Ghee Sankranti : पर्वतीय समाज को खेती व पशुपालन से जोड़ता है लोक पर्व घी संक्रांति
उत्तराखंड अपनी निराली संस्कृति के लिए जाना जाता है। यहां लोक जीवन के कई रंग और उत्सव हैं। ऐसा ही पारंपरिक उत्सव घी संक्रांति भी है। इसे घ्यू संक्रांत और ओलगिया भी कहा जाता है।
हल्द्वानी, जेएनएन : उत्तराखंड अपनी निराली संस्कृति के लिए जाना जाता है। यहां लोक जीवन के कई रंग और उत्सव हैं। ऐसा ही पारंपरिक उत्सव घी संक्रांति भी है। इसे घ्यू संक्रांत और ओलगिया भी कहा जाता है। मान्यता है कि राजाओं के समय शिल्पी लोग अपने हाथों से बनी कलात्मक वस्तुओं को राजमहल में राजा के समक्ष प्रस्तुत किया करते। घी संक्रांति के दिन राजा-महाराज शिल्पियों को पुरस्कार देते थे।
दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र में कार्यरत चंद्रशेखर तिवारी बताते हैं कि कुमाऊं में चंद शासकों के काल में भी किसान व पशुपालक शासनाधिकारियों को विशेष भेंट ओलग देते थे। गांव के कास्तकार अपने खेतों में उगे फल, शाक-सब्जी, दूध-दही आदि राज दरबार में भेंट करते थे। यह ओलग की प्रथा कहलाती थी। अब भी यह त्योहार थोड़-बहुत मनाया जाता है। यह पर्व भादो मास की प्रथम तिथि को मनाया जाता है। मूलतः यह एक ऋतु उत्सव है। जिसे खेतीबाड़ी से जुड़े किसान व पशुपालक उत्साहपूर्वक मनाते हैं। गांव घरों की महिलाएं इस दिन अपने बच्चों के सिर में ताजा मक्खन मलती हैं और उनके स्वस्थ व दीर्घजीवी होने की कामना करती हैं। रविवार को समूचे उत्तराखंड में घी संक्रांति मनाई गई।
पर्व से जुड़ी लोक मान्यता
कुमाऊं के इलाके में इस दिन मक्खन अथवा घी के साथ बेडू रोटी (उड़द की दाल की पिट्ठी भरी रोटी) खाने का रिवाज है। लोक मान्यता है कि इस दिन घी न खाने वाले व्यक्ति को दूसरे जन्म में गनेल (घोंघे) की योनि प्राप्त होती है। कुमाऊं का कृषक वर्ग इस पर्व पर गाबे (अरबी के पत्ते) भुट्टे, दही, घी, मक्खन आदि की ओलग सबसे पहले ग्राम देवता को चढ़ाता है और उसके बाद इन्हें अपने उपयोग में लाता है। पंडित, पुरोहितों व रिश्तेदारों को भी ओलग दी जाती है।
पुरखों को भी विज्ञान की समझ
संस्कृति कर्मी चंद्रशेखर तिवारी बताते हैं कि पुरातन समाज में लोक पर्वों के माध्यम से आम जनजीवन को खेती-बाड़ी की कास्तकारी व पशुपालन से संबद्ध उत्पादों शाक-सब्जी, फल-फूल, अनाज व धिनाली (दूध व उससे निर्मित पदार्थ) को पर्वों से जोड़ने का नायाब प्रयास हुए। यह आज भी हमारी लोक संस्कृति में दिखाई पड़ता है। इनके कुछ पक्ष वैज्ञानिक आधारों की पुष्टि भी कर रहे होते हैं। इस तरह के लोक विज्ञान की समझ हमारे गांव समाज के पुरखों को भली-भांति थी। इसी वजह से इन्हें पर्व-त्योहारों का रूप देने का अभिनव प्रयास किया गया।
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