जेएफएफ: समय की नब्ज पकड़ता नए दौर का सिनेमा, पढ़िए पूरी खबर
सिनेमा का वर्तमान इसलिए भी आकर्षक है क्योंकि वह अपने समय की नब्ज को न सिर्फ पकड़ता है बल्कि बिल्कुल ही-मैन वाले अंदाज में अपना प्रभामंडल भी तैयार करता है।
देहरादून, दिनेश कुकरेती। तमाम तरह के स्टीरियोटाईप (जड़ताओं) को तोड़ रहा आज का हिंदी सिनेमा अपने पुरसुकून रूमानी माहौल से उबर रहा है। उसने दर्शकों की बेचैनी को भांप लिया है और उन्हें आवाज देनी भी शुरू कर दी है। वह अपने नए मिजाज से दर्शकों को न सिर्फ अपनी तरफ खींच रहा है, बल्कि उन्हें नए तरीके से सोचने पर मजबूर भी कर रहा है। सिनेमा का वर्तमान इसलिए भी आकर्षक है, क्योंकि वह अपने समय की नब्ज को न सिर्फ पकड़ता है, बल्कि बिल्कुल ही-मैन वाले अंदाज में अपना प्रभामंडल भी तैयार करता है।
कहना न होगा कि फॉर्म और कंटेंट (विषय, भाषा, पात्र, प्रस्तुति), दोनों ही स्तर पर सिनेमा बदला है। हालांकि, ऐसा नहीं कि यह सब-कुछ पहली मर्तबा हुआ या हो रहा है। पहले भी समय-समय पर बदलाव होते रहे, लेकिन वर्तमान में जो बदलाव परिलक्षित हुए या हो रहे हैं, वह पहले से पूरी तरह जुदा हैं। दरअसल आज का मेनस्ट्रीम या व्यावसायिक सिनेमा अपने भीतर कला फिल्मों की सादगी एवं सौंदर्य को भी समेटे हुए है। जिससे शायद अब फिल्मकारों को राष्ट्रीय पुरस्कारों को लक्ष्य कर कुछ खास तरह की फिल्में बनाने की जरूरत नहीं रह गई।
वैसे देखा जाए तो वर्तमान में सिनेमा ही नहीं, भारतीय फिल्मों का दर्शक भी बिल्कुल उसी रफ्तार से बदल रहा है। नए दर्शक वर्ग ने सिनेमा के इस परिवर्तित और अपेक्षाकृत समृद्ध रूप को तहेदिल से स्वीकार किया है। इसी भारतीय दर्शक के बारे में कभी श्याम बेनेगल ने अपने एक साक्षात्कार में कहा था, 'यह हमारे डीएनए में है कि हम एक खास किस्म की फिल्में पसंद करते हैं।' लेकिन, अब हिंदी सिनेमा के बदले हुए परिदृश्य को देखकर लग रहा है कि इस डीएनए की 'खास पसंद' में हलचल हुई है। हालांकि, अभी श्याम बेनेगल के उपरोक्त कथन को सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता, क्योंकि आज भी बहुसंख्य फिल्में उसी 'खास किस्म' की श्रेणी में आती और बनाई जाती हैं। बावजूद इसके कई ऐसी फिल्में भी बन रही हैं, जिन्होंने सिनेमा और समाज के बने-बनाए ढांचे को हिलाने की जुर्रत की है। इन फिल्मों ने अपने समय को संयमित ढंग से दृश्यबद्ध किया है और सफलता के नए मानदंड भी गढ़े हैं।
यह भी गौर करने वाली बात है कि नए सिनेमा ने फिल्मों को एक खास तरह के एलीटिज्म (अभिजात्यता) से बचाया है। स्त्री पात्रों को नायक के रूप में प्रस्तुत करने वाली इन फिल्मों की स्त्रियां अपने शर्म और संकोच की कैद से बाहर निकल जाती हैं। वह कथित सभ्रांत समाज से बेपरवाह हो ठहाके लगाती हैं, चीखती हैं, मुक्तकंठ से गाती हैं और तब तक नाचती हैं, जब तक कि मन नहीं भर जाता। वह महंगी शिफॉन साडिय़ों या कई-कई किलो के लहंगे और अनारकली सूट में नजर नहीं आतीं। बल्कि, साधारण कपड़ों में ही अपने व्यक्तित्व को प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करती हैं। वह नारी जीवन के पारिवारिक एवं सामाजिक सवालों को ही नहीं उठातीं, बल्कि राजनीतिक दृष्टिकोण भी मजबूती से पेश करती हैं। यही वजह है कि जिस स्त्री को सिनेमा ने अपने शुरुआती दौर में अबला के रूप में प्रस्तुत किया था, आज वही अबला मुख्य भूमिका में आ गई है।
अर्थ ही नहीं, पैमाने भी बदले
नए दौर के सिनेमा ने मनोरंजन के अर्थ ही नहीं, पैमाने भी बदले हैं। सिनेमा समझ चुका है कि बदला हुआ दर्शक केवल लटके-झटकों से संतुष्ट होने वाला नहीं। उसे बदलते सामाजिक-आर्थिक मौसम के अनुरूप कुछ खास एवं मजबूत आहार की जरूरत है। यही वजह है कि करण जौहर जैसे विशुद्ध सिने व्यवसायी भी अपने स्वनिर्मित रूमानी किले से बाहर निकलकर 'माई नेम इज खान', 'बॉम्बे टाकिज' जैसी फिल्में बनाने को मजबूर हुए हैं।
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रूढ़ियां तोड़ रहा नया सिनेमा
हिंदी सिनेमा ने तमाम तरह की पुरानी रूढ़ियों को तोड़ा है। अपने समय की नब्ज को पहचानते हुए उसे प्रोत्साहित किया है और अपने लिए दर्शक वर्ग तैयार किया है। विषय, भाषा, चरित्र, प्रस्तुति आदि सभी स्तरों पर भारतीय सिनेमा अपनी पुरानी छवि को छोड़ नई जमीन तैयार कर रहा है।
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