जागरण संवाददाता, नैनीताल : पश्चिमी विक्षोभ की निष्क्रियता की वजह से इस बार पहाड़ में गंभीर पेयजल संकट होना तय है। फरवरी माह में ही जल स्रोत सूखने लगे हैं जबकि करोड़ों की पेयजल योजनाओं की पाइप लाइनों में पानी की मात्रा बेहद कम हो गई है। मवेशियों तक की प्यास बुझाने वाले परंपरागत गाड़ गधेरों में पानी की मात्रा घट गई है। पानी की योजनाओं के हर घर में नल तो लग गए मगर अब उनमें जल की बूंद नहीं टपक रही है।
राज्य बनने से पहले से चली स्वजल परियोजना में बड़े पैमाने पर गांव गांव हैंडपंप लगाए गए। ये पम्प उन स्थानों पर लगाये , जहां परंपरागत जल स्रोत थे। ये जल स्रोत ही गधेरों को साल भर रिचार्ज करते थे। जल स्रोत संरक्षण के लिए सीमेंट का प्रयोग किया तो धीरे धीरे जल स्रोत का पानी घटा, फिर स्रोत ही सूख गया।
पहाड़ों पर गर्मियों में जल संकट अब नियति बन गया है। उत्तराखंड जल संस्थान की रिपोर्ट के अनुसार राज्य के पांच सौ के करीब जल स्रोत सूखने के कगार पर पहुंच गए हैं। सरकार ने जल नीति घोषित कर वर्षा जल संग्रहण के साथ पारंपरिक स्रोतों को बचाने का लक्ष्य तय किया है। भूमिगत जल के साथ ही बारिश के पानी को संरक्षित करने की बात कही है मगर हालात देखकर नहीं लग रहा कि जल नीति व पानी की योजनाओं से जल संकट दूर हो पायेगा। रामगढ़ क्षेत्र में बारिश के पानी का जल संरक्षण कर दर्जनों गांवों को पेयजल संकट से निजात दिला चुके बची सिंह बिष्ट कहने हैं कि सिर्फ कोरी बातों से जल संकट का समाधान नहीं होगा। पहाड़ के गाड़ गधेरों पर छोटे छोटे जलाशय या बैराज बनाकर पानी का संचय करना होगा। बड़ी नदियों या झरने से पम्पिंग योजना बनाकर भी पानी पहुंचाया जा सकता है। चेताया कि यदि सरकार ने जल संरक्षण को लेकर गंभीर प्रयास नहीं किये तो हर घर को जल की योजना कभी सफल नहीं हो सकती।
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