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अनूठी पहल: नश्वर कुछ भी नहीं.. समझा रहा ‘पुनर्जन्म स्मृति वन’

दून के शुक्लापुर में प्रियजन की मृत्यु पर यहां स्वजन एक पौधा रोपते हैं और उसमें मिट्टी के साथ चिता की राख भी डाली जाती है। स्वजन इन पौधों में अपने प्रियजन का अक्स देखते हैं।

By Sunil NegiEdited By: Published: Wed, 27 Nov 2019 07:46 AM (IST)Updated: Wed, 27 Nov 2019 07:46 AM (IST)
अनूठी पहल: नश्वर कुछ भी नहीं.. समझा रहा ‘पुनर्जन्म स्मृति वन’
अनूठी पहल: नश्वर कुछ भी नहीं.. समझा रहा ‘पुनर्जन्म स्मृति वन’

देहरादून, केदार दत्त। मौजूदा दौर में पुनर्जन्म को विज्ञान भले ही संशय की दृष्टि से देखता हो, मगर देहरादून के शुक्लापुर में लोगों की इसमें आस्था है और इसका आधार तलाश गया पेड़ों में। व्यक्ति के संसार से विदा लेने के बाद उसका अक्स किसी न किसी रूप में मौजूद रहे तो स्वजनों को उसकी करीबी का अहसास होता है। इसी भावनात्मक रिश्ते को पेड़ों से जोड़ने की अनूठी पहल हुई है, जो अब ‘पुनर्जन्म स्मृति वन’ का आकार ले चुकी है। 

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प्रियजन की मृत्यु पर यहां स्वजन एक पौधा रोपते हैं और उसमें मिट्टी के साथ चिता की राख भी डाली जाती है। ऐसे में स्वजन इन पौधों में अपने प्रियजन का अक्स देखते हैं। इस तरह इस स्मृति वन में आज 32 लोग पुनर्जन्म (फलदार पेड़ों) के रूप में मौजूद हैं। 

पर्यावरण को भावनात्मक रूप से जनमानस को जोड़ने की पहल के प्रणोता हैं हिमालयी पर्यावरण अध्ययन एवं संरक्षण संगठन (हेस्को) के संस्थापक पद्मश्री डॉ. अनिल प्रकाश जोशी। देहरादून, उत्तराखंड से 16 किमी दूर शुक्लापुर में हेस्को ग्राम से सटकर बहने वाली आसन नदी के किनारे स्थित श्मशान घाट को नाम दिया गया है ‘पुनर्जन्म’।

 

शुक्लापुर अंबीवाला क्षेत्र के लोग किसी की मृत्यु होने पर घाट में अंतिम संस्कार करते हैं। दिसंबर 2012 से वहां ‘पुनर्जन्म’ की शुरुआत हुई। स्वजन की मृत्यु पर उसके अंतिम संस्कार के बाद लोग घाट परिसर में फलदार पौधा रोपकर उसमें चिता की राख भी डालते हैं। स्वजन इन पौधों की ठीक वैसे ही देखभाल करते हैं, जैसे प्रियजन के जीवित रहने के दौरान। इसमें वे प्रियजन का अक्स देखने के साथ ही उसकी करीबी का अहसास भी करते हैं।

यहां हार जाता है नश्वरता का सिद्धांत

यह पहल केवल भावनात्मक स्तर तक सीमित नहीं है वरन व्यावहारिक रूप से भी इसे समझा और आत्मसात किया जा सकता है। दरअसल, पौधों को जीवन-पोषण के लिए जिन प्राकृतिक तत्वों की आवश्यकता होती है, वह सभी तत्व चिता की राख में प्रचुर मात्र में उपस्थित होते हैं। ये पोषक तत्व नन्हें पौधे को नव ऊर्जा प्रदान कर उसे जीवन देने का काम करते हैं। और जब तक वह वृक्ष जीवित रहता है, नवसृजन का वाहक बनता है, उसके साथ वह तत्व अमरता प्राप्त करते चलते हैं। इस तरह यहां आकर नश्वरता का सिद्धांत हार जाता है और सच के रूप में जो सामने रहता है, वह केवल यह कि नाशवान कुछ भी नहीं। इसीलिए इसे पुनर्जन्म स्मृति वन कहना तर्कसंगत ही प्रतीत होता है।

पूर्व उप राज्यपाल वली का ‘पुनर्जन्म’

दिल्ली के पूर्व उप राज्यपाल मदन मोहन किशन वली का ‘पुनर्जन्म’ भी इस वन में पौधों के रूप में हो गया। वली की तीनों पुत्रियों अर्चना कौल, रेणुका वली और डॉ. चारू वली खन्ना ने तय किया कि वे पिता के अंतिम अवशषों और स्मृतियों को हरेभरे वृक्ष के रूप में देखना चाहती हैं। मंगलवार को देहरादून पहुंचकर उन्होंने डॉ. जोशी की मौजूदगी में पुनर्जन्म स्मृति वन में पौधे लगाए और मिट्टी के साथ चिता की राख भी डाली। इस मौके पर वली की तीनों पुत्रियों ने कहा कि उनके पिता को प्रकृति से गहरा लगाव था। अब वे प्रकृति के बीच में रहेंगे। वली के दामाद रंजन खन्ना ने कहा कि हमारी भविष्य की पीढ़िया हेस्को में आकर स्व. वली का सानिध्य जीवंत वृक्ष के रूप में प्राप्त कर सकेंगी।

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डॉ. अनिल प्रकाश जोशी (संस्थापक हेस्को) का कहना है कि जब हम मृत्यु से पहले अपने अंगों को दान करने का निर्णय लेते हैं तो क्यों नहीं यह भी तय करते चलें किअपने अंतिम अवशेषों को भी वृक्ष के रूप में इस धरती को वापस लौटाएंगे। जीवन में हमने प्रकृति से जितनी हवा, पानी व अन्य उत्पाद लिए हैं, उन्हे वापस लौटाने का यह सरल तरीका है।

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