संकट में हिमालयी संस्कृति… चिनाली, दरमिया, गाहरी सहित छह पहाड़ी बोलियां विलुप्ति के कगार पर; संसद में उठी चिंता
उत्तराखंड की छह पहाड़ी बोलियां चिनाली, दरमिया, गाहरी, जाद, जंगाली और रोंगपो विलुप्ति के कगार पर हैं। केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय ने इन्हें संकटग्रस्त सूच ...और पढ़ें

सांकेतिक तस्वीर।
अश्वनी त्रिपाठी, जागरण, देहरादून: चिनाली, दरमिया, गाहरी, जाद, जंगाली और रोंगपो। इन बोलियों से कभी हिमालय की चोटियां जीवंत रहती थीं, पहाड़ की इन बोलियों ने सदियों तक प्रकृति से सहजीवन, ऋतुचक्र की समझ, खेती-पशुपालन, वन प्रबंधन व देवपरंपरा को सुरक्षित रखा। अब ये विलुप्ति के अंतिम पायदान पर हैं।
कई तो बुज़ुर्गों की स्मृतियों तक सीमित रह गई हैं। संसद में दी जानकारी के अनुसार केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय ने 117 विलुप्तप्राय भाषा-बोली को संकटग्रस्त सूची में रखा है। उनमें छह उत्तराखंड राज्य की हैं। केंद्रीय संस्कृति व पर्यटन मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत ने संसद में बताया कि संकटग्रस्त भाषा-बोली को अध्ययन-लेखन के माध्यम से सहेजने की पहल कर दी गई है।
गंभीर संकटग्रस्त है चिनाली
उत्तरकाशी जनपद के चिन्यालीसौड़ व आसपास के क्षेत्रों में बोली जाने वाली चिनाली कभी स्थानीय जीवन का अभिन्न हिस्सा थी। इस भाषा पर गढ़वाली और तिब्बती का प्रभाव था। चिनाली में लोकगीत, कहावतें और पारंपरिक ज्ञान पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ता रहा, भाषा सर्वेक्षण में इसे गंभीर संकटग्रस्त बोली-भाषा माना है।
शौका समुदाय की पहचान रही दरमिया
पिथौरागढ़ की दारमा घाटी में बोली जाने वाली दरमिया शौका समुदाय की सांस्कृतिक पहचान रही है। यह भारत-तिब्बत व्यापार, ऊन आधारित उद्योग और पर्वतीय व्यापारिक परंपराओं से गहराई से जुड़ी थी। सीमाई व्यापार बंद हुआ और पलायन बढ़ा, तो दरमिया सिमटती चली गई।
लोकगीतों तक सिमटी गाहरी
गाहरी गढ़वाली की ही प्राचीन शाखा है। उत्तरकाशी व टिहरी के ऊपरी पहाड़ी क्षेत्रों में यह प्रचलित रही है। गढ़वाली व हिंदी के बढ़ते प्रयोग में इसकी पहचान कमजोर पड़ती गई। अब गाहरी केवल कुछ लोकगीतों व बुज़ुर्गों की बातचीत तक सीमित है।
विस्थापन से बेगानी हुई जाद
जाड़ गंगा घाटी में बोली जाने वाली जाद बोली तिब्बती-बर्मी समाज से संबंधित है। यह भोटिया समुदाय की सांस्कृतिक धरोहर रही है। सीमावर्ती क्षेत्रों में विस्थापन और लगातार घटती जनसंख्या ने इसे विलुप्ति की कगार पर पहुंचा दिया है। इसे बोलने वाले गिने-चुने रह गए हैं। इसका अस्तित्व दस्तावेजों तक सीमित है।
गढवाली में मिल गई जंगाली
जंगाली कभी रुद्रप्रयाग, टिहरी और पौड़ी के वनवासी क्षेत्रों में बोली जाती थी। यह भाषा वन, जड़ी-बूटी और पशुपालन से जुड़ी रही है। समय के साथ इसे गढ़वाली में समाहित मान लिया गया और इसकी स्वतंत्र पहचान लगभग समाप्त हो गई।यह सबसे अधिक उपेक्षित बोली-भाषाओं में शामिल हो चुकी है।
रोंगपो बोलने वाले बचे हजार से कम
चमोली और पिथौरागढ़ के सीमांत क्षेत्रों में बोली जाने वाली रोंगपो भी तिब्बती प्रभाव वाली एक महत्वपूर्ण हिमालयी बोली- भाषा रही है। इसमें पर्वतीय जीवन, पशुपालन और जलवायु से जुड़े अनेक विशिष्ट शब्द सुरक्षित थे, लेकिन इसके बोलने वाले एक हजार से भी कम लोग रह गए हैं।
उत्तराखंड भाषा संस्थान ने राज्य की विलुप्तप्राय और अल्पप्रचलित भाषा-बोली की पहचान कर उनके दस्तावेजीकरण, शब्दकोश निर्माण, लोककथा-लोकगीत संकलन और आडियो वीडियो रिकार्डिंग का कार्य शुरू कराया है। बुज़ुर्गों से बातचीत कर भाषाई सामग्री एकत्र की जा रही है। -सुबोध उनियाल, भाषा मंत्री, उत्तराखंड

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