संसाधन नहीं इच्छाशक्ति का अभाव, मोबाइल की रोशनी में प्रसव का करण खंगाला तो सामने आई ये बात
उत्तराखंड में पहाड़ के अस्पतालों में संसाधनों का अभाव किसी से छिपा नहीं है। मगर हर बार यह अभाव ही कसूरवार हो ऐसा भी नहीं है। कई दफा व्यवस्था भी जिम्मेदार होती है। चंद रोज पहले ही महिला का प्रसव मोबाइल की रोशनी में कराना पड़ा।
विजय मिश्रा, देहरादून। पहाड़ के अस्पतालों में संसाधनों का अभाव किसी से छिपा नहीं है। मगर, हर बार यह अभाव ही कसूरवार हो ऐसा भी नहीं है। कई दफा व्यवस्था भी जिम्मेदार होती है। चंद रोज पहले ही टिहरी जिले में एक चिकित्सक को महिला का प्रसव मोबाइल की रोशनी में कराना पड़ा। घटना प्रतापनगर ब्लाक के चौंड सीएचसी की है। कारण खंगाले गए तो पता चला कि अस्पताल में जेनरेटर है, मगर जिस समय लाइट गई डीजल उपलब्ध नहीं था। हैरत की बात यह है कि जिम्मेदारों ने लापरवाही करने वालों पर कार्रवाई के बजाय मामले से पल्ला झाड़ लिया। ..तो क्या इस तरह व्यवस्था दुरुस्त होगी। माना पहाड़ में स्वास्थ्य सुविधाएं नासाज हैं, मगर ईमानदारी से कोशिश तो की ही जानी चाहिए। सीख ली जानी चाहिए उन चिकित्सकों और उनके सहयोगी स्टाफ से, जो कोरोना काल में संसाधनों की परवाह किए बगैर सेवाभाव से संक्रमितों का जीवन बचाने में जुटे हैं।
सिस्टम में ऐसी सुन्नता क्यों
बरसात हमेशा ही पहाड़ के लिए राहत से ज्यादा मुसीबत लेकर आती है। उत्तराखंड के पर्वतीय जिलों में भी इन दिनों मानसून पहाड़ जैसी सख्ती से पेश आ रहा है। भूस्खलन से जगह-जगह सड़कें क्षतिग्रस्त हैं। पुल टूट रहे हैं। संपर्क मार्ग बंद हो गए हैं। राष्ट्रीय राजमार्ग भी लगातार अवरुद्ध हो रहा है। ऐसे में राशन, रसोई गैस, पेट्रोल-डीजल के साथ रोजमर्रा की अन्य उपयोगी वस्तुओं की आपूर्ति चुनौती बन गई है। बिजली की अनियमित आपूर्ति भी परेशानी खड़ी कर रही है। कमोबेश यह तस्वीर हर बार मानसून में नुमाया होती है। ऐसे में सिस्टम से यह सवाल पूछा जाना लाजिमी है कि मानसून के आगे उसकी तैयारी हमेशा बौनी क्यों पड़ जाती है। माना कि मानसून पर किसी का वश नहीं है, मगर बेहतर प्रबंधन से इससे उपजने वाली दुरूह परिस्थितियों से पार तो पाया ही जा सकता है। मानसून से पहले सिस्टम ऐसी तैयारी क्यों नहीं करता।
सड़क सुरक्षा में सुस्ती कैसी
वाहन चलाते समय मोबाइल पर बात करना। चौपहिया वाहन में सामान रखने के लिए डिग्गी को खोलकर चलना। यह सब भी यातायात नियमों के उल्लंघन के दायरे में आता है। यह अलग बात है कि ऐसे मामलों को जिम्मेदार नजरअंदाज कर देते हैं। इसीलिए लोग भी ऐसा करते हुए अक्सर सड़क पर मिल जाते हैं। देहरादून में परिवहन विभाग कुछ रोज पहले ऐसे मामलों को लेकर संजीदा हुआ था। मगर, चंद रोज में ही यह संजीदगी ठंडे बस्ते में चली गई। ऐसी सख्ती जरूरी है। राजधानी ही नहीं, पूरे प्रदेश में विभाग को ऐसे विशेष अभियान चलाने चाहिएं। इससे भी जरूरी यह है कि अधिकारी यातायात नियमों का पालन कराने की जिम्मेदारी को महज खानापूर्ति न समझें। इनकी सुध सड़क सुरक्षा सप्ताह या अन्य विशेष दिनों में ही न ली जाए। प्रयास हो कि यह मुहिम अनवरत चलती रहे। जिससे लोग अनजाने में भी यातायात नियमों का उल्लंघन न करें।
लालच में जमा-पूंजी न गंवाएं
हर वर्ष साइबर ठगी के मामलों में बढ़ोतरी। थोड़े से लालच में ठगों के झांसे में आकर जमा-पूंजी गंवाना। 87 फीसद से ज्यादा पढ़ी-लिखी जनसंख्या वाले उत्तराखंड के लिए यह स्थिति एक तरह की विडंबना ही है। कम से कम ऐसी घटनाओं से सबक तो लेना ही चाहिए। किसी अंजान शख्स की बात पर विश्वास करने से पहले उसके प्रलोभन को खंगालना चाहिए। जैसे बाजार में खरीदारी करते वक्त वस्तु की कीमत से लेकर उसकी गुणवत्ता तक को परखते हैं। हमारी यह जागरूकता ही ऐसे अपराधियों की बढ़ती संख्या पर लगाम लगा सकती है। पुलिस को भी इन पर नकेल कसने के लिए और अधिक गंभीरता दिखाने की जरूरत है। ठीक वैसे ही कार्रवाई की जानी चाहिए, जैसे इनामी बदमाशों को पुलिस एक-एक कर ढूंढ निकाल रही है। बीते कुछ दिनों में ऐसे दर्जनभर से ज्यादा इनाम बदमाश दबोचे जा चुके हैं, जिनकी वर्षों से तलाश चल रही थी।
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