क्वॉड सम्मेलन के ठीक बाद और यूएन बैठक के दौरान चीन का ICBM परीक्षण, विशेषज्ञों के अनुसार यह अमेरिका को संदेश
ऐसा नहीं कि चीन ने पहले कभी आईसीबीएम का परीक्षण नहीं किया था। उसने सबसे पहले मई 1980 में इसकी टेस्टिंग की थी। उसके बाद भी वह अक्सर इनका परीक्षण करता रहा है लेकिन कभी उसका सार्वजनिक ऐलान नहीं किया। यही नहीं आम तौर पर चीन पश्चिम में अपने जिनजियांग क्षेत्र या बोहाई समुद्र में बैलिस्टिक मिसाइलों का परीक्षण करता है। इस बार उसका ‘टार्गेट’ दक्षिण प्रशांत सागर में था।
एस.के. सिंह, नई दिल्ली। बीते बुधवार की सुबह दुनियाभर के रक्षा विशेषज्ञ उस समय चौंक गए जब चीन ने सार्वजनिक तौर पर कहा कि उसने अंतर-महाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइल (ICBM) का परीक्षण किया है। ऐसा नहीं कि उसने पहले कभी आईसीबीएम का परीक्षण नहीं किया था। उसने सबसे पहले मई 1980 में इसकी टेस्टिंग की थी। उसके बाद भी वह अक्सर इनका परीक्षण करता रहा है, लेकिन कभी उसका सार्वजनिक ऐलान नहीं किया। यही नहीं, आम तौर पर चीन पश्चिम में अपने जिनजियांग क्षेत्र या बोहाई समुद्र में बैलिस्टिक मिसाइलों का परीक्षण करता है। इस बार उसका ‘टार्गेट’ दक्षिण प्रशांत सागर में था।
चीन ने दुनिया को यह नहीं बताया कि उसने मिसाइल कहां से दागी और वह दक्षिण प्रशांत सागर में कहां गिरी। लेकिन रक्षा विशेषज्ञ अनुमान लगा रहे हैं कि उसने हेनान के पास किसी जगह से मिसाइल छोड़ी जो फ्रेंच पॉलिनेशिया द्वीप के आसपास कहीं गिरी। इस द्वीप पर फ्रांस का अधिकार है। चीन ने यह भी स्पष्ट नहीं किया कि यह किस श्रेणी का आईसीबीएम था, लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि यह डीएफ-41 (Dongfeng-41) हो सकता है जिसकी रेंज 12,000 से 15,000 किलोमीटर है। आम तौर पर ICBM की रेंज 5,500 किमी से शुरू होती है और इन पर परमाणु हथियार तैनात किए जा सकते हैं। दुनिया में आईसीबीएम अमेरिका, रूस, चीन, भारत, उत्तर कोरिया, फ्रांस, इंग्लैंड, इजराइल जैसे चुनिंदा देशों के पास ही हैं।
चीन ने मई 1980 में अपने पहले आईसीबीएम डीएफ-5 का परीक्षण भी दक्षिण प्रशांत सागर में ही किया था। उसे उत्तर-पश्चिम क्षेत्र में जिउकुआन सैटेलाइट लांच सेंटर से छोड़ा गया था। उसकी रेंज 8,000 किमी से अधिक थी। एक रिपोर्ट के अनुसार, उस समय चीन के अखबारों में एक मैप प्रकाशित हुआ था। उसमें सोलोमन आइलैंड्स, नौरू, गिल्बर्ट आइलैंड्स, तुवालू, वेस्टर्न समोआ और फिजी को मिसाइल की रेंज में दिखाया गया था।
मिसाइल परीक्षण का समय
सवाल है कि चीन ने आईसीबीएम परीक्षण के लिए यही समय क्यों चुना। चीन की सेना (पीएलए) ने इस परीक्षण से ठीक पहले अपनी दक्षिणी थियेटर कमान के प्रमुख जनरल वू यानान को अमेरिका भेजा था। वे वहां 18 से 20 सितंबर तक थे। वहां उनकी मुलाकात अमेरिका के इंडो-पैसिफिक कमांडर एडमिरल सैमुअल पपारो के अलावा फिलिपींस, सिंगापुर, थाईलैंड समेत कई देशों के अधिकारियों से हुई। माना जा रहा था कि यह दक्षिण चीन सागर में तनाव कम करने के प्रयासों का हिस्सा है।
लेकिन एक सप्ताह में ही ऐसा क्या हो गया? विशेषज्ञ इसकी दो बड़ी वजह मानते हैं। एक तो क्वॉड शिखर सम्मेलन और दूसरा संयुक्त राष्ट्र महासभा की बैठक। क्वॉड सम्मेलन 21 सितंबर को खत्म हुआ। उसके बाद जारी घोषणापत्र पर चीन ने कड़ी प्रतिक्रिया दी। उसने कहा कि बीजिंग को काबू में करने के लिए क्वॉड को एक टूल के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है। खास तौर पर सार्वभौकिता और दक्षिण तथा पूर्वी चीन सागर में मैरीटाइम अधिकारों को लेकर, जिन पर कई देशों के साथ उसके विवाद हैं।
क्वाड ने लोकतंत्र और अंतरराष्ट्रीय लिबरल ऑर्डर की भी बात कही है। ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रोफेसर और चीन मामलों की जानकार डॉ. गुंजन सिंह कहती हैं, “नाम लिए बिना क्वॉड के बयान में जो कहा गया वह स्पष्ट रूप से चीन के लिए है। लोकतंत्र और लिबरल ऑर्डर जैसी बातें चीन के ढांचे में फिट नहीं बैठती हैं। इसलिए चीन नाराज है।”
लेफ्टिनेंट जनरल (रि) मोहन भंडारी क्वॉड के कोण को और विस्तार देते हुए कहते हैं, “कहने को क्वॉड का एक मकसद आर्थिक विकास है, लेकिन वास्तव में यह क्षेत्रीय सुरक्षा पर आधारित है। इस रणनीतिक साझेदारी का मकसद हिंद महासागर में चीन के बढ़ते प्रभुत्व को रोकना भी है। चीन की पनडुब्बियां जब-तब हिंद महासागर क्षेत्र में आती रहती हैं। पूर्वी और पश्चिमी देशों के बीच ज्यादा व्यापार हिंद महासागर के रास्ते ही हो होता है। इसलिए चीन यहां अपना प्रभुत्व बढ़ाना चाहता है। अमेरिका जिस इंडो पेसिफिक कमान की बात कह रहा है, वह पश्चिम में भारत-पाकिस्तान सीमा के नीचे से शुरू होकर हिंद महासागर होते हुए पूरे प्रशांत क्षेत्र तक है। इसलिए इसमें जापान और ऑस्ट्रेलिया भी शामिल हैं।” वे कहते हैं, “जिस देश का हिंद महासागर पर प्रभुत्व होगा उसका प्रभुत्व पूरी दुनिया पर रहेगा। यहां भारत और अमेरिका को साथ देखकर चीन बौखला गया है।”
वैश्विक रिसर्च फर्म नेटिक्सिस में एशिया-प्रशांत मामलों की विशेषज्ञ एलिसिया गार्सिया हेरेरो इसमें यूएन की बैठक और रूस को भी जोड़ती हैं, “मुझे इसमें संदेह नहीं कि चीन ने क्वॉड के जवाब में यह परीक्षण किया है। लेकिन मैं इसे संयुक्त राष्ट्र महासभा की बैठक से भी जोड़ना चाहूंगी। इसी समय यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेन्स्की ने अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन के समर्थन से शांति का प्रस्ताव रखा है। पुतिन की प्रतिक्रिया से लगता है कि वे काफी नर्वस हैं।”
ले. जनरल भंडारी भी कहते हैं, “रूस के साथ चीन की बहुत मित्रता है। रूस की यूक्रेन के साथ लड़ाई चल रही है और अमेरिका यूक्रेन के साथ है जिससे पुतिन काफी नाराज हैं।”
स्ट्रैट न्यूज ग्लोबल में एसोसिएट एडिटर डॉ. रविशंकर एक और अहम बात बताते हैं, “चीन ने यह टेस्टिंग ऐसे समय की है जब उसके और रूस के बीच युद्धाभ्यास चल रहा है।” हालांकि उनका यह भी कहना है कि इतनी लंबी रेंज वाले आईसीबीएम की टेस्टिंग इसी इलाके में हो सकती थी।
बेंगलुरु स्थित रक्षा विश्लेषक गिरीश लिंगन्ना के मुताबिक, “चीन की बढ़ती सैन्य गतिविधियों पर क्वॉड में चर्चा के 72 घंटे के भीतर पीएलए ने मिसाइल परीक्षण किया जिसकी रेंज अमेरिका तक है। यह एक तरह से क्वॉड में शामिल देशों अमेरिका, भारत, जापान और ऑस्ट्रेलिया के बढ़ते प्रभाव को चुनौती है।” क्वॉड बैठक में खास कर साउथ चाइना सी में चीन की बढ़ती सैन्य गतिविधियों और ताइवान के प्रति उसके आक्रामक रवैये पर चिंता जताई गई थी। क्वॉड इंडो-प्रशांत क्षेत्र को मुक्त और खुला रखना चाहता है जो एक तरह से चीन को चुनौती है।
लिंगन्ना के अनुसार, चीन क्वॉड गठबंधन को अपनी ग्रोथ में बाधा के तौर पर भी देखता है। इस मिसाइल परीक्षण को रणनीतिक हितों को मिल रही चुनौती को उसके जवाब के तौर पर भी देखा जा सकता है। इसलिए क्वॉड सदस्यों को चीन के आक्रामक रुख के प्रति सतर्क और साथ रहना होगा। क्वॉड भले ही इंडो-प्रशांत क्षेत्र में शांति चाहता हो, यह स्पष्ट है कि चीन अपने हितों की रक्षा के लिए सैन्य ताकत का इस्तेमाल कर सकता है।
गुंजन कहती हैं, “यह घटना पोश्चरिंग लग रही है क्योंकि चीन के पास आईसीबीएम होने की जानकारी सबको है। क्वॉड के तुरंत बाद और संयुक्त राष्ट्र महासभा की बैठक के बीच उसने यह टेस्ट किया है। यूएन में भी अमेरिका ने सार्वभौकिता, एकता और विकास की बात कही।” इसके अलावा, यह टेस्ट फायरिंग उस जगह से नहीं हुई जहां चीन ने अपने मिसाइल रखे हैं। यह संभवतः पोर्टेबल लांच था। यह भी एक तरह से यह दिखाने की कोशिश थी कि चीन कहीं से भी यह मिसाइल लांच कर सकता है।
ताइवान पर अमेरिका को संदेश देना चाहता है चीन
लेफ्टिनेंट जनरल भंडारी के अनुसार, “ताइवान को लेकर चीन बहुत गंभीर है। चीन अमेरिका को संदेश देना चाहता है कि आप ताइवान से दूर रहें। अमेरिका ने वर्षों पहले एक गलती की थी कि उसने ताइवान को मेनलैंड चीन का हिस्सा स्वीकार कर लिया था। अब वह इसे बदल नहीं सकता है।” वे कहते हैं, अभी यह नहीं मालूम कि चीन ने मिसाइल कहां से दागी। अगर उसने मेनलैंड से दागी है और इसकी रेंज 12 से 13 हजार किलोमीटर है तो इस मिसाइल से चीन मैनलैंड अमेरिका पर हमला कर सकता है।
गुंजन के अनुसार, “जापान, फिलीपींस जैसे देश तो उसकी रेंज में पहले से ही हैं। अब वह यह दिखाना चाहता है कि अमेरिका भी उसकी रेंज में है। चीन ने एक तरह से चेतावनी दी है कि अगर अमेरिका ताइवान विवाद में प्रत्यक्ष रूप से शामिल होता है तो हम भी आप तक पहुंच सकते हैं।”
रविशंकर भी कहते हैं, “एक तरह से चीन बताना चाहता है कि अमेरिका के मेनलैंड तक उसके हथियारों की पहुंच हो गई है। अगर अमेरिका ने ताइवान में हस्तक्षेप किया तो वह उस तक पहुंच सकता है।”
चीन आम तौर पर अपने परीक्षणों का प्रचार नहीं करता है। विशेषज्ञ इस बार रणनीति बदलने का कारण क्वॉड और संयुक्त राष्ट्र महासभा की बैठक के अलावा दक्षिण चीन सागर में तनाव की स्थिति को मानते हैं। जापान ने पिछले महीने भी कहा था कि चीन ने उसके हवाई क्षेत्र का उल्लंघन किया है। चीन ने 2022 में मध्यम दूरी की एक मिसाइल का परीक्षण किया था जो जापान के एसईजेड में गिरा था। तब जापान को उस परीक्षण की जानकारी नहीं थी इसलिए वह युद्ध की तैयारी करने लगा था।
चीन की सबसे एडवांस मिसाइल
लिंगन्ना के अनुसार, डीएफ-41 चीन की सबसे एडवांस मिसाइल है। इसे पहली बार 2017 में लांच किया गया था और रेंज के हिसाब से देखें तो इससे अमेरिका में कहीं भी हमला किया जा सकता है। चीन यह भी दिखाना चाहता है कि वह अपनी सैन्य प्रौद्योगिकी का किस तरह आधुनिकीकरण कर रहा है।
एलिसिया कहती हैं, “चीन बताना चाहता है कि उसकी रॉकेट फोर्स कहां तक वार कर सकती है। एक सैन्य शक्ति के रूप में वह अपनी वैश्विक महत्वाकांक्षा दिखाना चाहता है।” ताइवान, फिलीपींस और जापान के लिए यह चिंता की बात है। यहां तक कि अमेरिका के लिए भी। क्योंकि अमेरिका के तमाम प्रतिबंधों के बावजूद चीन अपनी मारक क्षमता दिखाने में कामयाब रहा है। यह एक तरह से विश्व समुदाय के लिए भी संकेत कह सकते हैं।
उत्तर कोरिया भी इस तरह के टेस्ट लगातार करता रहता है, लेकिन उसके टेस्ट वर्टिकल ज्यादा होते हैं। यानी मिसाइल जमीन की सतह पर अधिक दूर न जाकर आसमान की तरफ जाते हैं और जहां से छोड़े जाते हैं वहीं से कुछ दूरी पर वापस गिरते हैं।
गुंजन के अनुसार, चीन भी पहले लंबी दूरी की मिसाइल की टेस्टिंग अपने पश्चिमी इलाकों में करता रहा है। चीन के पूर्वी क्षेत्र से पश्चिम क्षेत्र तक इतनी दूरी है (सतह पर 5,250 किलोमीटर) कि लंबी दूरी की मिसाइल की टेस्टिंग की जा सके। तो इस तरह सतह पर अमेरिका की तरफ इतनी दूरी तक मिसाइल टेस्ट करने की जरूरत क्या थी। जाहिर है कि वह स्पष्ट संदेश देना चाहता था।
न्यूजीलैंड और ऑस्ट्रेलिया ने इस परीक्षण पर चिंता जताई है। उन्हें डर है कि चीन उन पर भी हमला कर सकता है। प्रशांत महासागर में फ्रेंच पॉलिनेशिया नाम की जिस जगह पर चीन की मिसाइल गिरने की बात बताई जा रही है, वह इन दोनों देशों के करीब है। पिछले कुछ समय से चीन और ऑस्ट्रेलिया के बीच संबंधों में भी खटास है। क्वॉड में ऑस्ट्रेलिया भी महत्वपूर्ण साझेदार है। इसलिए चीन का यह परीक्षण अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, जापान को सीधा संकेत है। चीन बार-बार कहता रहा है कि दक्षिण चीन सागर में बाहरी देशों को नहीं आना चाहिए। यहां बाहरी देश अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया ही हैं।
अमेरिका और रूस के बीच थी संधि
इसी साल अप्रैल में फिलीपींस के साथ युद्धाभ्यास में अमेरिका ने मध्यम दूरी तक मार करने वाली मिसाइलों का इस्तेमाल किया था। 1987 में अमेरिका और तत्कालीन सोवियत संघ के बीच हुई इंटरमीडिएट रेंज न्यूक्लियर फोर्स (INF) संधि के बाद पहली बार यहां इन मिसाइलों का प्रयोग हुआ था। उस संधि में 500 से 5500 किमी तक की रेंज वाली मिसाइलें इस्तेमाल न करने पर सहमति बनी थी। वर्ष 2019 में यह कहते हुए अमेरिका इस संधि से अलग हो गया कि रूस ने इसका उल्लंघन किया है और चीन भी अपनी रॉकेट फोर्स का विस्तार कर रहा है।
इसलिए ले. जनरल भंडारी कहते हैं, “मेरे विचार से इस मिसाइल परीक्षण के पीछे बदलती भू-राजनीतिक परिस्थितियां हैं। इसके अलावा, पिछले कुछ समय में चीन की साख कम हुई, जिसे अब वह सुधारने में लगा है।” अभी चीन के पास करीब 700 न्यूक्लियर वारहेड हैं और दो-तीन साल में उसके पास 1000 से अधिक न्यूक्लियर वारहेड हो जाएंगे। चीन ने इस मिसाइल टेस्टिंग में डमी वारहेड लगाने की बात कही है।
चीन की आर्थिक हालत पहले से कमजोर हुई है। चीन की सेना (पीएलए) की रॉकेट फोर्स में भ्रष्टाचार के कई मामले सामने आए हैं। राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने वहां से काफी लोगों को हटाया है। पिछले साल दिसंबर में रक्षा मंत्री तक को बदला। नए रक्षा मंत्री पहले चीन की दक्षिण नौसेना कमान में थे।
हालांकि गुंजन के अनुसार, “मुझे लगता है कि भ्रष्टाचार जैसे मामले में चीन को इस तरह खुला परीक्षण करने की जरूरत नहीं थी, उसे घरेलू स्तर पर भी निपटा जा सकता था। चीन ने यह ओपन टेस्टिंग की है। इसलिए रॉकेट फोर्स में भ्रष्टाचार का मसला यहां प्रमुख कारण नहीं दिखता है।”
चीन ने अमेरिका को दी थी परीक्षण की जानकारी
अमेरिका ने कहा है कि इस टेस्ट के बारे में चीन ने उसे सूचना दी थी। जापान ने कहा है कि उन्हें इतना बताया गया था कि अंतरिक्ष से कोई मलबा गिर सकता है, लेकिन आईसीबीएम के बारे में कुछ नहीं बताया गया। न्यूजीलैंड और ऑस्ट्रेलिया को कुछ सूचना तो दी गई थी, लेकिन क्या है यह उन्हें भी स्पष्ट नहीं था। ले. जनरल भंडारी के अनुसार, “जिस तरह अमेरिका ने स्वीकार किया है कि उसे उसकी जानकारी दी गई थी, मेरा मानना है कि उसने अपने सैटेलाइट से उस पर नजर जरूर रखी होगी।” रविशंकर कहते हैं, “अमेरिका को चीन ने इसलिए बताया ताकि किसी तरह की गलतफहमी न हो।”
लेकिन रविशंकर एक और रोचक बात बताते हैं, “चीन ने बुधवार को जैसे ही मिसाइल टेस्टिंग की सूचना दी, अगले ही दिन अमेरिका ने चीन की परमाणु पनडुब्बी डूबने की सूचना सार्वजनिक कर दी। हालांकि वह पनडुब्बी काफी पहले डूबी थी। चीन एक तरह से अपनी काबिलियत पूरी दुनिया को दिखाना चाह रहा था। लेकिन पनडुब्बी डूबने की खबर लीक कर अमेरिका ने उस नैरेटिव को कम करने की कोशिश की है।” दरअसल, गुरुवार को अमेरिकी सेना के एक वरिष्ठ अधिकारी के हवाले से खबर आई कि चीन का एक परमाणु शक्ति वाला पनडुब्बी जहाज मई-जून में डूब गया था।
पिछले साल अक्टूबर में अमेरिकी रक्षा मंत्रालय पेंटागन ने एक रिपोर्ट में कहा था कि पीएलए रॉकेट फोर्स अपनी रणनीतिक क्षमता बढ़ाने के लिए तेजी से आधुनिकीकरण कर रही है। इसमें नए आईसीबीएम की तैनाती भी शामिल है। उस रिपोर्ट के अनुसार 2022 में डीएफ-31 और डीएफ-41 समेत चीन के पास 350 आईसीबीएम थे। इसके अलावा चीन तीन साइलो का भी निर्माण कर रहा था। पेंटागन के अनुसार 2022 में चीन के पास परमाणु शक्ति और बैलिस्टिक मिसाइल युक्त छह पनडुब्बियां और छह परमाणु शक्ति संपन्न अटैक पनडुब्बियां थीं। चीन के पास इस समय दुनिया की सबसे बड़ी नौसेना है। उसके पास 370 से ज्यादा जहाज हैं।
भारत के लिए भी महत्वपूर्ण
ले. जनरल भंडारी भारत के लिहाज से भी इस घटना को महत्वपूर्ण मानते हैं। वे कहते हैं, गलवान में झड़प के बाद लद्दाख में हमारे और चीन के 65,000 सिपाही तैनात हैं। इस तरह देखें तो दक्षिण एशिया में भी स्थिति अच्छी नहीं कहीं जा सकती है। मध्य पूर्व में हालात पहले ही बिगड़े हुए हैं जो कभी भी बड़े युद्ध का रूप ले सकते हैं। श्रीलंका और बांग्लादेश में हालात फिलहाल भारत के पक्ष में नहीं लग रहे हैं। इसलिए भारत को सचेत रहना होगा। यह हमारी डिप्लोमेसी का टेस्ट है। जब तक डिप्लोमेसी चलती है तब तक लड़ाई नहीं होती, डिप्लोमेसी नाकाम होते ही लड़ाई शुरू हो जाती है।
ग्रे-वार टैक्टिक्स
चीन ने यह परीक्षण ऐसे समय किया है जब एशिया-प्रशांत क्षेत्र में मिसाइल से जुड़ी गतिविधियां काफी बढ़ गई हैं। इसी महीने उत्तर कोरिया ने कम दूरी की कई बैलिस्टिक मिसाइलों का परीक्षण किया। वे मिसाइलें सी ऑफ जापान और ईस्ट सी के ऊपर से गई थीं। दूसरी ओर, दक्षिण चीन सागर क्षेत्र में तनाव काफी बढ़ गया है। पड़ोसी देशों के साथ चीन की समस्याएं हैं। चाहे वह फिलीपींस हो, जापान हो या कोई और देश।
गुंजन कहती हैं, “मिसाइल का इस तरह इस्तेमाल पश्चिम एशिया में तो यह बहुत पुराना है, लेकिन दक्षिण चीन सागर क्षेत्र में यह नया है। यह सही है कि परमाणु हथियार प्रतिरोध का काम करता है, परमाणु हथियार संपन्न देश पर हमला करने से पहले कोई भी सोचेगा। लेकिन मिसाइल के जरिए इस तरह सभी देश एक दूसरे को परखने की कोशिश कर रहे हैं कि कौन कहां तक सह सकता है, किसकी कितनी क्षमता है आदि। चीन एक तरह से इसमें महारत हासिल कर चुका है। स्पाई बैलून की घटना को भी इसी से जोड़कर देखा जा सकता है।”
चीन का यूरोप या इंग्लैंड के साथ फिलहाल कोई सैन्य तनाव नहीं है। इसलिए यह तो साफ है कि वह अमेरिका को अपनी क्षमता दिखाना चाहता था। जापान, फिलीपींस जैसे पड़ोसी देशों के साथ चीन के सीमा विवाद हैं, लेकिन विश्व स्तर पर वह अमेरिका को ही अपना प्रतिद्वंद्वी मानता है।
डॉ. रविशंकर के मुताबिक, “एक बहुत ही खतरनाक ट्रेंड शुरू हुआ है। रूस भी मिसाइल हमले की बात कह रहा है। चीन उसके साथ है। यूक्रेन के खिलाफ युद्ध में चीन रूस की मदद कर रहा है। रूस को उत्तर कोरिया से भी मदद मिल रही है और उत्तर कोरिया को चीन से सप्लाई होती है। चीन का यह परीक्षण एक तरह से विश्व व्यवस्था में पश्चिम के प्रभुत्व को कम करने की कवायद है।”