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दरमोला गांव में एकादशी पर्व पर है पांडव नृत्य की परंपरा, नई पीढ़ी भी हो रही रूबरू

दरमोला भरदार एक ऐसा गांव है जहां हर साल एकादशी पर्व से पांडव नृत्य की शुरुआत होती है। स्थानीय ग्रामीणों ने सदियों से चली आ रही इस अनूठी परंपरा को बरकरार रखा है।

By Raksha PanthariEdited By: Published: Fri, 08 Nov 2019 02:31 PM (IST)Updated: Fri, 08 Nov 2019 02:32 PM (IST)
दरमोला गांव में एकादशी पर्व पर है पांडव नृत्य की परंपरा, नई पीढ़ी भी हो रही रूबरू
दरमोला गांव में एकादशी पर्व पर है पांडव नृत्य की परंपरा, नई पीढ़ी भी हो रही रूबरू

रुद्रप्रयाग, जेएनएन। वैसे तो केदारघाटी के लगभग हर गांव में पांडव नृत्य की पौराणिक परंपरा है, लेकिन दरमोला भरदार एक ऐसा गांव है जहां हर साल एकादशी पर्व से पांडव नृत्य की शुरुआत होती है। स्थानीय ग्रामीण सदियों से चली आ रही इस अनूठी परंपरा को बरकरार रखने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। गांव में प्रतिवर्ष एकादशी पर्व पर देव निशानों और पांडवों के अस्त्र-शस्त्रों को गंगा स्नान के साथ ही पांडव नृत्य का आगाज होता है। एकादशी पर्व को इसलिए शुभ माना गया है क्योंकि इस दिन भगवान नारायण और तुलसी विवाह संपन्न हुआ था। पांडव काल का स्कंद पुराण के केदारखंड में पूरा वर्णन मिलता है। एक ओर जहां ग्रामीण अपनी अटूट आस्था के साथ संस्कृति को बचा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर आने वाली पीढ़ी भी इससे रूबरू हो रही है।

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गढ़वाल मंडल में प्रत्येक वर्ष नवंबर से लेकर फरवरी माह तक पूरी आस्था के साथ पाण्डव नृत्य का आयोजन किया जाता है। प्रत्येक गांवों में पांडव नृत्य के आयोजन की अलग-अलग रीति-रिवाज और पौराणिक मान्यताएं हैं। कहीं दो तो कहीं पांच वर्षों के बाद पांडव नृत्य का आयोजन होता है, लेकिन भरदार क्षेत्र के ग्राम पंचायत दरमोला एकमात्र ऐसा गांव है, जहां प्रत्येक वर्ष एकादशी पर्व पर देव निशानों के मंदाकिनी व अलकनंदा के तट पर गंगा स्नान के साथ पांडव नृत्य शुरू करने परंपरा आज भी है। इस गांव में यह परंपरा सदियों पूर्व से चली आ रही है। 

एकादशी की पूर्व संध्या पर दरमोला और स्वीली, सेम के ग्रामीण भगवान बद्रीविशाल, लक्ष्मीनारायण, शंकरनाथ, नागराजा, चांमुडा देवी, हीत भैरवनाथ समेत कई देवताओं के नेजा-निशान और गाजे बाजों के साथ अलकनंदा मंदाकिनी के संगम तट पर पहुंचते हैं। यहां पर रात्रि को जागरण और देव निशानों की चार पहर की पूजा अर्चना की जाती है। साथ ही एकादशी पर्व पर तड़के सभी देव निशानों और बाणों को गंगा स्नान कराने के बाद उनका श्रृंगार किया जाता है। फिर पुजारी और अन्य ब्राह्मणों के वैदिक मंत्रोच्चारण के बाद देव निशानों की विशेष पूजा-अर्चना, हवन और आरती की जाती है। इस दौरान संगम तट पर दूर दराज क्षेत्रों से देव दर्शनों को पहुंचे भक्तों को देवता अपना आशीर्वाद भी देते हैं। 

इसके बाद देव निशानों को गांव में ले जाकर इसी दिन यहां पांडव नृत्य का आयोजन शुरू किया जाता है। पौराणिक परंपराओं के अनुसार पांडवों ने मोक्ष प्राप्ति के लिए स्वर्गारोहण के समय अपने अस्त्र-शस्त्र केदारघाटी में छोड़ दिए थे, तब से लेकर आज भी विभिन्न स्थानों पर इनकी पूजा होती चली आ रही है। मान्यता है कि एकादशी के भगवान विष्णु ने पांच महीनों की निद्रा से जागकर तुलसी के साथ विवाह किया था। यह दिन देव निशान के गंगा स्नान और पांडव नृत्य शुरू करने के लिए शुभ माना गया है। बताया जाता है कि यदि इस दिन देव निशानों को गंगा स्नान के लिए नहीं लाया जाता है, तो गांव में अवश्य कुछ न कुछ अनहोनी अवश्य होती है। इसलिए ग्रामीण इस दिन को कभी नहीं भूलते हैं।

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पांडव नृत्य समिति ग्राम पंचायत दरमोला के पुजारी कीर्तिराम डिमरी ने बताया कि भरदार क्षेत्र के दरमोला में पांडव नृत्य के आयोजन की सदियों से चली आ रही परंपरा आज भी कायम है। यहां एकादशी पर्व हमेशा से देव निशानों को गंगा स्नान कराया जाता है। इसके बाद ही गांव में पांडव नृत्य की शुरुआत की जाती है। ऐसे पौराणिक संस्कृति को बचाने के लिए सभी को आगे की जरुरत है। इससे भावी पीढ़ी भी रूबरू हो सके।

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