उत्तराखंड में सामने आएगा गुलदारों के आक्रामक व्यवहार का सच, जानिए कैसे
गुलदारों के आक्रामक व्यवहार से हर कोई हैरत में है। क्या पहाड़ क्या मैदान सभी जगह इनके बढ़ते हमलों ने जनमानस की पेशानी पर बल डाले हैं। सूरतेहाल सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर गुलदारों के व्यवहार में यह बदलाव क्यों आ रहा।
देहरादून, केदार दत्त। उत्तराखंड में गुलदारों के आक्रामक व्यवहार से हर कोई हैरत में है। क्या पहाड़, क्या मैदान, सभी जगह इनके बढ़ते हमलों ने जनमानस की पेशानी पर बल डाले हैं। सूरतेहाल, सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर गुलदारों के व्यवहार में यह बदलाव क्यों आ रहा। कहीं ऐसा तो नहीं कि जंगल में फूडचेन गड़बड़ा गई हो या फिर हालात ऐसे हो गए हों कि गुलदार अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हों। ऐसे अनेक सवाल फिजा में तैर रहे हैं। लंबे अर्से बाद वन महकमे को भी इसका अहसास हुआ है। इसी कड़ी में गुलदारों के बदलते व्यवहार का पता लगाने को अब इन पर रेडियो कॉलर लगाकर अध्ययन शुरू कर दिया गया है। हरिद्वार क्षेत्र में पहली मर्तबा गुलदार पर रेडियो कॉलर लगाकर उसकी निगरानी हो रही है। इसके अलावा 15 और गुलदारों को भी रेडियो कॉलर लगाए जाने हैं। इस अध्ययन रिपोर्ट में सही तस्वीर सामने आ पाएगी।
वन्यजीवों की सुरक्षा का सवाल
वन्यजीव विविधता के लिए प्रसिद्ध उत्तराखंड में भी इन दिनों वन्यप्राणी सप्ताह के तहत बेजबानों को लेकर बहस-मुबाहिसों का दौर चल रहा है। जियो और जीने दो के सिद्धांत पर चलने की बात हो रही तो वन्यजीवों की सुरक्षा पर भी। असल में सुरक्षा का सवाल ऐसा है, जो दशकों से मुंहबाए खड़ा है। कभी शेखी बघारने के नाम पर जंगलों में बेजबानों का शिकार होता रहा और अब वन्यजीवों पर शिकारियों व तस्करों की नजरें गड़ी हुई हैं। और तो और कई मौकों पर ये बातें भी सामने आ चुकी कि शिकारियों व तस्करों के तार सीमा पार बैठे माफिया तक से जुड़े हुए हैं। ऐसे में वन्यजीवों की सुरक्षा के लिए फुलप्रूफ व्यवस्था को धरातल पर उतारने की जरूरत है। बात समझने की है कि बेजबानों की सुरक्षा का दायित्व केवल सरकार या वन महकमे का ही नहीं है। जनसामान्य को भी इसमें अपनी सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी।
पड़ोसी राज्यों पर टिकी नजरें
तमाम विकास योजनाओं के लिए हस्तांतरित होने वाली वन भूमि के एवज में क्षतिपूरक वनीकरण को उत्तराखंड में जगह कम पड़ने लगी है। 71.05 प्रतिशत वन भूभाग वाले इस सूबे में यह बात कुछ अजीब जरूर लगती है, मगर उत्तराखंड प्रतिकरात्मक वनरोपण निधि प्रबंधन और योजना प्राधिकरण (कैंपा) की हालिया बैठक में ये कड़वी सच्चाई सामने आई। असल में क्षतिपूरक वनीकरण का जिम्मा कैंपा के पास है। कैंपा के जिम्मे अभी भी करीब छह हजार हेक्टेयर का बैकलॉग है। यानी, इतनी भूमि में पौधरोपण होना है, मगर इसके लिए जगह नहीं मिल रही। जो भूमि प्रस्तावित की गई, वह या तो आपदा से पूरी तरह क्षतिग्रस्त है या फिर ढंगारी इलाका। ऐसे में अब क्षतिपूरक वनीकरण के लिए उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश जैसे राज्यों में संभावनाएं तलाशी जा रहीं, जिससे यहां विकास कार्यों की रफ्तार पर असर न पड़े। अब देखना होगा कि ये मुहिम कितना रंग जमा पाती है।
गर्जिया से कॉर्बेट का दीदार
आजादी से पहले अस्तित्व में आया कॉर्बेट नेशनल पार्क देश-दुनिया के सैलानियों के आकर्षण का केंद्र है। वन्यजीव पर्यटन को उत्तराखंड आने वाले सैलानियों का करीब 80 प्रतिशत दबाव कार्बेट पर ही है। ऐसे में जरूरी है कि वहां वन्यजीवन के दीदार को नए गेट यानी टूरिस्ट जोन बनाए जाएं। मुख्यमंत्री की कार्बेट में गर्जिया टूरिस्ट जोन की घोषणा इसी कड़ी का हिस्सा है। वर्तमान में कार्बेट में ढिकाला, धनगढ़ी, बिजरानी, ढेला-झिरना, पाखरो-कोटद्वार, वतनवासा और दुर्गादेवी गेट हैं। इन गेट से सैलानी कार्बेट में प्रवेश करते हैं। इनमें भी पर्यटकों का सर्वाधिक दबाव ढिकाला, धनगढ़ी और बिजरानी में है। अब गर्जिया में जो नया गेट बनेगा वह धनगढ़ी और बिजरानी के बीच है। 2700 हेक्टेयर में प्रस्तावित यह टूरिस्ट जोन भी बाघ व हाथियों के लिए खासा प्रसिद्ध है। इस गेट से भी सैलानियों की आवाजाही प्रारंभ होने से रोजगार के अवसर सृजित होने के साथ ही राजस्व भी बढ़ेगा।
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