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    उत्तरायणी पर ही हुआ था कुली बेगार कुप्रथा का अंत

    By Skand ShuklaEdited By:
    Updated: Sat, 12 Jan 2019 07:04 PM (IST)

    बागेश्वर में हर वर्ष मकर संक्रांति के दिन 14 से 21 जनवरी तक मेला लगता है। अंग्रजों के कुली बेगार कुप्रथा का अंत भी उत्तरायणी के दिन ही हुआ था।

    उत्तरायणी पर ही हुआ था कुली बेगार कुप्रथा का अंत

    बागेश्वर, जेएनएन : सदियों से चली आ रही उत्तरायणी मेले का स्वरूप बदलने के बावजूद भी यहां मेले के दौरान आस्था के बेजोड़ दर्शन होते हैं। सैकड़ों पौराणिक धरोहरों को अपने में समेटे उत्तराखंड की काशी के नाम से प्रसिद्ध तीर्थ नगरी बागेश्वर में माघ माह में होने वाले उत्तरायणी मेले की अपनी एक अलग ही पहचान है। सरयू, गोमती व विलुप्त सरस्वती के संगम तट पर बसे शिव नगरी बागेश्वर में हर वर्ष मकर संक्रांति के दिन 14 से 21 जनवरी तक मेला लगता है। अंग्रजों के कुली बेगार कुप्रथा का अंत भी उत्तरायणी के दिन ही हुआ था। तिब्बत से व्यापार बंद होने का दुष्प्रभाव सबसे अधिक रहा है। बावजूद मेले में दानपुर, जोहार, गढ़वाल, दारमा व व्यास घाटी के ग्रामीण अपनी पारंपरिक वेष-भूषा में उत्तरायणी के मेले में चार चांद लगा ही देती हैं। उत्तरायणी मेले का मुख्य आकर्षण मकर स्नान पर्व ही है। राजनितिक, व्यापारिक व सांस्कृतिक महत्व भी कम नहीं है। संगम स्थित बाबा बागनाथ मंदिर के दर्शन व जलाभिषेक किया जाए। यह परंपरा सदियों से चली आ रही है। कत्यूरी व चंद राजाओं के शासनकाल में उत्तरायणी का जो  महत्व था वह वक्त के साथ ही बदलती सभ्यताओं के चलते धीरे-धीरे लुप्त हो गया है।

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    पौराणिक मान्यता है कि, महर्षि वशिष्ठ जब सरयू को ला रहे थे तो नील पर्वत की शिला ब्रह्मकपाली पर मार्कण्डेय मुनि समाधिस्थ थे, जिस कारण सरयू ठहर गई। वशिष्ठ की प्रार्थना पर शिव ने इस समस्या का समाधान किया। पार्वती गाय का रूप धारण कर मार्कण्डेय के सामने घास चरने का उपक्रम करने लगी। शिव ने बाघ का रूप धारण किया और घोर गर्जना करते हुए गाय रूपी पार्वती पर झपटे। गाय जोर-जोर से रंभाती हुई मुनि की शिला की ओर दौड़ी। इससे मार्कण्डेय मुनि की समाधि भंग हो गई और गाय को बचाने दौड पड़े। इस बीच सरयू को रास्ता मिल गया। बाघ एवं गाय रूपी शिव-पार्वती भी मुनि के समक्ष अपने वास्तविक रूप में प्रकट हो गए। मुनि की प्रार्थना पर व्याघ्रेश्वर नाम से शिव इस स्थान पर निवास करने के लिए सहमत हो गए।

      कत्यूरी राजा के ताम्रपत्रों में जिक्र सरयू व गोमती के संगम पर स्थित बागेश्वर धाॢमकता के साथ-साथ व्यापारिक केंद्र के रूप में भी प्रसिद्व रहा है। उल्लेख कत्यूरी राजा ललितसूरदेव व पदमदेव के ताम्रपत्रों में भी किया गया है। इस मेले में नेपाल, तिब्बत एवं भोटिया व्यापारी अपने क्षेत्र की विभिन्न सामग्रियों के साथ आते थे। मेले के दौरान लोकगीत एवं लोकनृत्यों की भी धूम मची रहती थी।1886 के एटकिसन के गजेटियर में बागेश्वर के साथ ही उत्तरायणी का भी विस्तृत वर्णन मिलता रात भर चांचरियां, बैर, भगनौल, झोड़े व हुड़के की थाप पर छपेली गाते झुंड उत्तरायणी की पहचान थे। स्वतंत्रता आंदोलन की ग्वाह उत्तरायणी स्वतंत्रता आंदोलन में बागेश्वर आजादी की लड़ाई का प्रमुख केंद्र बना। मकर सक्रांति के दिन 1921 में सरयू के बगड़ में कुली बेगार कुप्रथा के कलंक को जड़ से खत्म किया जा सका था।

    क्या थी कुली बेगार प्रथा : आम आदमी से बिना पारिश्रमिक दिए काम कराने को कुली बेगार कहा जाता था। विभिन्न ग्रामों के प्रधानो का यह दायित्व होता था, कि वह एक निश्चित अवधि के लिये, निश्चित संख्या में कुली शासक वर्ग को उपलब्ध करायेगा। इसके लिए प्रधान के पास बाकायदा एक रजिस्टर भी होता था। सभी को बारी-बारी यह काम करने के लिये बाध्य किया जाता था। अंग्रेजो द्वारा कुलियों का शारीरिक व मानसिक रूप से दोहन किया जा रहा था। 1857 में विद्रोह की चिंगारी कुमाऊं में भी फैली। हल्द्वानी कुमांऊ क्षेत्र का प्रवेश द्वार था। वहां से उठे विद्रोह के स्वर को उसकी प्रारंभिक अवस्था में ही अंग्रेज कुचलने में समर्थ हुए, लेकिन उस समय के दमन का क्षोभ समय-समय पर विभिन्न प्रतिरोध के रूपों में फूटता रहा। बीसवीं सदी के पूर्वाद्ध एक बार फिर कुली विद्रोह के रूप में फूट पड़ा।

    1913 में कुली बेगार यहां के निवासियों के लिये अनिवार्य कर दिया गया। इसका हर जगह पर विरोध किया गया। बद्री दत्त पाण्डे ने इस आंदोलन की अगुवाई की। 1920 में नागपुर में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन हुआ, जिसमें पं0 गोविंद बल्लभ पंत, बद्रीदत्त पाण्डे, हर गोविंद पंत, विक्टर मोहन जोशी व श्याम लाल शाह आदि शामिल हुए। बद्री दत्त पांडे जी ने कुली बेगार आंदोलन के लिये महात्मा गांधी से आशीर्वाद लिया और वापस आकर इस कुरीति के खिलाफ जनांदोलन किया। 14 जनवरी, 1921 को उत्तरायणी पर्व के अवसर पर कुली बेगार आंदोलन की शुरुआत हुई। सरयू और गोमती के संगम (बगड़) के मैदान से इस आन्दोलन का उदघोष हुआ। विरोध बढऩे पर अंत में सरकार ने सदन में एक विधेयक लाकर इस प्रथा को समाप्त कर दिया। इस आंदोलन से महात्मा गांधी बहुत प्रभावित हुए और स्वयं बागेश्वर आए। यहां उन्होंने चनौंदा में गांधी आश्रम की स्थापना की। इसके बाद गांधी जी ने यंग इंडिया में इस आंदोलन के बारे में लिखा कि इसका प्रभाव संपूर्ण था, यह एक रक्तहीन क्रांति थी।

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