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    कुमाऊं की सांस्कृतिक पहचान है 'रंगवाली पिछौड़ा', 14वीं सदी से शुरू हुई इस अनोखी परंपरा का क्या है महत्व?

    Updated: Mon, 08 Sep 2025 02:48 PM (IST)

    रंगवाली पिछौड़ा कुमाऊं की सांस्कृतिक पहचान है जो विवाह और शुभ अवसरों पर पहना जाता है। 14वीं शताब्दी में शुरू हुआ यह परिधान खुशहाली संपन्नता और धार्मिकता का प्रतीक है। इसके मध्य में बने प्रतीक जैसे स्वस्तिक सूर्य शंख घंटी और लक्ष्मी विशेष अर्थ रखते हैं। अब यह न केवल कुमाऊं बल्कि गढ़वाल और विदेशों में भी लोकप्रिय हो रहा है और इसे ऑनलाइन भी खरीदा जा सकता है।

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    विशिष्ट परंपरा का रंग बिखेरता रंगवाली पिछौड़ा।

    गणेश पांडेय, चम्पावत। व्यक्ति या समाज का पहला बिंब पहनावे से बनता है। उत्तराखंड के बाहर भी किसी परिणय, यज्ञोपवीत संस्कार में महिला ने सिक्के आकार के लाल चिह्नों से रंगा विशेष परिधान ओढ़ा हो तो सहज अंदाजा हो जाता है कि परिवार कुमाऊं से है।

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    कुमाऊं अंचल में मांगलिक काज में विवाहिताएं रंगवाली पिछौड़ा अनिवार्य रूप से पहनती हैं। परंपरागत परिधान होने के साथ यह शगुन का प्रतीक है। साथ ही इससे जुड़ी है सांस्कृतिक पहचान। यह हमारी संपन्नता व पारिवारिक खुशी को दर्शाता है।

    रंगवाली पिछौड़ा प्रतीकात्मक स्वरूप से कई अधिक विभिन्न सामाजिक व धार्मिक उपलक्ष्य पर ओढ़े जाने वाले रिवाज का द्योतक है। आइए, लोक जीवन के अभिन्न अंग रंगवाली पिछौड़ा की उपयोगिता व संदर्श का समझें।

    14वीं शताब्दी में आया चलन में

    लेखक व संस्कृति कर्मी चारु तिवारी बताते हैं कि हिमालय संस्कृति में बहुत कुछ चीजों को समय-समय पर आत्मसात किया गया है। पिछौड़ा भी उसी से जुड़ा है। चंद राजवंश के शासन में 14वीं शताब्ती के आसपास रंगवाली पिछाैड़ा के चलन में आने के संदर्भ मिलते हैं।

    19वीं शताब्दी तक इसे उच्च कुलीन ब्राह्मण या स्वर्ण समाज की महिलाएं ही पहना करती थी। मांगलिक कार्य संपन्न कराने वाले ब्राह्मणों ने इसका चलन शुरू किया। तब इसका उपयोग मांगलिक कार्यों तक सीमित भी था। फिर मांगलिक कार्यों के साथ यह धर्म व सांस्कृतिक रूप से भी जुड़ता गया।

    स्वीकार्यता बढ़ने से जाति बंधन नहीं रह गया। झोड़ा, चांचरी गाते, मंच पर सांस्कृतिक प्रस्तुति देते भी रंगवाली पहनी जाती है। यहां तक की किसी नेता की जनसभा में भी पिछौड़ा पहनकर अतिथि सत्कार की परंपरा शुरू हो गई है।

    यह दर्शाता है कि हमने पिछौड़ा को सामाजिक रूप से स्वीकार लिया है। पिछौड़ा समाज व क्षेत्र की पहचान से जुड़ गया है। अब बहुत जगह गढ़वाल मंडल में भी पिछौड़ा पहने जाने लगा है।

    खुशहाली, संपन्नता, धार्मिकता व वैभव का प्रतीक

    पिछौड़ा के मध्य भाग में बने प्रतीकों के विशिष्ट अभिप्राय होते हैं। स्वस्तिक देवी-देवताओं का प्रतीक है जो मनुष्य में कर्मयोग की भावना दर्शाता है। स्वस्तिक की चार भुजाएं खुशहाली व संपन्नता का द्योतक हैं।

    मध्य स्थित ओम चैतन्य व आध्यात्मिक अस्तित्व का प्रतीक है। स्वस्तिक के प्रथम भाग में बना सूर्य संतान की सुख-संपन्नता दर्शाता है। द्वितीय वृत्त-खण्ड में स्थित घंटी स्वयं की संपन्नता, तृतीय खंड में बना शंख धार्मिकता व चतुर्थ वृत्त-खंड की लक्ष्मी वैभव का सूचक है।

    प्रतीक चिह्नों का विशेष महत्व

    रंगवाली पिछौड़ा स्टोल के आकार का सफेद मलमल या वायल का कपड़ा होता है। जिस पर पारंपरिक रूपांकन कर मनमोहक स्वरूप दिया जाता है। इसमें पारंपरिक लोक-कला दर्शाई जाती है। स्टोल पहले हलके केसरिया रंग में रंगना होता है।

    सूखने के बाद उस पर लाल रंग से सिक्के के आकार के ठप्पे बनाए जाते हैं। स्टोल के मध्य भाग में स्वस्तिक बनता है। जिसके चारों वृत्त-खंडों पर क्रमशः सूर्य, शंख, घंटी व लक्ष्मी बनाए जाते हैं। स्वस्तिक के मध्य में ॐ आलेखित होता है। स्वस्तिक को गोल ठप्पों के साथ फूल-पत्तों को उकेरा जाता है।

    पहले समय में हाथ से बनता था पिछौड़ा

    पारंपरिक रूप से रंगवाली पिछौड़ा हाथ से बनता है। जिसे वानस्पतिक रंगों से रंगा जाता था। इनके निर्माण में केवल दो रंग लाल व केसरिया प्रयुक्त होते हैं। भारतीय सभ्यता में दोनों रंगों को मांगलिक माना गया है।

    चटक लाल रंग ऊर्जा, वैभवमय दांपत्य जीवन व केसरिया पवित्र धार्मिकता, सांसारिक सुखों का द्योतक है। दोनों रंग महिला को वैवाहिक जीवन में सौभाग्य प्रदान करते हैं। अब डाई के माध्यम से ठप्पे लगाकर रंगवाली पिछौड़ा तैयार होते हैं। गोटा लगाकर पिछौड़ा को आकर्षक रूप दिया जाता है।

    चमकीले किनारों व मोती से अति शोभित हो जाता है। गोल्डन या सिल्वर का चमकीला किनारा अधिक मनभावन लगता है। कुमाऊं में दुल्हन को पाणिग्रहण के शुभ-अवसर पर ससुराल से पहला पिछौड़ा दिया जाता है। यह रंगवाली पिछौड़ा उनके जीवन की अमूल्य निधि होती है। इससे दुल्हन के स्वयं परिणय की अनेकों सुखद संस्मरण व स्मृतियां जुड़ी रहती हैं।

    विदेश में पिछौड़ा भेज रहीं मंजू

    दिल्ली में पली-बढ़ी लोहाघाट मूल की मंजू टम्टा देहरादून में रहकर 2019 से रंगवाली पिछौड़ा को आनलाइन माध्यम से देश-विदेश में उपलब्ध करा रही हैं। एमबीए करने वाली मंजू पिछौड़ा की परंपरागत छवि बनाए रखने के साथ आकर्षक डिजाइन देती हैं।

    इससे खूब पसंद किया जा रहा है। पहला आर्डर बेंगलुरु में रहने वाले बागेश्वर मूल के परिवार ने किया था। अब विदेश में रहने वाले प्रवासियों के अलावा दूसरे राज्यों में रहने वाले युवतियां व महिलाएं भी पिछौड़ा मंगाती हैं। गैर हिंदू युवतियां बिना धार्मिक चिह्न वाले पिछौड़ा जैसे दुपट्टे मंगाती हैं।