43 साल पहले पहाड़ ने भी भोगा उत्पीड़न का दंश
उत्तर प्रदेश का भाग रहे पहाड़ी हिस्से उत्तराखंड के 200 से अधिक लोगों ने भी उत्पीड़न का दंश झेला। उस दौर को याद कर आपातकाल के राजनीतिक बंदी आज भी सिहर उठते हैं।
देहरादून, [केदार दत्त]: भारतीय लोकतंत्र के काले अध्याय इमरजेंसी यानी आपातकाल को आज 43 साल पूरे हो गए हैं। 21 महीने के इस कालखंड के दरम्यान जनता को कठोर कानूनों की मार झेलनी पड़ी तो आपातकाल का विरोध करने वालों को जेलों में ठूंस दिया गया। तब उत्तर प्रदेश का भाग रहे पहाड़ी हिस्से उत्तराखंड के 200 से अधिक लोगों ने भी उत्पीड़न का दंश झेला। उस दौर को याद कर आपातकाल के राजनीतिक बंदी आज भी सिहर उठते हैं।
वे कहते हैं कि यह उनके जीवन का सबसे कठिन वक्त था, जब उन्होंने सिस्टम का ऐसा विदू्रप व क्रूर चेहरा देखा। आपातकाल में ढाई माह तक सहारनपुर जेल में बंद रहे पौड़ी जिले के ग्राम चाई (जयहरीखाल) निवासी प्रेम बड़ाकोटी बताते हैं कि वह सचमुच काला अध्याय था। आपातकाल की घोषणा होते ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एवं अन्य राजनीतिक संगठनों को निशाना बनाया गया। ये सभी इस काले कानून को लेकर मुखर थे और भूमिगत आंदोलन चल रहा था।
तब उत्तर प्रदेश के पहाड़ी इलाकों (वर्तमान उत्तराखंड) के जनमानस ने भी आपातकाल के काले कानूनों का दंश झेला। तब जिसने से भी विरोध किया, उसे सिस्टम का उत्पीड़न झेलना पड़ा। बड़ाकोटी के अनुसार जब आपातकाल की घोषणा हुई, तब वह सहारनपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक थे और वहां सत्याग्रह किया। इसके तहत 14 नवंबर 1976 को 40 लोगों के जत्थे के साथ जब शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन को कचहरी की तरफ जा रहे थे, तभी पुलिस ने उन समेत कुछ अन्य लोगों को गिरफ्तार कर लिया। जेल में आपातकाल के बंदियों को तरह-तरह की यातनाएं दी गई।
किसी के नाखून उखाड़ दिए गए तो किसी को पैरों में बेड़ियां जकड़ तालाब में खड़ा कर दिया जाता था। वह बताते हैं कि तब पुलिस ने उनसे काफी पूछताछ की, मगर कुछ उगलवा न सकी। घरवालों को पुलिस परेशान न करे, इसलिए परिवार के बारे में भी जानकारी नहीं दी। इधर, पहाड़ की वादियों में भी आपातकाल का विरोध करने वाले लोग निशाने पर थे। देहरादून के पटेलनगर निवासी विजय शर्मा बताते हैं कि 12 जनवरी 1976 को सत्याग्रह करने पर पुलिस ने उन समेत नित्यानंद स्वामी, हरीश जी, हरीश कांबोज समेत अन्य लोगों को पुलिस ने गिरफ्तार कर दून कारागार भेज दिया।
सभी को ढाई माह बाद छोड़ा गया। हालांकि, इस बीच दून समेत अन्य स्थानों पर सत्याग्रह चलता रहा और सभी लोगों ने इसे चुनौती के रूप में लेते हुए इसका डटकर मुकाबला किया। तमाम स्थानों पर 200 से अधिक लोगों को उत्पीड़न झेलना पड़ा। वह कहते हैं काले कानून को लेकर जनता में उपजे आक्रोश का ही नतीजा था कि आपातकाल हटने के बाद हुए चुनाव में आपतकाल थोपने वालों को मुंह की खानी पड़ी थी।
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