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पिरुल के रेशे के उत्पाद बनेंगे स्वरोजगार का जरिया

पिरुल की पत्तियों से बिजली बनाने के प्रोजेक्ट के बाद अब त्रिवेंद्र सरकार पिरुल के रेशों से वस्त्र व अन्य उत्पाद बनाने की योजना लांच करने की तैयारी में है। एफआरआइ ने चीड़ की पत्तियों के इस्तेमाल के मकसद से इसका रेशा निकालने की आसान तकनीक विकसित की है।

By Sunil NegiEdited By: Published: Mon, 19 Oct 2020 09:58 AM (IST)Updated: Mon, 19 Oct 2020 12:45 PM (IST)
पिरुल के रेशे के उत्पाद बनेंगे स्वरोजगार का जरिया
त्रिवेंद्र सरकार पिरुल के रेशों से वस्त्र व अन्य उत्पाद बनाने की योजना लांच करने की तैयारी में है।

देहरादून, विकास धूलिया। पिरुल, यानी चीड़ की पत्तियों से बिजली बनाने के प्रोजेक्ट के बाद अब त्रिवेंद्र सरकार पिरुल के रेशों से वस्त्र व अन्य उत्पाद बनाने की योजना लांच करने की तैयारी में है। वन अनुसंधान संस्थान (एफआरआइ) ने चीड़ की पत्तियों के इस्तेमाल के मकसद से इसका रेशा निकालने की आसान एवं पर्यावरण के अनुकूल तकनीक विकसित की है। इस तरह के रेशों से हथकरघा वस्त्र एवं अन्य उत्पाद, मसलन कोट, जैकेट, बटुआ, पर्दे, चप्पल, रस्सी, चटाई बनाए जा सकते हैं। मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने कहा कि पिरुल के इस तरह के इस्तेमाल से उत्तराखंड में गरीबी उन्मूलन एवं रोजगार के नए अवसर सृजित किए जाने की भरपूर संभावनाएं हैं। सरकार जल्द इसके लिए एक योजना लाएगी।

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चीड़ (पाइनस रॉक्सबर्गाई सर्ग) हिमालयी क्षेत्र में पाई जाने वाली एक शंकुधारी वृक्ष प्रजाति है। चीड़ की पत्तियां गर्मियों में जंगलों में आग का कारण बनती हैं। इससे जलवायु परिवर्तन और जैव विविधता को नुकसान पहुंचता है। उत्तराखंड के संपूर्ण वन क्षेत्र में से 16.36 प्रतिशत (399329 हेक्टेयर) भूभाग में चीड़ के जंगल हैं। हर साल आरक्षित वन तथा वन पंचायत में 15 लाख मीट्रिक टन से ज्यादा चीड़ की पत्तियां प्राकृतिक रूप से उपलब्ध होती हैं। इसमें से लगभग छह लाख मीट्रिक टन पत्तियां इस्तेमाल के लिए उपलब्ध होती हैं। कुछ समय पहले तक इसका कोई उपयोग नहीं होता था, जबकि यह अच्छा जैव संसाधन साबित हो सकती हैं।

इन पत्तियों के हानिकारक प्रभाव के कारण इसके सदुपयोग की संभावना तलाशने के लिए रसायन विज्ञान एवं जैव पूर्वेक्षण प्रभाग, वन अनुसंधान संस्थान, देहरादून ने कोशिश शुरू की। इस कड़ी में प्रयोगशाला में चीड़ की पत्तियों से रेशा निकालने की आसान तकनीक तैयार की गई। इसमें अधिक ऊर्जा या उपकरणों की जरूरत नहीं है। रेशा निकालने की प्रक्रिया को ऐसे दुर्गम क्षेत्रों में भी संचालित किया जा सकता है, जहां चीड़ की पत्तियां प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हों। इससे प्राप्त होने वाले रेशे पीले रंग के और 20 सेमी लंबाई तक होते हैं। चीड़ के रेशे से बनी रस्सी के जाल को पहाड़ी क्षेत्रों में बड़ी चट्टानों को फिसलने, खिसकने, लुढ़कने से बचाने में भी इस्तेमाल किया जा सकता है। 

मुख्‍यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने कहा कि वन अनुसंधान संस्थान द्वारा तैयार विकसित तकनीक उत्तराखंड के लिहाज से अत्यंत महत्वपूर्ण है। चीड़ की पत्तियों के रेशे चीड़ के वन वाले क्षेत्रों में आजीविका बढ़ाने के लिए महत्वपूर्ण साबित हो सकते हैं। पत्तियों से मिलने वाले फायदों से हिमालयी क्षेत्रों में चीड़ के वनों की स्वीकार्यता भी होगी। इस जैव संसाधन को समाज के वंचित समुदाय तक पहुंचाकर गरीबी उन्मूलन में मदद मिलेगी। प्रचुर मात्रा में इस जैव संसाधन के उपयोग से हस्तशिल्प एवं हथकरघा के क्षेत्र में स्वरोजगार मिलेगा। चीड़ की पत्तियों से रेशे बनाने की अनुमानित लागत 50 से 90 रुपये प्रति किग्रा है, जो रेशे की बारीकी पर निर्भर है।

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