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अपनों की फिक्र ने इस महिला को बनाया आयरन लेडी, जानिए इसकी कहानी

टिहरी जिले के भिलंगना ब्लॉक स्थित जाख गांव की इस महिला की पहचान आयरन लेडी के रूप में है। इसने पिता की मौत के बाद परिवार के भरण-पोषण की जिम्‍मेदारी खुद संभाली।

By Sunil NegiEdited By: Published: Sat, 13 Oct 2018 11:36 AM (IST)Updated: Sat, 13 Oct 2018 02:46 PM (IST)
अपनों की फिक्र ने इस महिला को बनाया आयरन लेडी, जानिए इसकी कहानी
अपनों की फिक्र ने इस महिला को बनाया आयरन लेडी, जानिए इसकी कहानी

घनसाली, टिहरी [दीपक श्रीयाल]: पिता की मौत के बाद परिवार के भरण-पोषण की चिंता ने टिहरी जिले के भिलंगना ब्लॉक स्थित जाख गांव की मंजू भंडारी को इतनी हिम्मत दी कि उन्होंने खच्चर से माल ढुलान को ही अपना पेशा बना दिया। इसके बाद मंजू ने अपनी तीन बहनों व भाई को पढ़ाया-लिखाया और उनकी शादी भी की। आज भी मंजू शान से अपने पांच खच्चरों में ढुलान का काम कर क्षेत्र की महिलाओं के लिए प्रेरणा बनी हुई हैं। 

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मंजू की कहानी बिल्कुल फिल्मी कहानी जैसी है। वर्ष 1998 में पिता गंगा सिंह भंडारी की मौत के बाद पांच भाई-बहनों के लालन-पालन और उनकी पढ़ाई की जिम्मा मंजू पर आ गया। तब वह 18 साल की थीं। मां लक्ष्मी देवी भी पिता की मौत के बाद टूट-सी गई थी, लेकिन मंजू ने उन्हें संभाला और कॉलेज जाने के बजाय अन्य महिलाओं की तरह गांव में ही मजदूरी करने लगी। लेकिन, इतने भर से परिवार की गुजर-बसर मुश्किल हो रही थी, सो उन्होंने कुछ और करने की ठानी। 

मंजू ने देखा कि गांव के पुरुष खच्चरों से माल ढुलान कर अच्छी-खासी कमाई कर रहे हैं। लिहाजा, उन्होंने भी पुरुषों के वर्चस्व वाले इस कठिन काम को करने की ठान ली। जैसे-तैसे कुछ रुपयों का प्रबंध कर उन्होंने वर्ष 2002 में दो घोड़े खरीदे और ढुलान से हुई कमाई से वर्ष 2004 में बड़ी बहन संजू की शादी कर दी। इसके बाद मंजू ने घोड़े बेचकर खच्चर खरीदे और ढुलान के काम को ही अपना पेशा बना दिया।

दूसरी बहन रजनी को 12वीं तक की पढ़ाई कराने के बाद वर्ष 2009 में मंजू ने उसकी भी शादी करा दी। चार साल बाद वर्ष 2013 में तीसरी बहन अंजना के हाथ पीले करने के बाद उन्होंने अपना पूरा ध्यान परिवार पर ही लगा दिया। 

38-वर्षीय मंजू के जज्बे से अब उनका परिवार खुशहाल है। भाई भी पढ़ाई कर रहा है। मंजू के पास पांच खच्चर और एक कार हैं। साथ ही गांव में उनकी दुकान भी ठीकठाक चल रही है। हालांकि, उन्होंने स्वयं शादी नहीं की है। कहती हैं, 'कोई भी काम छोटा नहीं होता और न ही महिलाएं पुरुषों से किसी मायने में कम हैं। मैं आज भी खच्चरों के खुर खुद बदलती हूं और माल भी खुद ही लोड करती हूं।'

इस महिला ने ढोल बजाकर दी पुरुष वर्चस्व को चुनौती, हासिल किया यह गौरव

महिलाएं अब घर की चहारदीवारी में कैद नहीं हैं। वह हर क्षेत्र में बढ़-चढ़कर भागीदारी कर रही हैं। कई मामलों में तो वह पुरुषों के वर्चस्व को भी चुनौती दे रही हैं। ऐसी ही एक महिला हैं, टिहरी जिले के जौनपुर प्रखंड के हटवाल गांव की 30-वर्षीय उषा देवी। उन्होंने ढोल वादन कर जहां पीढ़ियों से चली आ रही परंपरा को तोड़ा है, वहीं क्षेत्र की इकलौती महिला ढोलवादक बनने का गौरव भी हासिल किया है। उषा को जागर गायन में भी महारथ हासिल है।

एक दशक पूर्व की बात है। उषा देवी तब गांव की महिला मंडली के साथ भजन-कीर्तन के कार्यक्रमों में भाग लिया करती थीं। इस दौरान वह भजन गाने के साथ ढोलक भी बजाया करती थीं। बाद में उन्होंने तबले पर भी हाथ आजमाना शुरू दिया और कुछ ही दिनों में तबला वादन में भी पारंगत हो गईं। एक दिन उषा के मन में विचार आया कि जब वह ढोलक व तबला बजा सकती हैं तो ढोल क्यों नहीं। बस! फिर क्या था, वह घर पर ही ढोल बजाने का अभ्यास करने लगीं। कोशिश रंग लाई और आज वह ढोल के विभिन्न ताल बड़ी सहजता से बजा लेती हैं। 

इसके अलावा धौंसी और डमरू वादन पर भी उनका पूरा अधिकार है। वर्तमान में उन्हें शादी-समारोह के साथ ही नवरात्र, हरियाली व विभिन्न सांस्कृतिक आयोजनों में भी ढोल वादन के लिए बुलाया जाता है। उषा के तीन बच्चे हैं, जिन्हें वह पढ़ाई के साथ ढोल वादन की बारीकियां भी सिखा रही हैं। खास बात यह कि उषा चूल्हा-चौके का काम करने के साथ ही खेती-बाड़ी भी करती हैं। कहती हैं, ढोलवादन उनके परिवार का पारंपरिक व्यवसाय है, लेकिन अब तक महिलाएं इससे दूर ही रहती थीं। उन्होंने इस मिथक को तोड़कर अन्य महिलाओं के लिए भी संभावनाओं के द्वार खोले हैं।

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