हॉलीवुड और बॉलीवुड की इन फिल्मों की खट्टी-मीठी याद के साथ एक सुहाना सफर
हॉलीवुड से लेकर बॉलीवुड तक कुछ ऐसी फिल्में भी रही हैं। जिन्होंने पर्दे पर कुछ खासा कमाल तो नहीं दिखाया। लेकिन उनके सब्जेक्ट बेहद स्ट्रॉन्ग थे।
देहरादून, [जेएनएन]: हॉलीवुड से लेकर बॉलीवुड तक कुछ ऐसी फिल्में हैं जिन्होंने पर्दे पर कुछ खासा कमाल नहीं दिखाया हो। लेकिन उनके सब्जेक्ट बेहद स्ट्रान्ग थे। जिनको निर्देशकों ने ईमानदारी के साथ दिखाने का जज्बा पेश किया है। वहीं, कुछ ऐसी फिल्में भी हैं जो लोगों के जेहन में उतर गर्इं।
बॉक्स ऑफिस पर 'आइ एम कलाम' और 'जलपरी' जैसी फिल्में बेशक कुछ खास न कर पाई हों, लेकिन इन फिल्मों में निर्देशक ने अलग-अलग सब्जेक्ट को पूरी ईमानदारी के साथ पेश करने का जज्बा पेश किया। इसी जज्बे का नतीजा है कि टिकट खिड़की पर अपनी प्रॉडक्शन कॉस्ट तक भी न बटोरने वाली इन फिल्मों के निर्देशक नीला माधव पंडा को क्रिटिक्स के साथ-साथ दर्शकों के उस क्लास की भी जमकर तारीफ मिली, जो फिल्म एंटरटेनमेंट के लिए नहीं, बल्कि मुंबइया फिल्मों की भीड़ से दूर कुछ हटकर देखना चाहते हैं।
लंबे अर्से के बाद पांडा अब जब 'कड़वी हवा' के साथ लौटे तो उनसे दर्शकों की इसी क्लास ने कुछ अलग टाइप की फिल्म की आस पहले से लगा रखी थी। इस बार भी वह अपने मकसद में पूरी तरह से कामयाब रहे। इस फिल्म में भी जहां बॉलीवुड फिल्मों में नजर आने वाला मसाला देखने को नहीं मिलता, वहीं फिल्म के कई सीन और करीब पौने दो घंटे की फिल्म का क्लाइमेक्स दर्शकों को झकझोर कर रख देता है।
दूरदराज के एक छोटे-से गांव में एक नेत्रहीन किसान (संजय मिश्रा) रहता है। गांव में कभी-कभार ही बारिश होती है। इस किसान के बेटे मुकुंद ने भी खेती के लिए बैंक से कर्ज लिया हुआ है, जिसे अब फसल बर्बाद होने की वजह से लौटा नहीं पा रहा। पिछले कई सालों से इस गांव के किसानों की खेती बारिश न होने की वजह से चौपट हो चुकी है। इसलिए यहां के किसान कर्ज नहीं चुका पा रहे। इसी दबाव में एक के बाद एक किसान आत्महत्या कर रहे हैं। इस साधारण-सी कहानी में तब अनोखा ट्विस्ट आता है, जब मुकुंद का नेत्रहीन पिता बैंक का लोन वसूलने गांव में आने वाले गुनू बाबू (रणवीर शौरी) के साथ एक ऐसी अनोखी डील करता है, जिससे मुकुंद कर्ज के बोझ से निकल सके। जबकि, पूरे गांव के किसान गुनू बाबू को यमराज की तरह मानते हैं।
संजय मिश्रा इससे पहले भी कई ऐसी बेहतरीन भूमिकाएं कर चुके हैं, जो दर्शकों और क्रिटिक्स को आज भी याद हैं। इस फिल्म में नेत्रहीन किसान का किरदार संजय ने जिस ईमानदारी के साथ निभाया है, उसकी जितनी भी तारीफ की जाए कम है। वहीं, गुनू बाबू के रोल में रणवीर शौरी की एक्टिंग का भी जवाब नहीं। इतना ही नहीं, फिल्म के हर कलाकार ने अपने किरदार को पूरी ईमानदारी के साथ निभाया है। तारीफ करनी होगी कि नीला पंडा ने लोगों को पर्यावरण के बारे में सोचने और जागृत करने के लिए फिल्म बनाई
इजरायल में भूचाल ला देने वाला प्रयोग
निर्देशक : श्रैफ
वर्ष 2007 में पहली बार इजरायली मीडिया में एक मामला उछला, जब यह पता चला कि 800 आइडीएफ (इजरायल डिफेंस फोर्स) सैनिकों पर चिकित्सकीय प्रयोग किए गए हैं। इनका उद्देश्य एंथ्रेक्स वैक्सीन तैयार करना था। एंथ्रेक्स एक तरह की बीमारी है, जिसमें गिल्टी आदि हो जाती हैं। लेकिन, इस बीमारी का वास्तविक कारण पता नहीं लग पाता। इसी के लिए इजरायल वैक्सीन तैयार करना चाह रहा था। मीडिया की खोजी रिपोर्ट में पता चला कि दर्जनों सैनिक, जिन्होंने इस प्रयोग में हिस्सा लिया, वो बीमार हैं। यह बीमारी अलग तरह की थी। इनमें से कुछ का तो इलाज ही नहीं था।
इन सैनिकों से जो बातचीत हुई, उसने देश को हिलाकर रख दिया और आखिर में इसके लिए राष्ट्रीय स्तर पर कानूनी रूप से जांच का काम शुरू किया गया। हालांकि, इस रिपोर्ट का क्या हुआ, इसका कभी पता नहीं चल पाया। यह एक अनकही कहानी है। दरअसल, वर्ष 2006 में सामने आए एक वीडियो टेप ने इजरायल में भूचाल ला दिया था। यह मार्च से जून 2006 के बीच का मामला है यानी द्वितीय लेबनान युद्ध से कुछ ही समय पहले का। 'एंथ्रेक्स' इस टेप को सामने लाए चार ऐसे युवाओं की कहानी है, जिन्होंने इस चिकित्सकीय प्रयोग में भाग लिया था। ऐसा इसलिए हुआ कि अचानक उनके एक दोस्त की मौत हो गई और उसकी मौत के कारण का कुछ पता नहीं चल पाया। कुल मिलाकर यह प्रयोग गंभीर रूप से कितना नुकसानदेह था, वह इसे जानने के लिए उतावले हो गए। उन्होंने अपनी जान बचाने के लिए इस सत्य को उद्घाटित किया। इसके खुलने से कितना बड़ा बवाल होगा, इसकी चिंता किए बगैर।
दिलों को छूती मीरा की 'द नेमसेक'
निर्देशक-मीरा नायर
मीरा नायर की नई फिल्म 'द नेमसेक' भारतीय मूल की ही अमरीकी लेखिका झुंपा लाहिड़ी के बहुचर्चित उपन्यास 'द नेमसेक' पर आधारित है। पुलित्जर पुरस्कार से सम्मानित लाहिड़ी के उपन्यास में कई दशकों में फैली कहानी को दो घंटों में समेटने का काम मीरा नायर ने बखूबी अंजाम दिया है। पूरी फिल्म में कहीं भी बोरियत महसूस नहीं होती। फिल्म एक बंगाली दंपती की कहानी है।
1970 के दशक में अशोक और आशिमा शादी के बाद कोलकाता से न्यूयॉर्क आकर बस जाते हैं। फिर इस परिवार को अजनबी मुल्क में अजनबी संस्कृति का सामना करना पड़ता है। नए मुल्क, नए तौर-तरीके और इस सबके बीच अपनी संस्कृति एवं संस्कारों का भी ख्याल रखना उनके लिए बड़ी चुनौती है। अशोक और आशिमा के दो बच्चे किस तरह अमरीकी रंग में रंगते हैं, इस सबका चित्रण फिल्म में बहुत ही दिलचस्प अंदाज में किया गया है। कुछ हास्यास्पद दृश्य तो बार-बार ठहाके लगाने को मजबूर करते हैं।
फिल्म का ताना-बाना कुछ ऐसा है कि दर्शक अंत तक बंधे रहते हैं। उपन्यास की ही तरह फिल्म की कहानी भी दिल को छूने वाली है। कई बार दर्शकों की आंखें भी भर आती हैं। फिल्म को वयस्कों की फिल्म का दर्जा दिया गया है। हालांकि फिल्म में बॉलीवुड कि बहुत-सी फिल्मों से कम ही अश्लीलता है। लिहाजा फिल्म को पूरा परिवार एक साथ बैठकर देखे तो कोई बुराई नहीं। यह फिल्म अंग्रेजी और बांग्ला में भी बनाई गई है, जिसमें मुख्य भूमिका निभाई है तब्बू और इरफान खान जैसे बड़े कलाकारों ने।
इसके अलावा भारतीय मूल के अमरीकी कलाकारों में काल पेन ने भी मुख्य भूमिका निभाई है। वैसे तो फिल्म न्यूयॉर्क के जीवन पर केंद्रित है, लेकिन इसमें मीरा नायर ने बार-बार भारत के भी सीन पिरोए हैं। खासकर कोलकाता के बहुत से दृश्य हैं, जिसमें इस बंगाली परिवार के लोगों को अलग-अलग तरह से दर्शाया गया है। गाना भी है, जो सब्जेक्ट पर पूरी तरह फिट बैठता है।
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