प्रसिद्ध पर्यावरणविद् डॉ.अनिल प्रकाश जोशी ने कहा, जलवायु परिवर्तन पर हो गंभीर अध्ययन
प्रसिद्ध पर्यावरणविद् व पद्मभूषण से सम्मानित डॉ.अनिल प्रकाश जोशी ने जोशीमठ प्राकृतिक आपदा पर चिंता प्रकट करते हुए कहा कि अब समय आ गया है कि हमें हिमालयी क्षेत्र की जलवायु परिवर्तन पर गंभीर चैप्टर तैयार करना होगा और इसका गहराई से अध्ययन करना होगा।
जागरण संवाददाता, देहरादून। प्रसिद्ध पर्यावरणविद् व पद्मभूषण से सम्मानित डॉ.अनिल प्रकाश जोशी ने जोशीमठ प्राकृतिक आपदा पर चिंता प्रकट करते हुए कहा कि अब समय आ गया है कि हमें हिमालयी क्षेत्र की जलवायु परिवर्तन पर गंभीर चैप्टर तैयार करना होगा और इसका गहराई से अध्ययन करना होगा। उत्तराखंड, हिमाचल, जम्मू-कश्मीर व पूर्वोत्तर राज्यों में ग्लोबल वार्मिंग, जलवायु परिवर्तन व बदलते मौसम के दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं।
जोशीमठ के तपोवन व रैणी गांव का दौरा करने के बाद पद्मभूषण डॉ. अनिल प्रकाश जोशी ने बुधवार को दून में मीडिया से बातचीत की। कहा कि 2013 की केदारनाथ त्रासदी व हाल ही में आइ जोशीमठ आपदा में कई समानताएं हैं। केदारनाथ त्रासदी के दौरान लगातार तीन दिन तक मूसलधार बारिश हुई थी। इसी दौरान केदारनाथ धाम के ऊपर से चौराबाड़ी झील के टूटने से पूरे केदारघाटी में सैलाब आ गया।
उधर, प्राकृतिक आपदा से दो दिन पहले जोशीमठ से ऊपर तपोवन क्षेत्र में जमकर बर्फबारी हुई। इसके बाद धूप खिलने से बर्फ पिघलती गई व छोटे से ग्लेशियर के टूकड़े के साथ सैलाब के रूप में ऋषिगंगा व तपोवन पॉवर प्रोजेक्ट को तहस-तहस कर गई। इससे बड़ी संख्या में जनहानि भी हुई।
डॉ. जोशी ने कहा कि हिमालयी क्षेत्र में नवंबर व दिसंबर में गिरने वाली बर्फ स्थायी रूप से ग्लेशियर के रूप में जम जाती है। जबकि, फरवरी-मार्च में गिरने वाली बर्फ स्थायी ग्लेशियर नहीं बन पाती है और तापमान बढ़ने के कारण धीरे-धीरे स्लाइड करने लगती है। यहीं कारण था कि तपोवन के ऊपर के ग्लेशियर क्षेत्र में हुई ताजा बर्फ पिघलनी शुरू हो गई और लटके हुए ग्लेशियरों को अपने साथ लेते हुए भीषण नदी के रूप में फूट पड़ी।
डॉ. अनिल प्रकाश जोशी ने कहा कि हमें प्रकृति के विज्ञान को समझने की जरूरत है। जिसे समझने में हम अभी तक असफल रहे हैं। उन्होंने कहा कि प्राकृतिक आपदा को हम रोक नहीं सकते, लेकिन प्रकृति के विज्ञान को समझने की कोशिश तो की जा सकती है। नदियों के मुहाने पर पनबिजली परियोजना या बांध के निर्माण को तत्काल प्रभाव से रोक देना चाहिए। उत्तराखंड में इस प्रकार की प्राकृतिक आपदा के लिए ग्लोबल व लोकल फैक्टर जिम्मेदार हैं। उन्होंने कहा कि प्रदेश में 2006 में ग्लेशियरों के अध्ययन पर कुछ कार्य आरंभ हुआ था। वर्ष 2010 में हिमालयी क्षेत्र में प्राधिकरण के गठन की बात भी सामने आई थी, लेकिन अन्य विषय प्राथमिकता में होने के कारण इन विषयों पर गंभीर कार्य नहीं हुए। जिस पर अब चिंतन की सख्त जरूरत है।
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