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    80 वर्ष की उम्र में भी हुनर को उकेर रहे हैं रामकृष्ण, मूर्ति-काष्ठ कला के साथ ही चित्रकारी में हैं उस्ताद

    By Raksha PanthariEdited By:
    Updated: Sat, 28 Nov 2020 01:20 PM (IST)

    नौगांव विकासखंड स्थित सरनौल गांव निवासी सेवानिवृत्त शिक्षक रामकृष्ण रावत 80 वर्ष की उम्र में आज भी अपने हुनर को उकेर रहे हैं। रामकृष्ण रावत मूर्ति कला काष्ठ कला और चित्रकारी के पारखी हैं। इसके अलावा इनकी रवांई संस्कृति में रूचि के साथ कई रंगमंच की यादें जुड़ी हैं।

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    80 वर्ष की उम्र में भी हुनर को उकेर रहे हैं रामकृष्ण। जागरण

    नौगांव(उत्तरकाशी), तिलक चंद रमोला। उत्तरकाशी जिले के नौगांव विकासखंड स्थित सरनौल गांव निवासी सेवानिवृत्त शिक्षक रामकृष्ण रावत 80 वर्ष की उम्र में आज भी अपने हुनर को उकेर रहे हैं। रामकृष्ण रावत मूर्ति कला, काष्ठ कला और चित्रकारी के पारखी हैं। इसके अलावा इनकी रवांई संस्कृति में रूचि के साथ कई रंगमंच की यादें जुड़ी हैं।

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    यह उनके हुनर का कमाल है और आज भी क्षेत्र के कई दूर-दराज के राजमिस्त्री भी इनसे मिलकर काष्ठ कला की बारीकियों को सीखते हैं। इन दिनों वे सरनौल में निर्माणाधीन शिवमंदिर में लगने वाली शिला पर शिवलिंग पिंडी को तैयार कर रहे हैं। इसके लिए वे हर रोज तीन से चार घंटे काम करते हैं। वे बताते हैं कि सरनौल क्षेत्र के अधिकांश मंदिरों के ऊपर जो बाघ, बकरी की मूर्ति है उसे उन्होंने ही उकेरा है। 

    रामकृष्ण को लकड़ी और पत्थरों को तराशने की इस कला से इतना प्यार है कि उन्होंने अपने घर पर पत्थर चक्र शिला, बच्चों के काष्ठ खिलौने खुद तैयार किए हैं। मां रेणुका मंदिर सरनोल मंदिर में उकेरी गई काष्ठ कला की बाघ और बकरी की मूर्ति भी रामकृष्ण ने बनाई है। सरनौल गांव निवासी शिक्षक ध्यान सिंह रावत बताते हैं कि वर्ष 2011 में तत्कालीन मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल को सरनौल गांव मंदिर की मूर्ति बनाकर भेंट की गई थी। उस मूर्ति को तैयार करने में रामकृष्ण का महत्वपूर्ण योगदान रहा। 

    इसके अलावा यह सरनौल का प्रसिद्ध पांडव नृत्य में घोड़ी नृत्य में भी बड़े कलाकार के रूप में रामकृष्ण ने प्रतिभाग किया है। रवांई घाटी के पुराने परंपरागत घरों में लकड़ी पर हुई नक्काशी को ही भी रामकृष्ण रावत ने ही पुनर्जीवित किया है। रामकृष्ण रावत बताते हैं कि शिक्षा विभाग में ड्यूटी के बाद वे काष्ठ कला के काम में जुट जाते थे। 80 वर्ष की अवस्था में उनका दिन तब बीतता है, जब उनके हाथ में हथौड़ी और छेनी होती है। वे कहते हैं कि धीरे-धीरे उत्तराखंड की काष्ठ कला समाप्त हो रही है। साथ ही नई पीढ़ी भी इसमें रुचि नहीं दिखा रही है। इसलिए इस कला का संरक्षण किया जाना चाहिए।

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