में कैसे गुजारा होगा। फिर हमने संकल्प लिया कि बेटियों को बेटों की तरह ही पढ़ाएंगे। उसमें भी लोगों ने कहा कि ज्यादा पढ़ाने पर शादी के लिए अच्छा लड़का देखना पड़ेगा।
तिलक-दहेज पर ज्यादा खर्च करना पड़ेगा, लेकिन संकल्प पर कोई असर नहीं पड़ा। दिनेश कहते हैं कि जो पैसा लोग बेटी के जेवर व दहेज के लिए बचत करते हैं वे गलती करते हैं। वही पैसा उनकी शिक्षा पर खर्च करना चाहिए। योग्य बनीं, तो बेटियों की शादी के लिए हमें कहीं नहीं जाना पड़ा। लड़के वालों के प्रस्ताव खुद आए। बेटियों की शादी बिना दहेज के हुई।
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