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कुमाऊं में गुजरे थे गुरुदेव रवीन्‍द्रनाथ टैगोर और राष्‍ट्रपिता के खूबसूरत दिन, जानिए nainital news

महान ऋषियों ने कुमाऊं और गढ़वाल की कंदराओं में तपस्या की तो महाऔषधीय वनों पर शोध कर वैदिककालीन आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति की नींव रखी। वेद पुराण लिखे गए।

By Skand ShuklaEdited By: Published: Sun, 17 Nov 2019 01:24 PM (IST)Updated: Mon, 18 Nov 2019 12:43 PM (IST)
कुमाऊं में गुजरे थे गुरुदेव रवीन्‍द्रनाथ टैगोर और राष्‍ट्रपिता के खूबसूरत दिन, जानिए  nainital news
कुमाऊं में गुजरे थे गुरुदेव रवीन्‍द्रनाथ टैगोर और राष्‍ट्रपिता के खूबसूरत दिन, जानिए nainital news

नैनीताल, जेएनएन : देवभूमि ...जिसका कण कण ईश्‍वर की अनुभूति कराता है। महान ऋषियों ने कुमाऊं और गढ़वाल की कंदराओं में तपस्या की तो महाऔषधीय वनों पर शोध कर वैदिककालीन आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति की नींव रखी। वेद पुराण लिखे गए। कुमाऊं में अतीत के पन्ने पलटें तो द्वापर में व्यासपुत्र महामुनि शुकदेव बगवालीपोखर के पास (शकुनी गांव) व दूनागिरि पर्वतमाला (द्वाराहाट) में तप, अध्यात्म व श्रीकृष्ण पर शोध एवं रचना का सृजन करते हैं। कहते हैं, बगवालीपोखर व दूनागिरि पर्वतमाला में ही मुनिवर शुकदेव ने श्रीमद्भागवत कथा की प्रस्तावना तैयार की थी।

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8वीं शताब्‍दी में पड़े थे आदि गुरु के चरण

8वीं सदी में आदि गुरु शंकराचार्य ने कालीचौड़ हल्द्वानी, जागेश्वर (अल्मोड़ा) और गंगोलीहाट (पिथौरागढ़) में आध्यात्मिक चिंतन किया। 1890 से 1903 तक तीन बार उत्तराखंड खासतौर पर कुमाऊं में आए स्‍वामी विवेकानंद ने आध्‍यात्मिक चिंतन किया। 13 मई 1890 को नैनीताल प्रवास के बाद 17 मई को काकड़ीघाट में पीपल वृक्ष की छांव में स्वामी विवेकानंद को ब्रह्मांड का सूक्ष्म ज्ञान तक मिला। 20वीं सदी के महान संत बाबा नीम करौरी महाराज का हल्द्वानी, नैनीताल, कैंची व काकड़ीघाट में ध्यान लगाया ।

बापू और गुरुदेव को पहाड़ ने मा‍ेहा

1929 में महात्मा गांधी का अल्मोड़ा प्रवास, अध्यात्म व प्राकृतिक सौंदर्य से साक्षात्मकार के बाद ठीक आठ वर्ष बाद कविगुरु रवींद्र नाथ टैगोर का 1937 में बापू की पसंदीदा शिक्षा, साहित्य व संस्कृति नगरी में पहुंचना अद्भुत संयोग ही माना जाएगा। वहीं कविगुरु जिन्होंने मोहन चंद करम चंद गांधी को महात्मा नाम दिया। अल्मोड़ा नगरी की निम्न मध्य हिमालयी श्रृंखला में जहां गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर ने जिस बंग्ले में रहकर तमाम कविताएं रचीं।

शिक्षा व साहित्य की नगरी में विज्ञान का अध्ययन

यहीं पर गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर 1937 में मई-जून आधुनिक विज्ञान पर आधारित ग्रंथ 'विश्व परिचय' की रचना की थी डाला। कविगुरु ने इसी स्थल पर रहते खगोल विज्ञान, इतिहास, संस्कृत के साथ ही कालिदास की शास्त्रीय कविताओं को खूब पढ़ा। लगे हाथ 'सेजुति', 'नवजातक', 'आकाश प्रदीप', 'छड़ार' आदि कविताओं की रचना भी यहीं की।

बेहतर संगीतकार भी

कवि और साहित्यकार के साथ ही कविगुरु रवींद्र नाथ टैगोर तत्वज्ञानी, गीतकार व कुशल संगीतकार भी रहे। जानकारों की मानें तो 'जन गण मन' उन्होंने न केवल रचा बल्कि उसे धुन भी खुद ही दी। अल्मोड़ा प्रवास के दौरान वह 'जन गण मन' गुनगुनाते रहते। विश्वविख्यात महाकाव्य गीतांजलि की बेहतरीन रचना के लिए 1913 में साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित होने वाले ब्रितानी दौर में अकेले भारतीय रहे गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर ने प्रत्यक्ष व परोक्ष तौर पर अल्मोड़ा प्रवास के दौरान साहित्य के जरिये सांस्कृतिक चेतना लाने का काम भी किया।

कृषि वैज्ञानिक बोसी सेन ने दिया था न्यौता

गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर बंगाल निवासी प्रख्यात कृषि वैज्ञानिक प्रो. बोसी सेन के न्यौते पर अल्मोड़ा पहुंचे थे। बताते हैं कि उत्तर प्रदेश से अल्मोड़ा पहुंचने तक वे बेहद थक चुके थे। मगर यहां की निम्न मध्य हिमालयी बेल्ट में देवदार के मिश्रित वन क्षेत्र से घिरे भवन में कुछ घंटे विश्राम करते ही वह खुद को तरोताजा महसूस करने लगे। कृषि वैज्ञानिक प्रो. सेन की पत्रकार पत्नी जी इमर्सन ने बाकायदा इस पर लंबा लेख भी लिखा है। खुद अल्मोड़ा से रवाना होने के बाद शांति निकेतन व अन्य स्थलों के प्रवास के दौरान फूर्सत निकाल उन्‍होंने प्रो. बोसी सेन को पत्र लिख पछतावा जाहिर किया था कि उन्हें कुछ और वक्त पहाड़ की वादियों के बीच गुजारना चाहिए था।

कैंट बोर्ड ने संजो रखी हैं यादें

गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर कितने दिन तक यहां रहे, इसका लिखित प्रमाण तो नहीं है लेकिन जिस भवन में कई दिनों तक वह ठहरे उसे कैंट बोर्ड ने संजो कर रखा है। 1961 में 'टैगोर भवन' के रूप में नई पहचान मिलने के बाद इसे छावनी परिषद कार्यालय के रूप में खोला गया। जिस कमरे के सोफा में बैठकर गुरुदेव ग्रंथें की रचना की उन्‍हें वहां सुरक्षित रखा गया है। मुख्य अधिशासी अधिकारी आकांक्षा जोशी की पहल पर ऐतिहासिक सोफे के बाहर से नया कवर डाल दिया गया है। ताकि इकलौता सबूत आने वाले वर्षों तक सलामत रहे।

महात्मा व कविगुरु में थी कई समानताएं

जानकारों की मानें तो बापू व कवि गुरु रवींद्र नाथ टैगोर में अच्छी वैचारिक मित्रता थी। दोनों ही विभूतियां मानवता को राष्ट्रवाद से ऊपर मानते थे। कुछ जानकार कहते हैं कि 1929 में कुमाऊं यात्रा पर पहुंचे महात्मा गांधी ने वापस लौटने के बाद शिक्षा, साहित्यिक व संस्कृति नगरी का जिक्र कविगुरु से किया था। प्रख्यात कृषि वैज्ञानिक प्रो. बोसी सेन उन दिनों अल्मोड़ा में ही थे। माना जाता है कि उसी के बाद कविगुरु को न्यौता भेजा गया। दूसरी ओर गुरुदेव रवींद्र नाथ जिस स्थान पर ठहरे थे (टैगोर भवन), उससे कुछ ही दूरी पर महात्मा गांधी की खादी से जुड़ी पर्वतीय ऊन योजना की नीवं पडऩे के पीछे कहीं न कहीं बापू व करीब 2230 गीतों के रचयिता गुरुदेव की मानवतावादी मित्रता बड़ा कारण और अद्भुत संयोग माना जाता है।

राष्ट्रपति भवन तक अल्मोड़ा के खादी की नरमी

टैगोर भवन (वर्तमान कैंट बोर्ड कार्यालय) से कुछ ही दूर है कविगुरु रवींद्र नाथ टैगोर व महात्मा गांधी की मानवतावादी मित्रता का प्रमाण खादी ग्रामोद्योग बोर्ड। जिसका अतीत बेहद गौरवशाली रहा है। देश के नवें राष्ट्रपति रहे डॉ. शंकरदयाल शर्मा (1992-1997) ने तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार की राजधानी लखनऊ में लगी प्रदर्शनी में हर्षिल व मैरीनो ऊल से बने गरम वस्त्रों की तारीफ सुनी। पुराने जानकार कहते हैं, तब विशेष मांग पर अल्मोड़ा से राष्ट्रपति भवन खादी के कपड़े व मैरीनो ऊल का पश्मीना खासतौर पर भेजा गया। सेवानिवृत्त संयुक्त निदेशक कैलाश चंद्र जोशी के मुताबिक 90 के दशक में महाराष्‍ट्र के राज्यपाल अल्मोड़ा की खादी की खूबियों से अभिभूत हो सर्किट हाउस से उतर कर खादी ग्रामोद्योग बोर्ड के शोरूम पहुंचे।

बापू के अल्मोड़ा प्रवास के बाद बनी पर्वतीय ऊन योजना

मौजूदा खादी ग्रामोद्योग की नींव महात्मा गांधी के 1929 में अल्मोड़ा प्रवास के बाद 1939 में पड़ी। हालांकि इसका खाका 1935 के आसपास खींच लिया गया था। सेवानिवृत्त संयुक्त निदेशक कैलाश चंद्र जोशी बताते हैं कि आजादी के बाद खादी ग्रामोद्योग बोर्ड अस्तित्व में आया। एक अप्रैल 1965 में पर्वतीय ऊन योजना का खादी ग्रामोद्योग बोर्ड में विलय हुआ। सबसे पहले क्षेत्रीय अधीक्षक उद्योग के रूप में चिंतामणी जोशी को लखनऊ सचिवालय से यहां भेजा गया। तब तत्कालीन मुख्यमंत्री सुचिता कृपलानी व डायरेक्टर उद्योग एबी मलिक ने अल्मोड़ा के उत्पादों को उमदा करार दिया था। 1960 में कैलाश चंद्र जोशी बतौर सहायक अधीक्षक उद्योग के पद पर तैनात किए गए। उस दौर में तिब्बती व नेपाली ऊन से कोट, ओवरकोट, गाऊन, मफलर, शॉल आदि उत्पाद बनाए जाते थे, जो बड़े पदों पर आसीन राजनयिकों की पहली पसंद हुआ करते थे। खास बात कि यहां अतिथियों के लिए मौके पर ही नाप लेकर खादी के कपड़े सिल कर भेंट किए जाने की परंपरा रही है।

टैगोर व महात्मा की यादों से रू ब रू कराता सर्किट हाउस

ब्रितानी दौर की कुमाऊं कमिश्नरी रही अल्मोड़ा का मुख्यालय है सर्किट हाउस। राजभवन सा दिखने वाला लगभग 163 वर्ष पुराना ऐतिहासिक बंगला जो टैगोर भवन व गांधी के चरखे से उपजे खादी ग्रामोद्योग के बहाने कविगुरु रवींद्र नाथ टैगोर तथा राष्टï्रपिता महात्मा गांधी की मित्रता को जीवंत करते हुए उसी अंदाज में विभूतियों को दोनों स्थलों से जोड़े हुए है। कहने का मतलब कि सर्किट हाउस में ठहरने वाली विभूतियां टैगोर भवन में कविगुरु की मौजूदगी का अहसास कर गांध की खादी से बने गरम कपड़े लेकर दोनों विभूतियों की स्मृतियां संजो कर लौटते हैं। 1856 से 1884 तक कमिश्नरी का मुख्यालय यही सर्किट हाउस रहा। यहां कमिश्नर कुमाऊं सर रैमजे का कार्यालय व आवास दोनों था। करीब पांच आलीशान कक्षों वाले इस सर्किट हाउस में आजादी से अब तक कई विभूतियां आकर ठहर चुकी हैं। चंदवंशी केसी सिंह बाबा ऐतिहासिक मां नदंादेवी महोत्सव तक इसी सर्किट हाउस की शोभा बढ़ाते हैं।

ऐसे पहुंचें टैगोर भवन, सर्किट हाउस व खादी ग्रामोद्योग बोर्ड

हल्द्वानी से 90 किमी दूर अल्मोड़ा नगर। यहां से करीब दो किमी दूर छावनी क्षेत्र की ओर वाहन से पहुंचा जा सकता है।

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