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    ज्ञान गंगा : बचपन पर ढेर हुईं संवेदनाएं, भई कोई है जो इन बच्चों की सुध ले

    By Sunil NegiEdited By:
    Updated: Thu, 10 Jun 2021 04:05 PM (IST)

    कोरोना की आपदा बच्चों पर कहर बनकर टूटी है। विडंबना देखिए सतत विकास लक्ष्य इंडेक्स रिपोर्ट में शिक्षा की गुणवत्ता में जिस स्कूली शिक्षा की बदौलत उत्तराखंड चौथे स्थान पर इतरा रहा है उसकी हालत चिराग तले अंधेरा सरीखी है।

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    कोरोना की आपदा बच्चों पर कहर बनकर टूटी है।

    रविंद्र बड़थ्वाल, देहरादून। कोरोना की आपदा बच्चों पर कहर बनकर टूटी है। विडंबना देखिए, सतत विकास लक्ष्य इंडेक्स रिपोर्ट में शिक्षा की गुणवत्ता में जिस स्कूली शिक्षा की बदौलत उत्तराखंड चौथे स्थान पर इतरा रहा है, उसकी हालत चिराग तले अंधेरा सरीखी है। बचपन के साथ बड़ों का मजाक देखिए। तीन साल से कक्षा एक से आठवीं तक सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों ने किताबों के दर्शन तक नहीं किए। मुफ्त किताबों को छपवाने का बंदोबस्त नहीं हुआ। करीब साढ़े छह लाख से ज्यादा बच्चे सिर्फ स्कूल ही नहीं, बल्कि किताबों के लिए भी तरसे। पिछले पूरे सत्र में कक्षा एक से पांचवीं तक स्कूल बंद रहे। छठी से आठवीं तक सत्र के अंतिम दिनों में स्कूल खुले, लेकिन उसका फायदा नहीं हो सका। बच्चों के इस दर्द को महसूस तक नहीं किया गया। नए सत्र के तीन महीने गुजर चुके हैं। भई कोई है, जो इन बच्चों की सुध ले।

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    स्कूलों में सुविधाओं का ड्रापआउट

    पीठ थपथपाई जा चुकी है। लिहाजा अब बारी सवालों की है। इनसे बचने का मतलब है बचपन और नौनिहालों के भविष्य से खिलवाड़। गांवों खासतौर पर दूरदराज पर्वतीय क्षेत्रों में प्राइमरी और जूनियर हाईस्कूल क्या गांवों के आसपास ही खोले जा सकते हैं। सवाल इसलिए मौजूं है कि उत्तराखंड के 12 फीसद से ज्यादा स्कूलों में अब भी पेयजल, बिजली, शौचालय जैसी जरूरी सुविधाएं नहीं हैं। हालांकि 87.72 फीसद स्कूल ही ठीक हाल में हैं। बुनियादी जरूरतों से वंचित ज्यादातर स्कूल गांवों से दूर हैं। गांवों तक तो खींचतान कर सुविधाएं जुटाई जा रही हैं। अलग-थलग पड़े स्कूलों के हाल बुरे हैं। सुविधाएं पहुंचाने में सरकारी मशीनरी के दम फूल रहे हैं। किसी तरह सुविधाएं जुट गईं तो स्कूल दूर होने की वजह से देखभाल नहीं होती। नौ दिन चले अढ़ाई कोस जैसे हाल हैं। स्कूल पास होने से हालत सुधरेंगे तो बच्चों की सुरक्षा की चिंता भी खत्म होगी।

    फीस एक्ट पर फिर नूरा कुश्ती

    चुनावी साल है, लीजिए फीस एक्ट का मसौदा ठंडे बस्ते से बाहर फिर निकल आया। मौजूदा भाजपा सरकार के चार साल के दौरान कई दफा शोर मचा, लो अब हाजिर हुआ फीस एक्ट। वो एक्ट ही क्या जिसका खौफ न हो और वो खौफ ही क्या जो व्यवस्था पर आखिर तारी हो जाए। प्रदेश में हर साल निजी स्कूलों की मनमानी पर अंकुश लगाने को हो-हल्ला मचता है। कोरोना महामारी के दौर में भी यह जारी है। अभिभावकों की आम शिकायत है कि पढाई आनलाइन हो रही है, लेकिन फीस पूरी वसूल की जा रही है। समाधान हो भले ही न, लेकिन दिखना तो चाहिए, सरकार इसी सोच के साथ बढ़ रही है। इस मामले में पिछली कांग्रेस की सरकार का रवैया कुछ ऐसा ही था। फीस एक्ट का धमाकेदार मसौदा तैयार हुआ। हड़कंप मचा तो एक्ट बस्ते से बाहर निकलना ही भूल गया। है ना तंत्र का अनोखा साम्यवाद।

    स्कूलों के उद्धार का भरोसा

    प्रदेश में प्राइमरी और जूनियर हाईस्कूलों के जर्जर भवनों के पुनर्निर्माण कार्यों पर दोहरी मार पड़ी है। कोरोना संकट की वजह से निर्माण कार्य बुरी तरह प्रभावित हुए। वहीं इन कार्यों के लिए केंद्र से काफी कम धनराशि प्राप्त हुई थी। पिछले शैक्षिक सत्र 2020-21 में समग्र शिक्षा अभियान में करीब 900 करोड़ ही राज्य को केंद्र से मिल पाए थे। प्रदेश सरकार ने करीब 1500 करोड़ की कार्ययोजना प्रस्तावित की थी। कोरोना की वजह से केंद्र सरकार की आमदनी पर असर पड़ा तो इस बजट पर कैंची चल गई। उम्मीद इस बार भी केंद्र सरकार से ज्यादा है। 2021-22 के लिए 1800 करोड़ से ज्यादा राशि की कार्ययोजना तैयार की गई है। नजरें 24 जून को दिल्ली में होने वाली प्रोजेक्ट अप्रूवल बोर्ड की बैठक पर टिकी हैं। चुनावी साल है, बजट मिला तो बड़ी संख्या में स्कूलों का कायाकल्प किया जा सकेगा। फिलहाल उम्मीद पर दुनिया कायम है।

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