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उत्‍तराखंड में उद्देश्य से दूर राजीव गांधी नवोदय विद्यालय का मॉडल

राजीव गांधी नवोदय विद्यालयों में अतिथि शिक्षकों की एंट्री हो गई है। शिक्षा की नई वैकल्पिक सोच के साथ ये नवोदय विद्यालय खोले गए हैं। बड़ी धनराशि खर्च कर कई जिलों में नवोदय विद्यालयों के भव्य भवन बने हैं लेकिन सबसे जरूरी संसाधन शिक्षक की उपेक्षा की गई।

By Sunil NegiEdited By: Published: Thu, 10 Dec 2020 09:30 AM (IST)Updated: Thu, 10 Dec 2020 09:30 AM (IST)
उत्‍तराखंड में उद्देश्य से दूर राजीव गांधी नवोदय विद्यालय का मॉडल
उत्‍तराखंड में उद्देश्य से दूर राजीव गांधी नवोदय विद्यालय का मॉडल।

देहरादून, रविंद्र बड़थ्वाल। राजीव गांधी नवोदय विद्यालयों में अतिथि शिक्षकों की एंट्री हो गई है। प्रदेश का भविष्य तराशने के लिए शिक्षा की नई वैकल्पिक सोच के साथ ये नवोदय विद्यालय खोले गए हैं। बड़ी धनराशि खर्च कर कई जिलों में नवोदय विद्यालयों के भव्य भवन बने हैं, लेकिन सबसे जरूरी संसाधन शिक्षक की उपेक्षा की गई। शिक्षा विभाग से प्रतिनियुक्ति पर शिक्षकों की तैनाती की व्यवस्था की गई थी। सरकारी शिक्षक अब तैनाती से कन्नी काटने लगे हैं। ऐसे में शिक्षकों के सवा सौ से ज्यादा रिक्त पदों पर स्थायी नियुक्ति के बजाय अतिथि शिक्षकों की तैनाती के आदेश दिए गए हैं। समस्या के समाधान के इस फार्मूले से हर कोई हैरान है। स्थायी नियुक्तियों से कन्नी काटने से गुणवत्ता पर भी तलवार लटकी हुई है। शिक्षा की गुणवत्ता के नाम पर बहु विकल्पीय मॉडल में नवोदय विद्यालय भी शामिल है। एक भी मॉडल अपने उद्देश्य को साकार नहीं कर सका है।

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बस्ते के बोझ से त्रस्त बचपन

भारी भरकम बस्ते के बोझ के नीचे बचपन क्रंदन करता साफ दिखाई देता है। बावजूद इसके जितना बड़ा स्कूल बैग, उतना ही प्रतिष्ठित स्कूल। कोरोना काल में भले ही स्कूल बंद हैं, लेकिन किताबें खरीदवाने के मामले में स्कूलों का ढर्रा नहीं बदला। वजह साफ है। निजी स्कूलों के लिए प्राथमिकता शिक्षार्थी नहीं, टर्नओवर है। शिक्षा के नाम पर चलने वाला ये व्यवसाय उद्योगों के तौर-तरीके अपनाए हुए है। बस्ते का बाल मन पर क्या प्रभाव पड़ रहा है, किताबें-कॉपियों का बोझ सीखने की नई उमंग पर किसतरह हमला कर रहा है, इसे जानने-समझने की फुर्सत किसी के पास नहीं है। ये सवाल उठना लाजिमी है कि केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय के स्कूली छात्रों के बस्ते के नियत किए गए वजन के आदेश का निजी स्कूल कितना पालन करते हैं। केंद्र के निर्देश पर राज्य सरकार भी बस्ते का वजन तय कर चुकी है। आज तक इसका पालन होने नहीं दिखा।

केंद्र के भरोसे एक हसीन ख्वाब

प्रदेश सरकार को अपनी एक महत्वाकांक्षी योजना के लिए डबल इंजन के दम की दरकार है। उत्तराखंड बनने के बाद से एक भी नया स्तरीय उच्च शिक्षण संस्थान यहां स्थापित नहीं हो सका, जहां देहरादून, मसूरी और नैनीताल में देश और विदेश से स्कूली शिक्षा के लिए आने वाले छात्र आगे पढ़ाई जारी रखने में रुचि लें। संभावनाओं को भांपकर सरकार दून में एक ऐसे आवासीय साइंस कॉलेज खोलने की इच्छुक है, जहां विज्ञान विषयों में उच्चस्तरीय पढ़ाई और शोध कार्यों को बढ़ावा दिया जा सके। इसका खाका तैयार किया गया है। आइआइएससी बेंगलुरू और दिल्ली विश्वविद्यालय के साउथ कैंपस की तर्ज पर इसकी स्थापना का लक्ष्य रखा गया है। सरकार को अपने बूते इस ख्वाब को हकीकत बनाना मुमकिन नहीं लग रहा है। उच्च शिक्षा राज्यमंत्री डॉ धन सिंह रावत ने केंद्रीय शिक्षा मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक से दिल्ली में मुलाकात कर राज्य के अनुरोध को आगे बढ़ाया है।

गले की फांस बना वरिष्ठता विवाद

प्रदेश के 20 हजार सरकारी माध्यमिक शिक्षकों की वरिष्ठता का विवाद सरकार के गले की हड्डी बना हुआ है। तदर्थ विनियमित शिक्षकों को हाईकोर्ट ने एक अक्टूबर 1990 से नियमित माना है। सरकार को इसी आधार पर वरिष्ठता तय करने के आदेश हैं। पेच ये है कि उत्तरप्रदेश में तदर्थ शिक्षकों को वर्ष 1995 में विनियमित किया गया था। उत्तराखंड में कार्यरत शिक्षकों को 1999 और फिर 2002 में विनियमित किया गया। तदर्थ विनियमित शिक्षकों ने 1990 से वरिष्ठता की मांग को लेकर हाईकोर्ट में याचिका दायर की थी। सीधी भर्ती से नियुक्त होने वाले शिक्षक इसतरह से वरिष्ठता निर्धारित करने के विरोध में हैं। न्याय, कार्मिक से परामर्श के बाद शासन ने तय किया है कि दोनों पक्षों को सुनेंगे। जानकारों की मानें तो दोनों पक्षों का साधना आसान नहीं रहने वाला। सरकार के सामने खींचतान को एक सीमा से आगे बढऩे नहीं देने की चुनौती आने वाली है।

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