प्रवासियों से गुलजार नंदा का मायका, गांवों में उत्सव
मानसून के दौरान भले ही लोग पहाड़ आने से परहेज करते हों, लेकिन नंदा देवी की लोकजात को लेकर इन दिनों चमोली जिले के घाट क्षेत्र में खासी चहल-पहल है।
चमोली, [जेएनएन]: मानसून के दौरान भले ही लोग पहाड़ आने से परहेज करते हों, लेकिन नंदा देवी की लोकजात को लेकर इन दिनों चमोली जिले के घाट क्षेत्र में खासी चहल-पहल है। प्रवासी न केवल नंदा का दीदार करने के लिए गांव लौटे हैं, बल्कि घरों में नाते- रिश्तेदारों की भी भीड़ जुटी है। गांवों में उत्सव के माहौल के बीच नंदा की विदाई के क्षण हर किसी को भावुक कर रहे हैं।
हर वर्ष कुरुड़ से शुरू होने वाली यह धार्मिक यात्रा नंदा देवी को उसके ससुराल कैलास भेजने की यात्रा है। लोकजात का समापन नंदा सप्तमी को बालपाटा में होता है। इस बार 15 अगस्त से शुरू हुई लोकजात 28 अगस्त को विश्राम लेगी।
यह पैदल यात्रा 60 से अधिक गांवों से होकर 14 पड़ाव तय करती है। खास बात यह कि 50 से अधिक गांव ऐसे हैं, जो डोली यात्रा के मार्ग से हटकर हैं और वहां केवल छंतोलियां जाती हैं। सभी छंतोलियां रामणी में मिलने के बाद यहां से आगे बालपाटा तक नंदा सप्तमी की जात एक साथ आयोजित होती है।
चमोली जिले का नंदप्रयाग-घाट क्षेत्र आपदा प्रभावित है, लेकिन भगोती नंदा की लोकजात के दौरान आपदा प्रभावित गांवों में भी चहल- पहल रहती है। गांवों से रोजगार की तलाश में मैदानी क्षेत्रों में जा बसे लोग भी इन दिनों देवी नंदा की पूजा के लिए वापस गांव लौट आए हैं।
धियाणियां (विवाहित बेटियां) मायके आई हुई हैं और घर रंग-रोगन से दमक रहे हैं। देवी नंदा के यात्रा मार्ग को साफ-सुथरा किया गया है। जिस भी गांव में मां नंदा आती है, वहां सामूहिक भोज का आयोजन होता है और सभी एक सुर में नंदा के जागरों को गाकर भक्ति में डूब जाते हैं।
कुरुड़ गांव के दिनेश प्रसाद गौड़ दिल्ली में कारोबार करते हैं। लेकिन, इन दिनों वे गांव आकर लोकजात का हिस्सा बने हुए हैं। कांसवा गांव के विनोद कुंवर का देहरादून में कारोबार है, लेकिन वे भी लोकजात के दौरान गांव आना नहीं भूलते।
नंदा देवी मंदिर के मुख्य पुजारी मुंशी चंद्र गौड़ का कहना है कि लोकजात में शामिल ब्राह्मण नंगे पैर और एक समय भोजन कर यात्रा करते हैं। प्रतिदिन नंदा देवी की प्रात:कालीन व शयन पूजा आयोजित होती है।
यह छंतोलियां होती हैं शामिल
नंदा की छंतोली नौना गांव, जाख देवता की छंतोली लासी, बंड भूम्याल की छंतोली किरुली, चौंणा रसकोटी की भूम्याल छंतोली, ल्वाणी से ज्वाल्पा देवी की छंतोली, कंडारा से दशमद्वार की छंतोली आदि।
सामूहिकता का प्रतिबिंब है लोकजात
नंदा की डोली जिस गांव में भी जाती है, उस गांव से दूसरे गांव तक डोली को छोड़ने के लिए गांव के लोग आते हैं। दूसरे गांव की सरहद पर वहां के लोग डोली के स्वागत को खड़े रहते हैं। ऐसे में यह यात्रा गांवों को भी सांस्कृतिक एवं धार्मिक रूप से एक कड़ी में पिरोती है।
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