Updated: Fri, 14 Mar 2025 11:37 AM (IST)
Holi 2025 होली का त्योहार सदियों पुराना है और इसकी शुरुआत मनोरंजन के सीमित साधनों के साथ हुई थी। वेद रामायण और महाभारत जैसे ग्रंथों ने होली गायन को आधार प्रदान किया। होली गीतों में श्रृंगार हंसी-ठिठोली और सामाजिक-धार्मिक एकता का संदेश दिया जाता है। कुमाऊं में होली गायन की परंपरा एकादशी से शुरू होती है और छलड़ी तक चलती है।
किशोर जोशी, जागरण। Holi 2025: नैनीताल : कुमाऊं में होली गायन की परंपरा सदियों पुरानी है। समय के साथ होली गायन की शैली समृद्ध होती गई तो इसमें रीति-रिवाज व परंपराएं जुड़ते चले गए। होल्यारों ने रंग पर्व पर विशेष वेशभूषा तो तैयार करवाई ही, साथ ही गायन शैली के अनुसार खड़ी होली में ढोल-मजीरे की थाप पर पैरों के मिलान व चेहरे के हावभाव भी तय कर दिए।
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वसंत आगमन पर पहाड़ में होली परदेस में पिया के विरह में परेशान पत्नी की मानसिक स्थिति को भावनाओं पर प्रकट करने, खेतीबाड़ी आदि भी होली गीतों का आधार है। मुख्य आधार वेद हैं तो अवधि-व्रज के शब्दों का समावेश कर रामायण-महाभारत के प्रसंगों तथा वेद-पुराणों पर आधारित कथाओं की खड़ी होली तैयार की गई। यही नहीं इसमें स्थानीय भाषा-बोली के भी पुट जोड़ दिए गए। इन गीतों के माध्यम से सामाजिक-धार्मिक एकता, भाईचारा, सौहार्द, रिश्तों की पवित्रता, एक-दूसरे के प्रति मान सम्मान का संदेश दिया जाता है।
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कुमाऊं में खड़ी होली का दौर दशकों पहले महाशिवरात्रि से ही शुरू हो जाता था, लेकिन अब एकादशी से खड़ी होली गायन होता है। नैनीताल जिले के ओखलकांडा, धारी, बेतालघाट, रामगढ़, पिथौरागढ़, गंगोलीहाट, बेरीनाग, अल्मोड़ा, धौलादेवी, रानीखेत सहित चंपावत, लोहाघाट, पाटी, बाराकोट में खड़ी होली की एकादशी से छलड़ी तक धूम रहती है।
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होली खेलते मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी। सूवि
त्रियोदशी तक वेदांत, फिर श्रृंगार व हंसी-ठिठोली
होल्यार व शिक्षक रवीश पचौली कहते हैं कि एकादशी से त्रियोदशी तक पहाड़ पर खासकर खड़ी होली के मूल काली कुमाऊं में वेदांत होली गायन होता है। इसमें ब्रह्मा-विष्णु-महेश, भगवान श्रीकृष्ण, मर्यादा पुरुषोतम श्रीराम के प्रति आस्था आधारित होलियां गाई जाती हैं। पंचमी से श्रृंगार रस आधारित तो छलड़ी के दिल मदमस्त व हंसी ठिठोली आधारित होली गायन हेाता है।
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छलड़ी के बाद फिर से वेदांती होली तथा आशीष देने के साथ के साथ पर्व का पारायण किया जाता है। पचौली कहते हैं सदियों पहले पहाड़ में मनोरंजन के साधन सीमित थे लेकिन धर्म के प्रति आस्था अटूट थी। सामाजिक एकता के साथ बुजुर्गों के प्रति सम्मान का भाव था, तब उस दौर में मनोरंजन के साधन नहीं थे पर होली मनाई जाती थी।
धीरे-धीरे पर्व को मनोरंजन के तौर पर मनाने का दौर आरंभ हुआ तो उसमें गीतों का पुट भी जुड़ता रहा, चूंकि महाभारत-रामायण की भाषा अवधी-बृज, संस्कृत के शब्द थे तो स्थानीय बोली का समावेश कर होली की रचनाएं की गई, जो आज अब समृद्ध होली के रूप में गाई जाती हैं।
होली बुराई पर अच्छाई की विजय का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है, होलिका दहन इसका प्रमाण है। होलिका दहन की ऐतिहासिक एवं पौराणिक घटना के वाद स्वतः प्रश्नफुटित ख़ुशी एवं आनंद की अभिव्यक्ति तत्कालीन मान्यताओं एवं जीवन शैली के अनुरूप जनसमुदाय की ओर से आयोजित की जाने लगी। धीरे-धीरे एक उत्सव के रूप में होली ने समाज में एक वृहत परंपरा का रूप ले लिया और भिन्न-भिन्न प्रांतों एवं क्षेत्रों में बसे जन समुदायों की होली के उत्सव को एक निश्चित तिथि एवं अवधि में मनाया जाने लगा। होली मनाए जाने का मूल भाव तो बना रहा लेकिन देश काल और परिस्थितियों के बदलने के साथ-साथ उसमें स्थानीय विशेषताओं का समावेश होता चला गया, जिसे हम आज भिन्न-भिन्न क्षेत्रीय होली के नाम से पहचानते हैं। लेकिन जो भी हो एक सर्वमान्य तथ्य यही है कि होली जिसे रंगों के त्योहार के रूप में जाना जाता है, मानव मानव के बीच प्रेम, सौहार्द, एकता व बंधुत्व का सैंदेश और आपसी भेदभाव को समाप्त कर वसुधैव कुटुंबकम की सीख देता है। - प्रो. भगवान सिंह बिष्ट, समाजशास्त्री, कुमाऊं विवि, नैनीताल
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