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उत्तराखंड में पौधरोपण से कागज तो हो गए हरे और जंगल हुए वीरान

71.05 फीसद वन भूभाग वाले उत्तराखंड के जंगलों में हर साल बड़े पैमाने पर पौधे लग रहे मगर जंगल वीरान से दिखते हैं। यहां जंगल में मोर नाचा किसने देखा वाली कहावत सटीक बैठती है।

By BhanuEdited By: Published: Sat, 18 Jan 2020 08:34 AM (IST)Updated: Sat, 18 Jan 2020 08:34 AM (IST)
उत्तराखंड में पौधरोपण से कागज तो हो गए हरे और जंगल हुए वीरान
उत्तराखंड में पौधरोपण से कागज तो हो गए हरे और जंगल हुए वीरान

देहरादून, जेएनएन। केदार दत्त। जंगल में मोर नाचा किसने देखा। 71.05 फीसद वन भूभाग वाले उत्तराखंड के जंगलों में पौधरोपण के मामले में यह कहावत सटीक बैठती है। कागजों में हर साल बड़े पैमाने पर जंगलों में पौधे लग रहे, मगर जंगल वीरान से दिखते हैं। 

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अब जरा वन महकमे के आंकड़ों पर नजर दौड़ाएं तो राज्य गठन के बाद से यहां के जंगलों में प्रतिवर्ष डेढ़ से दो करोड़ पौधे रोपे जा रहे हैं। इस लिहाज से प्रदेश में वनावरण कहीं आगे निकल चुका होता। चौतरफा हरे-भरे जंगल नजर आते। मगर दो दशक बाद भी वनावरण करीब 46 फीसद से आगे नहीं बढ़ पाया है। 

साफ है कि सिस्टम की नीयत में कहीं न कहीं खोट है। पौधे रोपकर इनकी तरफ नजरें फेर ली जा रही है। इसल सरकारी रवायत का ही परिणाम है कि जंगलों में 50 फीसद पौधे भी जिंदा नहीं रह पा रहे। सूरतेहाल, जंगल कैसे हरे-भरे होंगे, यह सबसे बड़ा सवाल है।

मॉनीटरिंग सेल पर भी सवाल

जंगल में कहां व कितने क्षेत्र में कितने पौधे लगे, रोपण के बाद इन्हें सुरक्षित रखने को क्या-क्या कदम उठाए गए हैं, रोपित पौधे जीवित हैं अथवा नहीं। ऐसे तमाम बिंदुओं की जांच पड़ताल को वन महकमे में बाकायदा मॉनीटरिंग सेल अस्तित्व में है। 

पौधरोपण की तस्वीर जांचना उसकी जिम्मेदारी का हिस्सा होने के बावजूद वह ठीक से इसका निर्वह्न नहीं कर पा रहा। कभी-कभार इक्का-दुक्का क्षेत्रों का निरीक्षण कर यह सेल अपने दायित्व की इतिश्री कर देता है। यही कारण भी है कि मॉनीटरिंग सेल की ओर से पौधरोपण को लेकर उठाए गए सवालों पर शायद ही कभी कोई कार्रवाई हुई हो। 

ऐसे में मॉनीटङ्क्षरग सेल की कार्यशैली पर सवाल उठना लाजिमी है। ये भी सवाल उठ रहा कि जब मॉनीटरिंग सेल ने कोई कार्य ही नहीं करना है तो फिर इसका औचित्य क्या है। साफ है कि बदली परिस्थितियों में सेल को ज्यादा सक्रिय करने की आवश्यकता है।

नीति में अब किया बदलाव

पौधरोपण के लिए वन महकमे में बाकायदा नीति है। इसके तहत पौधे लगाने से पहले गड्ढे खुदान कर वर्षाकाल में इनमें पौधे लगाए जाते हैं। पर धरातल पर ये जांचने की शायद ही जहमत उठाई जाती होगी कि खोदे गए कितने गड्ढे पौधरोपण से पहले ही भर गए और वास्तव में कितने पौधे लगाए गए।

विशेषकर पर्वतीय क्षेत्रों के जंगलों में होने वाले पौधरोपण के मामले में। वजह ये कि विषम भौगोलिक परिस्थितियों वाले वन क्षेत्रों में शायद ही कोई अधिकारी जाता हो। यही कारण है कि पहाड़ में पौधरोपण का सरवाइवल रेट सबसे कम है। महकमा भी ये स्वीकारने लगा है। 

इसे देखते हुए अब पौधरोपण की नीति में बदलाव किया गया है। इसमें पहाड़ी क्षेत्र में सहायतित प्राकृतिक पुनरोत्पादन पर जोर दिया गया है। यानी कि प्राकृतिक रूप से पौधों को पनपाने पर जोर देना। अब देखने वाली बात होगी कि ये मुहिम कितना रंग जमा पाती है।

आसमान से पकड़े जाएंगे घपले

कोशिशें रंग लाईं तो निकट भविष्य में वन क्षेत्रों में होने वाले पौधरोपण में फर्जीवाड़े पर सख्ती से लगाम कसी जा सकेगी। इसके लिए जंगल का हर क्षेत्र आसमान से तीसरी आंख की निगहबानी में होगा, जहां पौधरोपण होना है अथवा हुआ है। 

चौंकिये नहीं, बात एकदम सही है। उत्तराखंड फॉरेस्ट ड्रोन फोर्स को यह जिम्मेदारी भी दी गई है। दरअसल, ड्रोन फोर्स प्रत्येक वन प्रभाग के जंगलों में ड्रोन पर लगे कैमरों के जरिये आसमान से पौधरोपण की मॉनीटङ्क्षरग करेगी। इसमें मैनपावर भी नाममात्र की लगेगी। 

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एक ड्रोन ऑपरेटर, जो विभाग का ही कार्मिक होगा, वह किसी भी क्षेत्र में आसमान से पांच किमी के दायरे में हुए पौधरोपण से संबंधित फोटो व वीडियोग्राफी करेगा। हर क्षेत्र में होने वाली इस व्यवस्था से मिलने वाले आंकड़ों से जहां पौधरोपण की असल तस्वीर सामने आएगी, वहीं घपले भी पकड़ में आएंगे। ऐसे में जिम्मेदारों पर कार्रवाई की राह आसान होगी।

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