कभी मां के बनाए पापड़ बेचते थे गणितज्ञ आनंद, जानिए कैसे पड़ी 'सुपर 30' की नींव
जेईई एडवांस्ड 2016 के रिजल्ट में इस बार भी पटना के गणितज्ञ आनंद के कोचिंग संस्थान सुपर 30 ने अपना परचम लहराया है। सुपर 30 के तीस में से 28 छात्रों ने जेईई एडवांस में सफलता हासिल की है।

पटना [वेब डेस्क]। जेईई एडवांस्ड 2016 के रिजल्ट में इस बार भी पटना के गणितज्ञ आनंद के कोचिंग संस्थान सुपर 30 ने अपना परचम लहराया है। इस बार भी सुपर 30 के 30 में से 28 छात्रों ने जेईई एडवांस में सफलता हासिल की है।
आनंद ने रिजल्ट के बाद खुशी जाहिर करते हुए कहा कि आज वे बहुत खुश हैं। आज छात्रों ने फिर से साबित कर दिया है कि सफलता के लिए कोई शार्टकर्ट नहीं होता। छात्रों की मेहनत को सुपर 30 में मार्गदर्शन मिला।
कैसे पड़ी सुपर 30 की नींव
आनंद बताते हैं कि उनके पास एक दिन अभिषेक नामक छात्र आया तथा कहा कि वह उनसे पढना चाहता है। अभिषेक ने कहा कि वह इसके बदले 500 रुपए एक साथ नहीं दे पााएगा। फीस वह सालभर में किस्तों में दे देगा। उसने बताया जब उसके किसान पिता खेत से आलू निकालेंगे, बेचेंगे तभी वह पैसे दे पाएगा। अभिषेक ने बताया कि वह एक वकील के घर की सीढ़ियों के नीचे रहता है।
आनंद ने कहा, "जब चार-पांच दिनों बाद अभिषेक द्वारा बताए गए वकील के घर गए तो देखा कि वह भरी दोपहर में सीढ़ियों के नीचे पसीने से तर-बतर हुआ पढ़ रहा था। उसकी लगन और गरीबी को देखकर दिमाग में एेसे छात्रों के लिए कुछ करने का ख्याल आया। इसके बाद ही सुपर 30 की नींव डाली।"
इसके बाद आनंद ने 30 एेसे प्रतिभाशाली गरीब बच्चों को चुना, जिनके पास खाने-पीने के भी पैसे नहीं थे, लेकिन पढने और कुछ कर गुजरने का जुनून था। उन बच्चों के खाने-पीने की व्यवस्था की जिम्मेदारी आनंद की मां ने उठाई। आनंद ने एक मकान किराए पर लिया, जिसमें ये 30 बच्चे रहने लगे।
ये छात्र दिन-रात पढ़ाई करते थे और जुनून की हद तक मेहनत करते थे। आनंद ने दिन-रात एक कर इन छात्रों का मार्गदर्शन किया, सबका हौसला बढाया। आखिर मेहनत रंग लाई और सुपर 30 के सभी बच्चों ने साबित कर दिया कि प्रतिभा किसी की मोहताज नहीं होती। इस तरह धीरे-धीरे सुपर 30 ने अपना एक खास स्थान बना लिया, जो आज तक बरकरार है।
मां के बनाए पापड़ बेचते थे आनंद
पिता की मौत के बाद अपाहिज चाचा और बीमार नानी के साथ पूरे परिवार की जिम्मेदारी आनंद पर आ गई। तब आनंद को लगा कि उनका कैरियर अब खत्म हो गया। उन्होंने पिता की जगह अनुकंपा नियुक्ति पर नौकरी करने से इंकार कर दिया।
पैसे की तंगी के दिनों में आनंद की मां पापड़ बनाकर छत पर सुखाती थीं और आनंद उसे झोले में लेकर साइकिल पर घूमकर बेचते थे। पापड़ की कमाई से ही घर का खर्च चलता था। आनंद का मन हमेशा छटपटाता था कि उन्हें कुछ अलग करना है। साल-दो साल उन्होंने पापड़ बेचा और उसके बाद उन्होंने ठान लिया कि कुछ करना चाहिए।
इंजीनियर बनना चाहते थे आनंद
आनंद बचपन में इंजीनियर बनना चाहते थे। साइंस कॉलेज में पढ़ने के दौरान आनंद ने गणित के दो-तीन फॉर्मूले इजाद किए थे। एक टीचर के कहने पर उन्होंने अपने फॉर्मूले इंग्लैंड के एक जर्नल में छपने के लिए भेजे। जर्नल ने आनंद के फॉर्मूले को पब्लिश किया। इसके बाद आनंद को इंग्लैंड के यूनिवर्सिटी से बुलावा आया, लेकिन यूनिवर्सिटी सिर्फ ट्यूशन फीस माफ कर सकती थी और आनंद उस वक्त इंग्लैंड नहीं जा सके।
पिता की मौत की वजह से इंग्लैंड नहीं जा पाए थे आनंद
आनंद ने बचपन में बहुत गरीबी देखी है। उनके पिता पोस्टल डिपार्टमेंट में लो पेड क्लर्क थे और उनकी आमदनी इतनी सीमित थी कि उनके घर का खर्च चलाना भी मुश्किल होता था। वे अपने बेटे आनंद के इंग्लैंड जाने के लिए प्लेन का किराया भी नहीं दे सकते थे।
लेकिन फिर भी उनके पिता ने कहा था कि बेटा तुम जरूर जाओगे। उन्होंने आनंद के जर्नल्स की कॉपी डिपार्टमेंट के लोगों को दिल्ली भेजी तब वहां से बताया गया हम कुछ मदद करेंगे। आनंद के पिता ने आनंद से कहा था मेरा कोट अलमारी में रखा है, तुम पहनकर जाना और तुम्हारे लिए पैंट सीलवा देंगे। डिपार्टमेंट वाले 50 हजार रुपए देने को तैयार हो गए थे और 1 अक्टूबर 1994 को आनंद को कैम्ब्रिज जाना था। इसके पहले ही 23 अगस्त 1994 को रात 10 बजे उनके पिता का निधन हो गया।

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