खुद की सेना, करेंसी और पासपोर्ट, मगर फिर भी चीन का डर... ताइवान के सामने क्या है असली संकट?
दक्षिण पूर्वी चीन के तट से करीब 100 मील दूर स्थित ताइवान कभी फॉर्मोसा के नाम से जाना जाता था। पहले डच और स्पैनिश फिर जापानियों का इस पर नियंत्रण रहा। लेकिन अंत में माओ की कम्युनिस्ट सेना से हारने वाली रिपब्लिक ऑफ चाइना सरकार के नियंत्रण में आया। आज ताइवान की अपनी खुद की सेना करेंसी और पासपोर्ट है लेकिन चीन इसे अपना हिस्सा बताता है।
डिजिटल डेस्क, नई दिल्ली। अमेरिका के डिपार्टमेंट ऑफ स्टेट ने पिछले हफ्ते अपनी वेबसाइट के ताइवान पेज से उसकी आजादी को सपोर्ट न करने वाले संदर्भ को हटा दिया। इस पर चीन भड़क गया। पिछले हफ्ते ही अमेरिकी सांसदों ने राष्ट्रपति ट्रंप से मांग की थी कि वह एक चीन नीति को छोड़कर स्वतंत्र ताइवान को मान्यता दें।
पिछले साल दिसंबर में अमेरिका ने ताइवान को डिफेंस सपोर्ट पैकेज के तहत 4.85 हजार करोड़ रुपये दिए थे, तब भी चीन ने आंखें तरेर कर अमेरिका को आग से न खेलने की धमकी दे दी थी। दरअसल ताइवान खुद को स्वायत्त राष्ट्र बताता है, जबकि चीन उसे अपना हिस्सा मानता है।
आखिर कैसे चीन और ताइवान के बीच विवाद शुरू हुआ? क्यों ताइवान जैसे एक छोटे-से द्वीपीय देश पर चीन की नजर है और अमेरिका का इसमें क्या रोल है?
ताइवान दक्षिण पूर्वी चीन के तट से करीब 100 मील दूर स्थित एक द्वीप है। वर्ष 1600 के आस-पास इस पर डच और स्पैनिश लोगों का शासन रहा। इसे शुरुआत में फॉर्मोसा के नाम से जाना जाता था। क्विंग राजवंश ने 1684 में ताइवान को फ़ुज़ियान प्रांत के हिस्से के रूप में शामिल किया और 1885 में इसे एक अलग चीनी प्रांत घोषित किया।
लेकिन बाद में जापान के साथ युद्ध में क्विंग राजवंश का पतन हो गया और ताइवान 1895 में जापानी कॉलोनी बन गया। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जापान की हार हुई और उसने ताइवान को रिपब्लिक ऑफ चाइना सरकार के हवाले कर दिया।
माओ ने बनाया पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना
- लेकिन 1949 में माओ के नेतृत्व में कम्युनिस्ट फौज ने पूरे चीन पर कब्जा कर लिया और रिपब्लिक ऑफ चाइना सरकार को भागकर ताइवान जाना पड़ा। इस तरह इस आईलैंड का आधिकारिक नाम रिपब्लिक ऑफ चाइना पड़ा।
- उधर माओ ने पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना की स्थापना की। माओ ने ये भी दावा किया कि ताइवान सहित पूरे चीन पर उसका ही शासन वैध माना जाएगा।
- दशकों से ताइवान पर रिपब्लिक ऑफ चाइना अपना वैध अधिकार बता रहा है, लेकिन 1971 में उसे संयुक्त राष्ट्र संघ से भी बाहर कर दिया गया। फिलहाल बेलीज और तुवालू जैसे केवल 12 छोटे और गरीब विकासशली देश ऐसे हैं, जो ताइवान को मान्यता देते हैं।
ताइवान का अपना पासपोर्ट
ज्यादातर पश्चिमी देश और अमेरिकी सहयोगी रिपब्लिक ऑफ चाइना पासपोर्ट को मान्यता देकर और एक-दूसरे की राजधानियों में वास्तविक दूतावास रखकर ताइवान के साथ घनिष्ठ अनौपचारिक संबंध बनाए रखते हैं। ताइवान के नागरिक अपने देश के पासपोर्ट पर ज्यादातर देशों में यात्रा भी कर सकते हैं।
1979 में ही अमेरिका ने ताइवान के साथ औपचारिक संबंध खत्म कर दिए थे, लेकिन वह उसकी रक्षा के लिए साधन उपलब्ध कराता रहता है। चूंकि अमेरिका वन चाइना पॉलिसी को मानता है, इस कारण वह ताइवान की संप्रभुता पर कोई स्टैंड नहीं ले सकता।
एक देश-दो सिस्टम का चीन ने दिया ऑफर
चीन ने साफ तौर पर कहा है कि वह ताइवान पर नियंत्रण पाने के लिए बल प्रयोग करने से नहीं हिचकेगा। चीन ने ताइवान को हांगकांग की तर्ज पर एक देश-दो सिस्टम का मॉडल भी ऑफर किया था, लेकिन ताइवान की कोई भी राजनीतिक पार्टी इसके समर्थन में नहीं है।
चीन ने 1971 में आए यूनाइटेड नेशन्स के रिजॉल्यूशन का भी हवाला दिया है, जिसमें पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना को ही चीन की वैध सरकार माना गया है। इसी रिजॉल्यूशन के कारण ताइवान के हाथों से यूएन की सीट चली गई और लीगल तौर पर भी उसे चीन का हिस्सा माना जाने लगा।
ताइवान में अभी क्या स्थिति?
दुनिया के ज्यादातर देश भले ही ताइवान को मान्यता नहीं देते हों, लेकिन वह खुद को आजाद मुल्क मानता है। ताइवान के लोग अपनी सरकार चुनते हैं। ताइवान की खुद की मिलिट्री, करेंसी, पासपोर्ट और संविधान है।
एक समस्या ये भी है कि ताइवान भी खुद को रिपब्लिक ऑफ चाइना ही कहलाना पसंद करता है। अगर भविष्य में कभी ताइवान ये नाम बदलकर रिपब्लिक ऑफ ताइवान रखना भी चाहे, तो उसके लिए संविधान संशोधन की जरूरत पड़ेगी और ऐसा करना काफी मुश्किल होगा।
कमेंट्स
सभी कमेंट्स (0)
बातचीत में शामिल हों
कृपया धैर्य रखें।