Trending

    Move to Jagran APP
    pixelcheck

    यहां दैवीय नहीं, मानवजनित आपदा से बरपा कहर; आज भी दर्जनों गावों पर खतरा

    By Raksha PanthariEdited By:
    Updated: Sun, 22 Sep 2019 03:02 PM (IST)

    आराकोट क्षेत्र की त्रासदी के लिए भले ही प्राकृतिक कारणों को जिम्मेदार ठहरा लें लेकिन हकीकत यही है कि आपदा की वजह मानवीय क्रियाकलाप ही बने।

    यहां दैवीय नहीं, मानवजनित आपदा से बरपा कहर; आज भी दर्जनों गावों पर खतरा

    उत्तरकाशी, शैलेंद्र गोदियाल। उत्तरकाशी जिले के आराकोट क्षेत्र की त्रासदी के लिए भले ही प्राकृतिक कारणों को जिम्मेदार ठहरा लें, लेकिन हकीकत यही है कि आपदा की वजह मानवीय क्रियाकलाप ही बने। दर्जनभर गांवों के सामने तो अभी तक खतरा मंडरा रहा है। इसका मूल कारण है आराकोट क्षेत्र में नाप भूमि और बेनाप भूमि से जंगलों का बड़े स्तर पर सफाया होना। स्थानीय लोगों की चिंताएं, प्रशासन के आंकड़े और वैज्ञानिक निष्कर्ष भी इसी ओर इशारा कर रहे हैं। हाल ही में प्रशासन की ओर से किए गए सर्वे में सामने आया कि 133.78 हेक्टेयर बेनाप भूमि (सिविल व वन भूमि) से काश्तकारों के 83 हजार से अधिक सेब के पेड़ नष्ट हुए। जबकि, नाप भूमि की क्षति का क्षेत्रफल 79.51 हेक्टेयर है। यह रिपोर्ट जिला प्रशासन ने शासन को भी भेजी है। 

    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

    आराकोट क्षेत्र हिमाचल प्रदेश की सीमा से लगा हुआ है, जिस कारण हिमाचली संस्कृति एवं सभ्यता के साथ इस क्षेत्र में खेती-किसानी के तौर-तरीके भी समान हैं। हिमाचल की तरह ही आराकोट में सेब उत्पादन आजीविका का मुख्य जरिया है। वर्ष 1975 के बाद यहां के लोगों ने सेब को व्यवसाय से जोड़ा, जिससे आराकोट में सेब के बागीचे बढ़ते चले गए। अति लालच में कुछ लोगों ने सिविल भूमि और वन भूमि से हरे-भरे कैल, मोरू, बांज व देवदार के जंगलों को काटकर सेब के बागीचे लगा डाले। शायद इन्हें इस बात का इल्म भी न रहा होगा कि सेब के लालच में वे अपनी जिंदगी को दांव पर लगा रहे हैं। लेकिन, हुआ वही। भूमि के उपयोग में परिवर्तन के कारण मिट्टी की पकड़ कमजोर हो गई। बारिश होने के दौरान उन-उन क्षेत्रों से ही भूमि कटाव और भूस्खलन हुआ, जहां जंगल काटकर सेब के बागीचे लगाए हुए थे। 

    डगोली गांव निवासी 75-वर्षीय श्यामानंद नौटियाल और माकुड़ी गांव निवासी 62-वर्षीय एमएस रावत स्वीकारते हैं कि 18 अगस्त को जो आपदा आई है, उसके जिम्मेदार वे लोग हैं, जिन्होंने जंगल काटकर बागीचे बनाए। वे कहते हैं कि जंगलों का कटान और वन भूमि पर कब्जों को रोकने का कार्य विभागों का भी है। अब अगर समय पर नहीं चेते तो आगे और बड़ी आपदा आने की आशंका है। वन विभाग और प्रशासन को समय रहते मिश्रित वन का रोपण करना चाहिए। ताकि गांव और वन भूमि भी सुरक्षित रहे। 

    मिट्टी की पकड़ क्षमता होती है कम 

    रामचंद्र उनियाल राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय उत्तरकाशी में वनस्पति विज्ञान के प्रोफेसर महेंद्रपाल परमार कहते हैं कि सेब के पेड़ों की जड़ मूसला होती है। जो चार से छह फीट ही जमीन के अंदर तक जाती है। जबकि, देवदार, कैल, मोरू आदि पेड़ों की जड़ें एक किमी गहराई तक जाती हैं और चारों ओर फैलती हैं। वे कहते हैं कि सेब की बागवानी में कई तरह के रसायनिक दवाइयों का छिड़काव होता है। इन तमाम कारणों के चलते ही मिट्टी की पकड़ क्षमता कम हो जाती है। 

    टौस वन प्रभाग के प्रभागीय वनाधिकारी आरपी मिश्रा ने बताया कि आराकोट क्षेत्र में जो आपदा आई है वह मानवजनित है। भूस्खलन भी सेब के बागीचों से शुरू हुआ। जिससे निचले इलाके के जंगल आदि को भी नुकसान पहुंचा। जहां तक वन भूमि के जंगलों को काटकर बागीचे लगाने की बात है, तो इस संबंध में मेरे पास कोई जानकारी नहीं है। 

    यह भी पढ़ें: आपदा से उपजी दुश्वारियों के बीच जीवन की तलाश, पढ़िए पूरी खबर

    भूस्खलन के मानवजनित कारण 

    -ढलान के परिमाण में परिवर्तन 

    -भूमि उपयोग में परिवर्तन 

    -जंगलों का कटान 

    -तीव्र ढालों पर कृषि कार्य 

    -तीव्र ढालों पर मकान, इमारत और सड़कों का निर्माण 

    -अव्यवस्थित खनन 

    -जंगल की आग 

    -जल की सही निकासी न होना 

    यह भी पढ़ें: आराकोट की त्रासदी: जमीन बची न घर, कैसे होगी जिंदगी बसर, पढ़ि‍ए पूरी खबर