उत्तराखंडी हस्तशिल्प को देश-दुनिया में अब मिलेगी नई पहचान
मध्य हिमालय की गोद में बसे उत्तराखंड का हस्तशिल्प सदियों से आकर्षण का केंद्र रहा है। फिर चाहे वह काष्ठ शिल्प हो ताम्र शिल्प अथवा ऊन से बने वस्त्र। सभी की खूब मांग रही है। हालांकि बदलते वक्त की मार से यहां का हस्तशिल्प भी अछूता नहीं रहा है।
राज्य ब्यूरो, देहरादून: मध्य हिमालय की गोद में बसे उत्तराखंड का हस्तशिल्प सदियों से आकर्षण का केंद्र रहा है। फिर चाहे वह काष्ठ शिल्प हो, ताम्र शिल्प अथवा ऊन से बने वस्त्र। सभी की खूब मांग रही है। हालांकि, बदलते वक्त की मार से यहां का हस्तशिल्प भी अछूता नहीं रहा है। हस्तशिल्पियों और बुनकरों को पूर्व में राज्याश्रय न मिलने का ही नतीजा रहा कि यह कला सिमटने लगी थी।
दरअसल, हस्तशिल्प को लेकर बाजार की मांग के अनुरूप कदम उठाने की दरकार है। इसके लिए पेेशेवर डिजायनरों की मदद ली जानी चाहिए, ताकि यहां के हस्तशिल्पी भी देश-दुनिया के साथ कदम से कदम मिला सकें। इसके लिए हस्तशिल्प को नए कलेवर में निखारने के साथ ही इसमें नित नए-नए प्रयोग की जरूरत है। इसे देखते हुए राज्य सरकार ने अब उत्तराखंडी हस्तशिल्प को नए कलेवर में निखारने के मद्देनजर देश के नामी संस्थानों के पेशेवर डिजायनरों की सेवाएं लेने का निश्चय किया है। साथ ही विपणन के लिए भी प्रभावी कदम उठाने की सरकार ने ठानी है। इसके तहत न सिर्फ राज्य के प्रमुख शहरों में शिल्प इंपोरियम स्थापित किए जाएंगे, बल्कि इनके माध्यम से हस्तशिल्प उत्पाद देश के विभिन्न हिस्सों के साथ ही दुनियाभर में जाएंगे। साफ है कि इससे उत्तराखंडी हस्तशिल्प को देश-दुनिया में नई पहचान मिलेगी।
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भीमल, बांस, रिंगाल और पिरुल भी बनेंगे बड़ा जरिया
हस्तशिल्प को निखारने के लिए राज्य के स्थानीय संसाधनों को बड़े विकल्प के तौर पर लेने की तैयारी है। इस कड़ी में भीमल सबसे अहम भूमिका निभाएगा। दरअसल, राज्य के पर्वतीय क्षेत्रों में पाए जाने वाले भीमल के पेड़ पशुओं के लिए उत्तम चारा हैं। साथ ही इसकी टहनियों से निकलने वाले रेशे का उपयोग सदियों से रस्सी आदि बनाने में किया जा रहा है। हालांकि, भीमल के रेशे से कई उत्पाद भी तैयार किए गए, मगर इन्हें बड़े बाजार की तलाश है। इसमें डिजाइन से लेकर अन्य प्रयोग किए जाने की दरकार है। इसी तरह राज्यभर में बांस व रिंगाल भी मिलता है। बांस व रिंगाल से टोकरियां, सजावटी सामान तैयार किया जाता है। बांस, रिंगाल का उपयोग फर्नीचर बनाने में भी होता है। जाहिर है कि भीमल, बांस व रिंगाल का उपयोग आजीविका के साधन के तौर पर होगा तो बड़े पैमाने पर इन प्रजातियों का पौधरोपण भी होगा। इससे पर्यावरण की सेहत भी संवरेगी। यही नहीं, राज्य में हर साल जंगलों की आग का सबब बनने वाली चीड़ की पत्तियां यानी पिरुल से भी कई प्रकार की सजावटी वस्तुएं तैयार की जा सकती हैं। इस सबको देखते हुए सरकार ने इसे भी संसाधन के तौर पर लिया है और इसमें आजीविका के अवसर तलाशे हैं। जरूरत इस बात की है कि सरकार इस पहल को पूरी गंभीरता के साथ धरातल पर उतारना सुनिश्चित करे।
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