12 साल बाद गर्भगृह से बाहर निकल भक्तों को आशीर्वाद देगी मां उमा
भारतवर्ष में रुद्रप्रयाग जनपद में स्थित यह एकमात्र उमा देवी मंदिर श्रद्धालुओं की आस्था का प्रतीक है। 12 वर्ष के बाद देवी के गर्भगृह से बाहर निकालने का मुहूर्त आया है।
कर्णप्रयाग, [कालिका प्रसाद]: पुरातत्व सर्वेक्षण में अलकनंदा व पिंडर नदियों के संगम पर 18वीं सदी में स्थापित उमा माहेश्वर मंदिर के गर्भगृह में प्रस्तर प्रतिमाएं 12वीं से 13वीं सदी की मानी गयी है, साथ ही मूर्तियों के दर्शन मात्र को ही मोक्षदायिनी माना जाता है, और भारतवर्ष में रुद्रप्रयाग जनपद में स्थित यह एकमात्र उमा देवी मंदिर श्रद्धालुओं की आस्था का प्रतीक है।
हर वर्ष नवरात्र में देवीपाठ व हवन यज्ञ में आहूति से मनोकामना पूर्ण होती हैं और 12 वर्ष बाद देवी की ध्याण यात्रा परंपरा के अनुसार देवी के ससुराल पक्ष कपीरीवासी व डिम्मर मायका पक्ष द्वारा निकाली जाती है, इस बार गर्भगृह से देवी की पूजा विधान के बाद पदयात्रा कार्यक्रम का आगाज होगा।
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मंदिर के ऐतिहासिक तथ्यों पर यात्रा समिति अध्यक्ष नरेन्द्र सिंह भंडारी बताते हैं कभी स्कंदप्रयाग उमाप्रयाग नाम से विख्यात इस तीर्थस्थल के बारे में मान्यता है कि दानवीर कर्ण ने यहां फलत: वर्तमान में कर्णप्रयाग नाम दिया गया लेकिन आध्यात्मिक रूप से इस स्थान का महत्व उमा माहेश्वर मंदिर से जुडा है।
संगम के उत्तरी भाग में स्थित मंदिर के उर्ध्वछंद्र में वेदीवंद, खुर तथा कपोलपट्टी युक्त त्रिरथ रेखा शिखर नागरशैली में निर्मित है, जिसका कर्णभाग दो-दो अमलकों में विभक्त है, शीर्ष आमक व कलश काष्ठछत्र से आच्छादित है तथा अंतराल के उपर बनी शुभनासिका सादी है।
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गर्भगृह में स्थानक समपाद मुद्रा में जटामुकुट अर्धचंद्र उर्ध्वेग, वृतकुंडल, ग्रेवयेक, केयूर यज्ञोपवीत तथा कटिसूत्र में आभूषित शिवमूर्ति स्थापित है। दायें हाथ में यक्षमाला व बाएं में त्रिशूल धारण किये इस भव्य प्रस्तर प्रतिमा के दक्षिणी छोर में द्विभंग मुद्रा में कपाल पात्र व खडवांगण लिए भैरव निरूपित है।
पार्श्व में नंदी शिव की ओर अभिमुख हैं। इसके साथ ही हरे प्रस्तर की समभंग मुद्रा में निरूपित द्विभुजी उमा प्रतिमा हैं। परिधान में सुसज्जित इस मूर्ति के दोनों ओर जया सती व विजया पार्वती का बांया हाथ खंडित है।
शैली के आधार पर 13वीं सदी की इस प्रतिमा के साथ देवी वाहन सिंह अभिमुख है। चौथी मूर्ति प्रत्यालीढ़ मुद्रा में महिष मर्दनी दुर्गा की है, 12वीं सदी की यह चतुर्भुज पाषाण मूर्ति महिषासुर पर आघात करती प्रतीत होती है।
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समपाद मुद्रा में चतुर्भुज किरीट मुकुट में सुशोभित मूर्ति विष्णु भगवान की है। जिनके दोनों पार्श्व में करबद्ध उपासक गढ़े गये हैं। उदीच्य वेश में प्रदर्शित सूर्य प्रतिमा पूर्ण विकसित कमल दोनों हाथों में लिए दिव्य स्वरूप स्वरूप प्रतीत होती है।
जिसके दाई ओर पिंगल व बाएं दंड खडे हैं। उपानधारी इस मूर्ति को मनकेदार लड़ियों से अलंकृत कर दर्शनीय रूप दिया गया है। जिसके अतिरिक्त गणेश व कार्तिकेय की खंडित प्रतिमायें भी यहां स्थापित हैं।
हर वर्ष यहां मंदिर में ज्येष्ठ व शरदकालीन नवरात्र में दूर-दूर से श्रद्धालु मनोकामना के लिए यहां पहुंचते हैं। जबकि हर बारह वर्ष में देवी क्षेत्र की सुख-समृद्धि की कामना को लेकर भ्रमण पर निकल कर ध्याणियों को आर्शीवाद देती है।
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