उत्तरकाशी आपदा: नदी में समा चुकी सड़क, उफनती लहरों की परवाह किए बिना गिरते-पड़ते गंगनानी पहुंचे दर्जनों लोग
उत्तराखंड में गंगोत्री और हर्षिल में फंसे कई लोगों ने जान जोखिम में डालकर गंगनानी तक पैदल यात्रा की। टूटी सड़कों और उफनती नदियों को पार करते हुए वे एसडीआरएफ की मदद से सुरक्षित गंगनानी पहुंचे। हर्षिल में फंसे लोगों ने भोजन की कमी और मुश्किल रास्तों का सामना किया लेकिन फिर भी वे अपनी जान बचाने में कामयाब रहे।

सुमन सेमवाल, जागरण उत्तरकाशी। शुक्रवार दोपहर को दर्जनों कदम धराली के छोर से गंगनानी की तरफ लड़खड़ाते हुए बढ़ते नजर आए। सामने गंगनानी पुल तबाह था और बीच में लिमचा गाड़ पूरी गति से शोर मचाते हुए बह रही थी। मानो खबरदार कर रही हो। लेकिन, जो लोग धराली की तरफ से आ रहे थे, वह रुकने को तैयार नहीं थे।
एकपल जरूर उनके कदम लिमचा गाड़ और ध्वस्त पुल को देखकर ठिठके भी, लेकिन जंगल की तरफ रस्ता पाकर सभी उस ओर बढ़े और लिमचा गाड़ को पार करने की कोशिश भी करने लगे। यह देख बेली ब्रिज के निर्माण में सहयोग कर रहे एसडीआरएफ के जवान भी सकते में आ गए।
खैर, यहां तक 25-30 और इससे भी अधिक किलोमीटर की दूरी तय कर पहुंचे लोगों को एसडीआरएफ ने निराश नहीं किया और रस्सों के सहारे मदद का मजबूत हाथ बढ़ा दिया।
मौत से जूझते हुए जिंदगी की तलाश पूरी
नदी पार कर गंगनानी के छोर पर पहुंचते ही जैसे उनके बोझिल कदमों में नई जान आ गई हो और आंखों की चमक भी बता रही थी कि मौत से जूझते हुए जिंदगी की तलाश मानो पूरी हो गई। उत्तरकाशी के डुंडा निवासी खेम सिंह, सुंदर, अशोक राणा, पार्वती और सीताराम ने बताया कि वह हर्षिल में फंसे थे।
जब वहां से निकलने का इंतजार लंबा होता गया तो सुबह 06 बजे पैदल ही गंगनानी के लिए निकलने की ठान ली। हालांकि, इस बीच डबराणी और अन्य जगह पूरी तरह तबाह हो चुकी सड़क को देखकर उनके रोंगटे खड़े हो गए थे। क्योंकि, सिर्फ पैर रखने लायक ही जगह बची थी और नीचे नदी की उफनाई लहरों ने बची खुची हिम्मत भी छीन ली थी। पैर, फिसला नहीं कि जिंदगी समाप्त।
यहां से पीछे लौटने का भी रास्ता नहीं था। लिहाजा, किसी भी परिस्थिति के लिए सभी ने खुद को तैयार किया और आगे बढ़ते रहे। एक बार पार्वती का पैर फिसला भी, लेकिन गनीमत रही कि वह नदी की तरफ नहीं गिरीं।
गंगनानी में लिमचा गाड़ पार करते समय भी पार्वती रपट पड़ी थीं। हालांकि, वहां देवदूत के रूप में एसडीआरएफ के जवान थे और उन्होंने पार्वती को कंधे पर उठाकर रस्सों के सहारे नदी पार करा दी। भटवाड़ी निवासी लोकेश थापा और उनकी पत्नी सरिता की पैदल यात्रा की दास्तां और भी दिल दहलाने वाली है। थापा दंपती गंगोत्री धाम गए थे और वापसी से पहले ही धराली में आपदा आ गई।
तीन दिन दोनों ने किसी तरह गंगोत्री में गुजारे। जब उन्हें लगा कि यहां से निकल पाना आसान नहीं है तो दोनों ने गुरुवार सुबह 07 बजे पैदल ही सफर करने का निर्णय लिया। रात को उन्होंने हर्षल में आश्रय लिया और शुक्रवार सुबह गंगनानी के लिए निकल पड़े। लंबा सफर और भोजन की कमी ने लोकेश और सरिता को मानसिक रूप से बुरी तरह तोड़ दिया था।
शरीर इतना थक चुका था कि आगे बढ़ने की हिम्मत नहीं थी। सरिता को लग रहा था कि वह रास्ते में ही गिर पड़ेगी। डबराणी में 250 मीटर हिस्से पर नदी में समा चुकी सड़क को देखकर उसकी बची खुची सामर्थ्य ने भी जवाब दे दिया था।
लोकेश ने किसी तरह हिम्मत बंधाई और कहा कि यदि जिंदा रहना है तो आगे बढ़ना ही होगा। गंगनानी पहुंचने के बाद सरिता को यकीन नहीं हो पा रहा है कि उन्होंने गंगोत्री से यहां तक का करीब 60 किलोमीटर का सफर पैदल ही तय कर लिया।
मौत से जूझते हुए जिंदगी की तरफ कदमताल करने की फेहरिस्त में बीएसएनल कर्मी सुरेंद्र कुमार और उनके साथी भगवती भी शामिल हैं। इन्हीं की तरह बिजनौर और हरिद्वार के 10 से 15 ऐसे श्रमिक भी हैं, जो हर्षिल में फंसे थे। मौत के सन्नाटे में डूबी हर्षिल घाटी को पार करना उनके लिए नई जिंदगी से कम नहीं है।
अब उन्हें इस बात की भी फिक्र नहीं है कि आगे का सफर वह कैसे तय करेंगे। क्योंकि, उनकी जेब में फूटी कौड़ी भी नहीं बची है। आपदा की इस घड़ी में श्रमिकों ने ठेकेदार से भी नकदी मांगने का साहस नहीं किया। वह इसी बात से राहत में हैं कि वह आपदा से अलग थलग पड़े क्षेत्र से बाहर निकल पाने में वह सफल रहे।
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