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    पलायन पर सरकार ने लिया फैसला, यही कहा जाएगा, 'का बरसा जब कृषि सुखानी'

    By Sunil NegiEdited By:
    Updated: Thu, 12 Mar 2020 03:00 PM (IST)

    उत्तराखंड पलायन की गंभीर समस्या से जूझ रहा है। सरकार ने स्वीकार करने में देर नहीं लगाई कि कृषि और बागवानी विषयों की शिक्षा देकर पलायन में कमी लाई जा सकती है।

    पलायन पर सरकार ने लिया फैसला, यही कहा जाएगा, 'का बरसा जब कृषि सुखानी'

    देहरादून, रविंद्र बड़थ्‍वाल। उत्तराखंड पलायन की गंभीर समस्या से जूझ रहा है। मामला विधानसभा में उठा। सरकार ने मासूमियत भरे अंदाज में स्वीकार करने में देर नहीं लगाई कि कृषि और बागवानी विषयों की शिक्षा देकर पलायन में कमी लाई जा सकती है। इन विषयों को अनिवार्य करने पर विचार करने पर सवाल पूछा गया। तपाक से जवाब मिला, नहीं। वजह भी बता दी कि हाईस्कूल और इंटर स्तर पर कृषि वैकल्पिक विषय के तौर पर है। नियम है कि कृषि विषय के लिए विद्यालय के नाम पर आधा एकड़ खेती योग्य भूमि होनी चाहिए। जब ज्यादातर सरकारी विद्यालयों के पास खेल के मैदान नहीं हैं, उनके पास खेतीयोग्य जमीन की बात बेमायने है। ग्रामीण और पर्वतीय क्षेत्रों के विद्यालयों में ऐसी भूमि का बंदोबस्त हो सकता है। दरकार, मजबूत इच्छाशक्ति की है। पलायन का दंश और बढ़ने के बाद सरकार ने फैसला लिया तो यही कहा जाएगा, 'का बरसा जब कृषि सुखानी'।

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    भविष्य के साथ खेल

    तंदुरुस्ती हजार नियामत, ऐसा यूं ही नहीं कहा गया है। देश और प्रदेश का भविष्य तब ही खुशहाल होगा, जब नई पीढ़ी कुछ कर गुजरने के जज्बे के साथ सेहतमंद भी होगी। इन प्रवचनों के साथ सरकारी तंत्र विद्यालयों में पढ़ाई के साथ खेलकूद और व्यायाम पर पूरा जोर देने का दावा करता है। बात जब खेल प्रशिक्षक या व्यायाम शिक्षक की नियुक्ति की आती है तब सरकार के कदम ठिठक जाते हैं। प्राथमिक से लेकर माध्यमिक तक सरकारी विद्यालयों में तकरीबन 23 लाख छात्र-छात्राएं पढ़ रहे हैं। इन विद्यालयों में व्यायाम शिक्षकों के 70 फीसद से ज्यादा पद खाली हैं। आउटसोर्सिंग पर प्राथमिक व जूनियर हाईस्कूलों में व्यायाम शिक्षकों की नियुक्ति को हरी झंडी मिली। शिक्षा महकमा इसका पूरा फायदा नहीं उठा पाया। एमपीएड, बीपीए, बीपीएड जैसे कोर्स कर व्यायाम शिक्षक बनने की उम्मीद पाले बैठे बेरोजगार युवा अब सरकार की सेहत ठीक होने का इंतजार कर रहे हैं।

    तबादलों का सुविधा शास्त्र

    पहाड़ और पनिशमेंट पोस्टिंग। उत्तराखंड राज्य बनने से पहले से ही लोगों के मन में गहरे पैठ बना चुकी ये अवधारणा अब भी बदस्तूर बरकरार है। सबसे बड़ा महकमा शिक्षा तो इसकी मिसाल है। ऐड़ी-चोटी का दम लगाने के बाद भी सरकार सुविधाजनक क्षेत्रों के विद्यालयों में जम-जमाव कर चुके शिक्षकों को पहाड़ नहीं चढ़ा पा रही है। वर्ष 2016 से दिसंबर, 2019 तक पर्वतीय क्षेत्रों से करीब 1100 माध्यमिक शिक्षकों को मैदानी क्षेत्रों में उतारे गए। इनकी भरपाई नहीं की गई। तबादला एक्ट इस मामले में मूकदर्शक बना रहा है। पर्वतीय क्षेत्रों के विद्यालय भर्ती आयोगों से चयनित नए शिक्षकों और अतिथि शिक्षकों के भरोसे हैं। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद जब अतिथि शिक्षकों की नियुक्ति की राह खुली तो सबसे ज्यादा चैन की सांस इन विद्यालयों ने ही ली। इन क्षेत्रों के विधायक अतिथि शिक्षकों की तैनाती से खुश हैं। बजट सत्र में इसका इजहार खुलकर हुआ।

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    एक्ट ने छुड़ाए पसीने

    राज्य बने हुए 19 साल हो चुके हैं, लेकिन सरकारी विश्वविद्यालयों के लिए एक अंब्रेला एक्ट की हसरत अब तक पूरी नहीं हो सकी। प्रचंड बहुमत से सत्ता पर काबिज भाजपा की त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार के भी इस एक्ट को बनाने में पसीने छूट रहे हैं। इससे पहले भाजपा की पिछली भुवनचंद्र खंडूड़ी सरकार ने कोशिश की थी। राज्य विश्वविद्यालय एक्ट का विधेयक बनाया उसे विधानसभा के पटल पर रखा था। तत्कालीन नेता प्रतिपक्ष और अब मौजूदा भाजपा सरकार के मंत्री डॉ हरक सिंह रावत ने उक्त विधेयक पर सदन में हंगामा बरपा दिया था। नतीजतन उक्त विधेयक एक्ट बन ही नहीं सका। अब सरकार ने फिर कोशिश की। सभी पक्षों से विचार कर एक्ट का मसौदा बनाया। मंत्रिमंडल में चर्चा भी की गई। बाद में इसे डॉ हरक सिंह रावत की अध्यक्षता में कैबिनेट सब कमेटी के सुपुर्द कर दिया गया। अब कमेटी की रिपोर्ट का इंतजार है।

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