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    कभी ये था बागीचों का शहर, आज सीमेंट-कंक्रीट के जंगल में हुआ तब्दील; आप भी जानिए

    बेहतरीन आबोहवा की पहचान रखने वाला देहरादून शहर। शहरीकरण की दौड़ ने यहां की हरियाली को छीन लिया तो बागीचे भी सिमटते चले गए। एक दौर में बागीचों की भरमार वाले इस शहर में वर्तमान में अंगुलियों पर गिने लायक बागीचे ही रह गए हैं।

    By Raksha PanthriEdited By: Updated: Sat, 02 Oct 2021 09:18 PM (IST)
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    कभी ये था बागीचों का शहर, आज सीमेंट-कंक्रीट के जंगल में हुआ तब्दील; आप भी जानिए।

    राज्य ब्यूरो, देहरादून। पलायन के कारण उत्तराखंड में गांव खाली हो रहे हैं तो शहरी क्षेत्रों पर जनदबाव लगातार बढ़ रहा है। शहरों में जिस हिसाब से जनसंख्या बढ़ी है, उसी हिसाब से शहरों में सीमेंट-कंक्रीट का जंगल भी पनप रहा है। इससे शहरों की सूरत ही नहीं, सीरत भी बिगड़ गई है। शहरी क्षेत्रों में सांस लेना तक मुश्किल हो रहा है तो बाग-बागीचों के ताजे फल मिलना तो दूर की कौड़ी है। इन्हीं सब परिस्थितियों से जूझ रहा है बेहतरीन आबोहवा की पहचान रखने वाला देहरादून शहर। शहरीकरण की दौड़ ने यहां की हरियाली को छीन लिया तो बागीचे भी सिमटते चले गए। एक दौर में बागीचों की भरमार वाले इस शहर में वर्तमान में अंगुलियों पर गिने लायक बागीचे ही रह गए हैं। इन्हें भी वक्त की दीमक कब लील ले, कहा नहीं जा सकता।

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    रिटायर्ड व्यक्तियों की पहली पसंद में शुमार रहे देहरादून के उत्तराखंड की अस्थायी राजधानी बनने के बाद यहां जमीन का टुकड़ा लेने के लिए जो मारामारी मची, वह अभी तक थम नहीं पाई है। नतीजतन 21 वर्ष के वक्फे में यहां बाग भी सिमटते चले गए। यह वही शहर है, जहां कभी कदम-कदम पर लीची के बाग हुआ करते थे। इनमें महकती थी देहरादून की पहचान रही रोज सेंटेड लीची। फिर चाहे वह राजपुर रोड हो अथवा निरंजनपुर माजरा, अधोईवाला, चकराता रोड, रायपुर रोड समेत अन्य क्षेत्र, लगभग सभी जगह बागीचों की भरमार हुआ करती थी। साथ ही खेतों में बासमती की महक हर किसी को अपनी तरफ आकर्षित किया करती थी।

    वक्त ने ऐसी करवट बदली कि दून शहर से बागीचे और बासमती के खेत एक-एक कर गुम हो गए। बागीचों की कीमत पर हुए शहरीकरण के चलते बागों की जगह उग आया है सीमेंट कंक्रीट का जंगल। जहां कभी बागीचे हुआ करते थे, वहां आलीशान कोठियां, आवासीय कालोनियां, शापिंग कांप्लेक्स, बाजार आदि उग आए हैं।

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    इन क्षेत्रों में सरकारी मुहर के साथ बागीचों पर खूब आरी चली। आज इनकी संख्या महज उपस्थिति दर्ज कराने तक सीमित होकर रह गई है। जिस रफ्तार से शहरीकरण हो रहा है, उसे देखते हुए ये बाग भी कब इतिहास के पन्नों में दर्ज हो जाएं, कहा नहीं जा सकता।

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