अकेले 72 घंटे तक चीनी फौज से लिया था लोहा, शहादत को अपनों ने ही भुला दिया
अरुणाचल प्रदेश की नूरानांग पोस्ट में अकेले ही 72 घंटों तक चीनी फौज से लोहा लेने वाले जसवंत सिंह को अपने ही घर में न तो सम्मान मिल पाया।
बीरोंखाल, पौड़ी [बुद्धि सिंह रावत]: 1962 की लड़ाई में जिस जांबाज की वीरता के आगे चीनी फौज नतमस्तक हो गई थी, उसे अपने घर में ही भुला दिया गया। चीनी फौज को घुटनों पर लाने वाले इस जांबाज की वीरता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि भारतीय सेना ने शहादत के बाद भी न सिर्फ उन्हें जीवित माना, बल्कि उन्हें सेवा में मानते हुए नियमानुसार पदोन्नतियां भी दी। राइफलमैन पद पर रहते हुए शहादत पाने वाले यह जांबाज वर्तमान में सेना ने मेजर जनरल के पद पर हैं।
बात हो रही है गढ़वाल राइफल्स की चौथी बटालियन के जवान जसवंत सिंह की, जिनकी वीरता की चीनी फौज इस कदर कायल हुई कि उसने जसवंत सिंह की प्रतिमा बनाकर भारतीय सेना को भेंट दी। जिस पोस्ट की सुरक्षा के लिए जसवंत सिंह ने अपने प्राणों का उत्सर्ग किया, वह स्थान आज जसवंत गढ़ के नाम से जाना जाता है। अरुणाचल प्रदेश की नूरानांग पोस्ट में अकेले ही 72 घंटों तक चीनी फौज से लोहा लेने वाले जसवंत सिंह को अपने ही घर में न तो सम्मान मिल पाया, न शासन ने ही कभी उनके गांव की सुध ली। नतीजा, मूलभूत सुविधाओं के अभाव में जसवंत सिंह का गांव खाली होने के कगार पर पहुंच गया है। जिस गांव में कभी 30-35 परिवार हुआ करते थे, आज पेयजल, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी सुविधाओं के अभाव में वहां पांच-छह परिवार ही रह गए हैं।
जसवंत सिंह : एक परिचय
19 अगस्त 1941 को ग्राम बाड़ियूं निवासी गुमान सिंह रावत के घर में जन्मे जसवंत सिंह वर्ष 19 वर्ष की आयु में सेना में भर्ती हुए। 14 सितंबर 1961 को उनकी ट्रेनिंग पूरी हुई और 17 नवंबर 1962 को गढ़वाल राइफल्स की चौथी बटालियन की एक कंपनी को अरुणाचल प्रदेश के नूरानांग ब्रिज पर तैनात कर दिया गया। ब्रिज को अपने कब्जे में लेने के लिए चीनी सेना ने उस पर हमला कर दिया। कई भारतीय जवान हताहत हुए, लेकिन जसवंत सिंह ने हिम्मत नहीं हारी और नूरानांग पोस्ट पर अकेले ही 72 घंटों तक दुश्मन से जूझते रहे। चीनी सेना ने भी जसवंत सिंह की वीरता का लोहा माना व भारतीय सेना को उनकी एक प्रतिमा बनाकर भेंट की। भारतीय सेना ने भी इस जांबाज की वीरता को सम्मान देते हुए नूरानांग पोस्ट को जसवंत गढ़ का नाम दिया। साथ ही जसवंत सिंह की शहादत के बाद भी उन्हें जीवित मान पदोन्नतियां दी। उन्हें इस अदम्य वीरता के लिए महावीर चक्र भी प्रदान किया गया।
शहादत के बाद भी जीवित जसवंत
तड़के 4.30 बजे उन्हें बेड टी दी जाती है। नौ बजे नाश्ता और शाम सात बजे रात का खाना भी मिलता है। चौबीसों घंटे उनकी सेवा में सेना के पांच जवान तैनात रहते हैं। उनका बिस्तर भी लगता है। जूतों की बाकायदा पॉलिश होती है और यूनीफार्म पर भी प्रेस की जाती है। जसवंत गढ़ में चीनी फौज की भेंट की हुई उनकी प्रतिमा लगाई गई है। इस रास्ते से गुजरने वाला कोई भी सैन्य अधिकारी अथवा जवान बाबा जसवंत सिंह को श्रद्धांजलि दिए बिना आगे नहीं बढ़ता। आज भी उनके नाम के आगे स्वर्गीय नहीं लगाया जाता। जसवंत सिंह के परिजनों की ओर से जब भी उनके अवकाश के लिए प्रार्थना पत्र भेजा जाता है तो सेना के जवान उनके चित्र को पूरे सैन्य सम्मान के साथ उनके गांव में लाते हैं और छुट्टी समाप्त होने पर उस चित्र को ससम्मान वापस उनकी पोस्ट पर ले जाया जाता है।
शहीद को भूली राज्य सरकार
राज्य गठन के बाद से आज तक उत्तराखंड सरकार ने जसवंत सिंह की कभी कोई सुध नहीं ली। न तो उन्हें पाठ्यक्रम में शामिल किया गया और न उनके नाम से कोई योजना ही शुरू हुई। बाड़ियू विकास समिति के अध्यक्ष रघुवीर सिंह बताते हैं कि आज तक सरकार ने इस शहीद के गांव की सुध नहीं ली। गत वर्ष दुनाव जल-विद्युत परियोजना का शिलान्यास करने पहुंचे मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने बाड़ियूं जसवंत सिंह का स्मारक बनाने की घोषणा की थी, लेकिन बात आई-गई हो गई। यहां तक कि जिस घर में इस वीर सैनिक का जन्म हुआ था, वह भी खंडहर में तब्दील हो गया है।
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