Jagran Samvadi Dehradun: श्रोताओं की पूरी हुई मुराद, नेगीदा के गीतों की समुधुर लहरियों पर झूमा तन-मन
लोक गायक नरेंद्र सिंह नेगी के गीतों की मधुर धुनें मन को आनंदित कर देती हैं। जागरण संवाद मंच पर लोक सेवक ललित मोहन रयाल ने नेगी के साथ एक भावपूर्ण संवाद किया। नेगी ने अपने गीतों से हर सवाल का जवाब दिया जिससे श्रोताओं की इच्छा पूरी हुई। उनके गीतों में पहाड़ की संस्कृति परंपरा और रीति-रिवाजों का सार है जो पीढ़ियों को अपनी जड़ों से जोड़े रखता है।

दिनेश कुकरेती, जागरण देहरादून। लोक के पुरोधा गढ़रत्न नरेंद्र सिंह नेगी के गीतों में माटी की महक गहरे तक समाई हुई है। पहाड़ का शायद ही ऐसा कोई रैबासी होगा, जिसकी हर धड़कन को उनके गीतों में महसूस न किया जाता हो। नेगी ने पहाड़ की लोकभाषा, संस्कृति, परंपरा, रीति-रिवाज और सरोकारों को न केवल स्पर्श किया, बल्कि विदेशी धरती पर पली-बढ़ी पीढ़ियों को अपनी जड़ों से भी जोड़े रखा।
उनके गीतों में पहाड़ का जो बिंब उभरकर आता है, वह अद्भुत है। प्रकृति की जितनी भी उपमाएं और उपमान हैं, सब उनके गीतों में हैं। इसीलिए इन गीतों की सुमधुर लहरियां जब कानों में पड़ती हैं तो तन-मन आल्हादित होकर झूम उठता है। मन का मयूर थिरकने लगता है। तभी तो जागरण संवादी के मंच पर नेगी के इन गीतों को सुनने के लिए लोग आतुर नजर आते हैं। वह यह भी जानता चाहते हैं इन गीतों की रचना कैसे हुई। वह कौन सी परिस्थितियां थीं, जिन्होंने इन हृदयस्पर्शी गीतों को लिखने के लिए नेगी को प्रेरित किया।
अभिव्यक्ति के उत्सव जागरण संवादी का चौथा सत्र नेगी के इन्हीं गीतों पर केंद्रित था और संवाद करने के लिए मंच पर मौजूद थे साहित्यकार एवं लोक सेवक ललित मोहन रयाल। उन्होंने नेगी के 101 गीतों पर न केवल शोध किया है, बल्कि इस शोध को पुस्तक रूप में भी प्रकाशित किया। इसलिए उनके संवाद और नेगी के जवाबों का अलग ही आकर्षण है। उनके हर प्रश्न का उत्तर नेगी के गीतों में है। यही लोक के लिए उनका संदेश भी है। जैसे, 'भोल फिर जब रात खुलली, धरती मा नई पौध जमली, पुरणा डाला खरड़ा ह्वेकी, नई लगुल्यों सारा द्याला' (कल जब फिर रात खुलेगी और धरती में नई पौध जमेगी, तब पुराने पेड़ सूखकर भी नई लता-बेलों को सहारा देंगे)। बात आगे बढ़ती है और प्रकृति वधू का रूपण करते हुए नेगी कहते हैं, 'मालू-ग्वीराला का बीच खिलीं, सकिनी अहा' (मालू और ग्वीराल के बीच खिले साकिना के फूल कैसे मन को हर्षित कर रहे हैं)। फिर वसंत का वर्णन करते हुए वह बताते हैं कि वसंत प्रकृति हमारी परंपराओं का प्रतिनिधि है। इसलिए वसंत के आने पर पूरा पहाड़ अलमस्त हो थिरकने लगता है। खेत धानी चूनर ओढ़ लेते हैं। गेहूं, जौ और लया की फसल लहलहाने लगती है। कुछ इस तरह, 'रुणक-झुणक ऋतु वसंत गीत लगांद ऐग्ये, वसंत ऐग्ये हपार डांडा-सार्यों मा, ठुमक-ठुमक गुंदक्यली खुट्यों न हिटी की ऐग्ये' (गीत गाते हुए वसंत पहाड़ की चोटी से सिंचित खेतों में पहुंच गया है, नाचते-गाते, एक नन्हें बच्चे की तरह)।
नेगी सामने हों तो प्रश्न स्वाभाविक रूप से प्रस्फुटित होने लगते हैं। नेगी भी स्वाभाविक अंदाज में उत्तर देते हुए कहते हैं, 'मुल-मुल क्वोकू हैंसणी छै तू, ऐ कुलैं की डाली, कखि तिन मेरी आंख्यों का सुपन्या देखि त नी याली' (ये चीड़ की डाली तू मुझे देखकर मंद-मंद क्यों मुस्करा रही है, कहीं तून मेरी आंखों में छिपे सपनों को तो नहीं पढ़ लिया)। संस्कारों की बात चली नेगी कहते हैं, पहाड़ के संयुक्त परिवारों के संस्कार भविष्य की पीढ़ी तक हस्तांतरित होने चाहिए। ये संस्कार ही हमारी भाषा, संस्कृति और रीति-रिवाजों को जिंदा रखेंगे।
अपने मित्र सुभाष थलेड़ी के प्रश्न का उत्तर देते हुए नेगी कहते हैं, वह गीतों को लोक से उठाते हैं और फिर उन्हें सजा-संवार कर लोक को ही समर्पित कर देते हैं। वह कहते हैं, पहाड़ का जीवन पहाड़ जैसा कठोर और पहाड़ जैसा ही सरल भी है। यहां लोग निश्च्छल हैं। वह आज भी लाग-लपेट नहीं जानते और सीधी-सीधी बात करते हैं। इसी कड़ी में वह पहाड़ में मनस्वाग का जिक्र करते हुए गाते हैं, 'सुमा ऐ निहुण्या सुमा डांडा न जा, न जा ऐ खडोण्या सुमा डांडा न जा, लाडा की ब्यटूली सुमा डांडा न जा, यखुली-यखुली सुमा डांडा न जा, मनस्वाग लग्यूं छ सुमा डांडा न जा' (मेरी लाडली बेटी सुमा तू घास लेने जंगल मत जा, वहां नरभक्षी लगा हुआ है)।
आखिर में नेगी स्वयं प्रश्न करते हैं, कला जीवन के लिए है या कला सिर्फ कला के लिए है। यदि हमारी कला किसी के जीवन में काम आती है तो इससे बड़ी सार्थकता कला की कोई और हो ही नहीं सकती। ...और फिर इस उक्ति के साथ अपनी बात का विराम देते हैं कि, जब तक हम पुरुषार्थ नहीं करेंगे, तब तक सफलता हमारे करीब नहीं फटकने वाली। यही हमारी परंपराएं सिखाती हैं और यही हमारी संस्कृति का ध्येय वाक्य भी है।
कमेंट्स
सभी कमेंट्स (0)
बातचीत में शामिल हों
कृपया धैर्य रखें।