Jagran Samvadi 2025: '2 साल की उम्र में सगाई...' मध्य प्रदेश की पहली महिला एवरेस्ट विजेता ने बताई अपनी स्टोरी
गोविंद सनवाल देहरादून। मेघा परमार मध्य प्रदेश की पहली महिला एवरेस्ट विजेता अपनी एवरेस्ट यात्रा के अनुभवों को साझा करती हैं। उन्होंने बताया कि कैसे उन्होंने मुश्किलों और सामाजिक दबावों का सामना करते हुए यह मुकाम हासिल किया। मेघा ने अपनी यात्रा के दौरान आए चुनौतियों प्रेरणा और जीवन के महत्वपूर्ण पाठों के बारे में बताया। दैनिक जागरण के संवादी कार्यक्रम में उन्होंने अपने अनुभवों को साझा किया।

गोविंद सनवाल, देहरादून। मैं मेघा परमार। 30 साल की हूं। भोजनगर (मध्य प्रदेश) की रहने वाली हूं। आज मेरी पहचान मध्य प्रदेश की पहली महिला एवरेस्ट विजेता के रूप में है। एवरेस्ट शून्य भी है और शीर्ष भी। जहां पहुंचना सबका सपना होता है लेकिन यह वैसा ही है जैसे शून्य से शुरुआत करना और तमाम मुश्किलों के बीच शिखर पर पहुंचना।
जिस तरह हर किसी के लिए जीवन के अपने-अपने एवरेस्ट यानी सफलता के मानक होते हैं, वैसे ही मेरी जिद थी दुनिया की यह सबसे ऊंची चोटी। एक हार के बाद दोबारा हिम्मत जुटाई और वहां पहुंचकर दिखाया। जीवन का सफर भी कुछ ऐसा ही है।
जहां सफलता पाने के लिए कई दर्द, उलाहना, ताने झेलने होते हैं। सही मायने में अपने-परायों का पता चलता है। जागरण संवादी के रूप में आज मुझे अपनी एवरेस्टगाथा के लिए मंच मिला है तो आइए मैं आपको लेकर चलती हूं उस ऊंचाई पर, जहां तापमान माइनस 52 डिग्री सेल्सियस रहता है। जहां हर कदम पर मौत सामने होती है।
मौका था दैनिक जागरण के संवादी के चतुर्थ सत्र का। मेघा मंच पर पहुंचीं, जय हिंद के साथ संवादी को धन्यवाद कहा। सीधे अपने सफर की ओर निकली मेघा के कंठ से जैसे-जैसे बचपन आगे बढ़ता जा रहा था, श्रोताओं के बीच मौन गहराता चला गया।
कभी यह हिम्मती छोरी हंसने को मजबूर कर देती तो अगले ही पल सबकी आंखों को नम कर जाती। आर्थिक, मानसिक और सामाजिक झंझावातों से निकल शिखर को छूने की मेघा की कहानी के ये मोड़ दरअसल थे ही ऐसे। इसमें जीवन के यथार्थ को जानने-समझने की सीख भी छिपी थी इसलिए मंच के सामने मौजूद हर किसी ने इसे अपने से जोड़ लिया।
उम्र आगे बढ़ती रही और पीछे-पीछे चली सीख
मैं दो साल की थी तो मेरी सगाई तय हो गई। पांचवीं के बाद गांव से पढ़ने के लिए मामा के घर भेज दिया गया। तब जीवन की पहली सीख मिली कि अपने और दूसरे के घर में क्या फर्क होता है। तब भूख भी अच्छी-खासी लगती थी और 8-10 रोटी भी कम पड़ती थी।
गाय के लिए रखी जाने वाली रोटी भी भले पापड़ बन जाए मगर स्वादिष्ट ही होती थी। तब मैंने पहला सबक सीखा कि हर परिस्थिति में मानसिक रूप से मजबूत कैसे रहा जाता है। 18 साल की उम्र तक मामा का घर ही पाठशाला भी रहा। फिर गांव लौटी।
पिताजी ने सगे व चचेरे-तहेरे तीन भाइयों के साथ शहर इसलिए भेजा ताकि उनके लिए रोटी बना दूं। यहीं से मुझे भी प्लेटफार्म मिला। मैं भी कालेज पहुंच गई। कहते हैं न कि आजादी मिलती है तो हवा भी जल्दी लगने लगती है। मैं भी इससे अछूती न रही।
तब लगता था कि जो दोस्त कहें वही सही होता है। दोस्तों के साथ घूमना, सजना-संवरना होने लगा। फेसबुक पर मैं उर्वशी परमार हो गई। यहां चाहने वाले भी बहुत हो गए। इस बीच गांव गई तो पिताजी की जेब से 250 रुपये चुरा लाई। कालेज आकर दोस्तों के संग पहुंच गई वाटर पार्क।
यह बात गांव में पता चल गई कि छोरी चिपके हुए कपड़ों में घूम रही है। फिर क्या था गांव से एक जीप पहुंची और मुझे मारते-पीटते गांव तक ले गई। गांव-घर में खूब ताने मिले। पिता बोले-छोरी यह बात पहले बताकर जाती तो हम सबको जवाब दे पाते।
अच्छा काम करो या बुरा नाम तो होगा ही। इसलिए काम तुम्हें तय करना है। तब सोच लिया कि माता-पिता का नाम ऊंचा करके दिखाऊंगी। इसी के बाद साल भर मेहनत की और स्टूडेंट आफ द ईयर का सम्मान मिला तो पिताजी को भी बुलाया गया। उन्हें भी अहसास हुआ हमारी छोरी किसी से कम नहीं।
महिलाओं के लिए चुनौती ज्यादा मगर नामुमकिन कुछ भी नहीं
23 साल की उम्र में एमएसडब्ल्यू करने के बाद मीडिया चैनल से जुड़ी। तभी एक खबर ने ध्यान खींचा कि मप्र के दो लड़कों ने एवरेस्ट फतह किया है। 32 साल पहले बछेंद्री पाल ने यह चढ़ाई चढ़ी थी। तभी सोच लिया कि मैं क्यों नहीं। जिद पकड़ ली और एनसीसी में प्रवेश लिया। बेसिक व एडवांस कोर्स के अलावा 25 लाख रुपये जुटाने थे।
विचार आया कि क्यों न उनकी मदद लूं जो इंटरनेट मीडिया पर आपके लिए कुछ भी कर सकते हैं कहते थे। यहां भी जीवन का नया रंग देखा।कुल मिलाकर 17 हजार रुपये का प्रबंध हुआ लेकिन मप्र सरकार ने मदद की और 2018 में एवरेस्ट के लिए भेजा।
यह यात्रा भी महिलाओं के लिए शारीरिक संरचना, माहवारी समेत कई वजहों से ज्यादा चुनौतीपूर्ण होती है। मेरे शेरपा थे निम्मा नीरू। माइनस 40 डिग्री तापमान और 180 किमी प्रति घंटे की हवाओं के बीच हौंसला बढ़ाया और साथ नहीं छोड़ा। मौत से जैसे सीधा सामना हो रहा था।
सांस थम रही थी। शरीर की त्वचा काली पड़कर निकल रही थी। फिर स्थिति ऐसी आई कि जब शेरपा बोले, पहाड़ यहीं है अगर जिंदगी रही तो दोबारा चढ़ना। वापस काठमांडू पहुंची तो पता चला कि 700 मीटर की दूरी तय करनी ही बची थी। गांव पहुंची तो फिर ताने व उलाहना झेली। बाथरूम में जाकर खूब रोई भी।
हिम्मत नहीं छोड़ी और फिर प्रशिक्षण शुरू किया। इस दौरान चोटिल हुई और रीढ़ की हड्डी में तीन फ्रेक्चर भी आ गए। ऐसे समय में शिक्षक जलज चतुर्वेदी को याद किया। वह तुरंत आए और नौ माह तक उनके घर पर रही। रोज प्रैक्टिस जारी रखी और 2019 में मप्र सरकार ने फिर एवरेस्ट के लिए भेजा। 22 मई को मैं शून्य पर, मोक्ष में और शिखर पर थी। यह मेरा एवरेस्ट था। ऐसे ही सभी को एवरेस्ट होता है। जहां टिकना नहीं होता बल्कि वापस भी आना होता है।
स्टाल पर कम पड़ गई मेघा परमार की किताब
पर्वतारोही मेघा परमार पर लिखी गई बृजेश राजपूत की पुस्तक 'द एवरेस्ट गर्ल' की प्रतियां बुक स्टाल पर एक घंटे में ही बिक गईं। उनके बारे में और जानने के लिए लोग इस पुस्तक को लेकर चर्चा करते रहे। जागरण संवादी में एवरेस्ट विजेता मेघा परमार को सुनने के बाद बाहर बुक वर्ल्ड के स्टाल पर लगी उनकी पुस्तक को खरीदने के लिए लोगों की भीड़ उमड़ी।
राजीव आनंद, राजेश सिंह और अभिनव ने बताया कि वह सत्र खत्म होते हुए मेघा परमार की पुस्तक खरीदने के लिए बाहर स्टाल पर आए तो पता चला कि सभी प्रतियां बिक चुकी हैं। उन्होंने कहा कि अब आनलाइन माध्यम से यह पुस्तक खरीदेंगे।
'द एवरेस्ट गर्ल' एक साधारण लड़की की असाधारण कहानी है। बुक वर्ल्ड के संचालक रणधीर अरोड़ा ने बताया कि एकाएक किसी पुस्तक का इतनी संख्या में बिक जाना पाठकों की उनके कार्य और जीवन के बारे में जानने की रुचि दर्शाता है।
कमेंट्स
सभी कमेंट्स (0)
बातचीत में शामिल हों
कृपया धैर्य रखें।